Sunday, September 30, 2012

'कृतिम' 'चाँद'



तुम्हारा दावा है

सात फेरों वाली

तुम्हारी कविता

तुम्हारी सात बेड़ियों में

सुरक्षित है




सात परतों में उसे छिपा

तुम सराहते हो उन्हें

जो तुम्हारी नज़रों में

'निरंकुश' कविता है





सराही जाती है तुम्हारी

दोहरे मानसिकता वाली कविता

'कृतिम' 'चाँद' के रूप में ..!!

Friday, September 28, 2012

बात कुछ भी नहीं थी

बात कुछ भी नहीं थी
बस ..
आस-पास का माहौल
...कुछ ठीक नहीं था
हर तरफ
धोखे की कहानियों सा
कुछ बिखरा हुआ था
कुछ देर की तुम्हारी चुप्पी
कहानी के बेवफा किरदार की
झलक सी दिखाई दी

शायद तुम जान गए थे
इस उदासी की वजह
तभी तो तुमने चुप्पी तोड़ी
क्या करते हम गिला -शिकवा
चुप ही रहे
तुम्हारे भीतर कुछ भीग गया
उदासी की वजह हम बने
शायद इस बार भी
आख़िरी न हो
फिर भी
एक और बार
कर दो
मेरे गुनाह माफ़ ..

Wednesday, September 26, 2012

सुन री सखी !

सुन री सखी !

आज भी याद है मुझे
स्कूल यूनिफ़ॉर्म की
मटमैली शर्ट
बिना प्रेस की नीली स्कर्ट
सर पर बकरी के सिंग की तरह
चोटी में लगा उधरा हुआ लाल रिबन
क्लास की सबसे आगे की सीट पर
विराजती थी तुम पढ़ाकू  बनकर
 पीछे वाली सीट पर बैठकर
तुम्हारी शर्ट पर मैंने चिड़िया..कौवा
और तुम्हारा ही कार्टून खूब बनाया
लंच टाइम में तुम्हारी शर्ट देखकर
आँखों ही आँखों में इशारा कर
खूब हँसती थी सब सखियाँ
लाख पूछने पर भी कोई मेरा नाम नहीं लेती थी
दबंगयीं से हमारी डरती जो थी
खुर्राट मैडम कक्कड़ से
मुझे डांट पिलाने की
तुम्हारी सारी कोशिशें बेकार जाती
बिना सुबूत छोड़े तुम्हें छेड़ने का
एक भी मौका मैं नहीं छोड़ती
सच .. मुझे कितना मज़ा आता था
तुम्हारा हताश झुंझलाया हुआ चेहरा देखकर
तुम आँखों ही आँखों में मुझसे कह देती थी
"कभी तो तुम्हें ढंग से मज़ा चखाकर ही रहूंगी"
मैं भी शरारती मुस्कान उछालकर
अपनी आँखें गोल-गोल नचाकर
तुम्हारा चलेंज़ स्वीकार कर लेती
हमारे शीतयुद्ध के चर्चे
अक्सर स्कूल में होते रहते
लड़ते -झगड़ते हम जरुर थे
लेकिन मन से  जुड़े थे
एक के स्कूल न आने पर
दूसरा कुछ खालीपन जरुर महसूस करता था

फिर वो भी दिन आया
एक नयी दुनिया में हम अलग-अलग रहने लगे
गृहस्त जीवन .. परिवार .. बच्चे
हमारी सोच परिपक्व हो गयी थी
सखियों- सहेलियों से मिलना सपने की बात थी
हाँ .. एक दूसरे को याद बहुत करते थे
बचपन के शरारती झगड़ों को यादकर
खुश हो लेते थे
काश .. कि एक बार मिलते
तो पुराने गिले-शिकवे दूर कर लेते
मैं यही सोचती थी
शायद .. तुम भी

लेकिन हमें तो मिलना ही था
एक दिन एक नयी किताब मिली
चेहरे - चेहरे खेलने वाली
उस किताब में तुम भी नज़र आई
हम दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था
पढाई की बातें .. घर-परिवार की बातें
कुछ दिन होती रही
चेहरे की किताब पर .. लिख-लिखकर
लेकिन  हम  साथ  हों
और शरारत भरे झगड़ें न हों
ये कैसे हो सकता है
इस बार झगडे की वजह बनी
वो भिंडी की सब्जी
जो परोस दी थी तुमने
चेहरे की किताब पर
वैसे ....सच बताएं
दिखने में टेस्टी तो बहुत लग रही थी
लेकिन राजस्थानी भिंडी की बुराई हमने
तुम्हें छेड़ने के लिए की थी
तुम अपनी पुरानी आदत के अनुसार
छिड़ भी गयीं ...:)
फिर क्या था ..
सबको दिखाने के लिए हम खुश होकर
लिख -लिखकर भिंडी का स्वाद लेते रहे
और पिछली गली(इन्बोक्स) में
जमकर लड़ते रहे
चटपटी भिंडी जैसे झगड़े के स्वाद को
बीच में ही छोड़कर
अपने "उनके" आने का
बहाना करके
और फिर कभी मुझसे बात न करने की
धमकी देकर चली गयी
और मैं बस मुस्कुरा भर दी
सच कहूँ ..
तुम्हें देखते ही
शरारत सूझ जाती है
फिर एक बार
बहुत दिन से तुमसे मुलाकात नहीं हुई है
वो झगड़े वाली मुलाकात
कब होगी ..
बताना तो ..:)

शोभा 

Saturday, September 22, 2012

निमिया चिरईया

फूलों की क्यारियाँ
लताओं,बेलों से ढंके दरख्त
महकती हवाएं
पत्तों की सरसराहट ...
हठात,
'इसकी' चहक सुनकर
दो जोड़ी आँखें भी चहकी
और एक हो गयीं
बरबस ही ........
उनकी हाथों की उंगलियाँ
आपस में उलझ गयीं
ईश्श्श्श ..... की एक मधुर आवाज़
फिजाओं में गूंज  गयी
अपने 'प्रिय' के होठों पर
ऊँगली रख
बस वो निहारती रही
~ ~ ~ "इसे" अपलक
(शोभा)

23/9/12

Thursday, September 6, 2012

तुम्हारे खत




अचानक से हाथ लगे आज खत तुम्हारे
खुले तो मानो एक दुनिया खुल गयी मेरे सामने 
गुजरे वक्त के समंदर लांघ 
जाने कब पहुँच गयी बीते अ -तीत में
खत में तुम हो 
तुम्हारा गुस्सा है 
शिकायतें हैं
सबसे ज्यादा हैं विरह के नुक्ते और प्यार के हर्फ
खत रंगा है अलग अलग भाव से
सारे भाव पढ़ते मेरे होठों पर बस मुस्कुराहट है
आखिरी खत की तारीख देख
भीग गयीं पलकें
सुनो ..
एक खत फिर लिख के भेजो न !

शोभा
६/८/12