कभी सिहरती
कभी महकती
कभी तपती
कभी भीगती
स्वतः यूँही घूमती हुई
आनंदित हूँ
विचलित नहीं हूँ
जानती हूँ
नीयत नहीं ये तुम्हारी
नियति के चक्र में तुम बंधे हो
और तुम्हारे चक्र में "मैं " बंधी हूँ .....
*** शोभा ***
जब गढ़ा होगा खुदा ने तुम्हें गढ़ते वक़्त तुम्हारी आँखें रोशन हुई होंगी उसकी आँखें क्या गढ़ लिया तुमने इन आँखों में देखकर इन्हें सहमी , डरी कभी जमीं , तो कभी आसमाँ में पनाह माँगती हैं,मेरी आँखें .... ( शोभा ) |
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