Saturday, April 30, 2011

नटखट कान्हा

नटखट कान्हा की छवि मन भायी
देख मनमोहक मुस्कान कान्हा की ..
व्याकुल हुआ है ये मन
आँख मिचौली न खेल अब कान्हा
दर्शन दे तब चैन मिले
मेरी अँखियों को रैन मिले ...!!! शोभा

Monday, April 25, 2011

छोटी सी ख्वाहिश




1-
 बस एक छोटी सी ख्वाहिश है, मेरी हथेली में चाँद हो ...
और जी भरकर मैं उसका दीदार करूँ .... :):):):)

2-
तो क्या हुआ अगर खंडित मूरत हैं तुम्हारी यादें ... ? मन के मंदिर में न सही स्मृतियों की नदी में निरंतर प्रवाहित हो रहीं हैं ....


3-
माँ की और तुम्हारी दुआएँ एक जैसी हैं ... उदासी के आने से पहले माथे पर नर्म, सुर्ख मुस्कराहट रख जातीं हैं ...
4-
सूखे रंग
जो दिखे
दूर ...................
बहुत दूर होते गए !

पलकें बंद हुई
भीगे रंग
जो नहीं दिखे
.................... पास
बहुत पास आते गए ...

5- 
एक बेबस
भूखी
गरीब
अपमानित
सिसकते अक्षरों वाली
स्त्री-जीवन पर लिखी कविता
महफ़िलों की रौनक
तालियों की गूँज से आनंदित
पुरस्कारों से सम्मानित
अपने आलीशान महल में
आराम फरमाती रही !

वास्तविक जीवन में
एक वैसी ही स्त्री
आंसू बहाती
महफ़िलों की रौनक वाली
कविताओं के बीच
अकेली भटकती रही .........

ऐ चाँद !


ऐ चाँद !
तुम क्यूँ इतना करीब आये ?
विशाल समंदर मेरे भीतर ठहरा हुआ था
तुम उसको छलका गए ....!!! शोभा

Sunday, April 24, 2011

मेरा 'सच'




तुम क्यों हो मुझसे दूर ??

'तुम्हारे बिना'.. मैं कुछ भी नहीं
आरोपों की 'गठरी' बन के रह गई हूँ
बस , अब 'देर न हो जाये कही'...
'जो' अभी हूँ , वो मैं नहीं हूँ
मिलने के बाद तुमसे ...
'जो'.. हो जाऊँगी , वही मेरा 'सच' होगा
अपने रंग में रंग लो मुझे

तुम भी... 'अपना सच' बना लो मुझे...~शोभा

Thursday, April 21, 2011

तुम्हारे आने से ...


तुम्हारे आने से ...

भ्रमों के काले बादल हट गए
नयनों से जो नीर बहे..
अंतर्मन पर पड़ी गर्त ...
धुल गयी उस नीर से
देख तेजस्वी छवि तुम्हारी
रोम-रोम मेरा पुलकित हुआ
भाव-विभोर हुआ है मन
कौन हो तुम ?
कहाँ से आए हो ?
कभी सूक्ष्म हो तुम ..
कभी विराट हो तुम ..
जो भी हो ..
बस एक तुम्ही सच हो
तुम्ही सच हो ... !!!! शोभा

Sunday, April 17, 2011

गुड्डे - गुड़ियों का खेल


मुद्दतों बाद वो गुड्डे - गुड़ियों का खेल याद आया
मेले से खरीदा गया वो रसोई के बर्तनों का सेट याद आया
टक-टक करती , उन् खिलौनों में एक गाड़ी भी थी
डोर उस गाड़ी की तुम खीचा करते
और मैं पीछे - पीछे खुश होकर दौड़ती आती
...एक पी-पी पिपिहरा बाजा भी था
किसका बाजा तेज बजे ....
इस होड़ में हम शोर खूब मचाते
पड़ती थी तब हमें माँ की डाट
मार भी न पड़ जाए ..
इस डर से हम घर के बाहर भाग जाते ....:)))) शोभा

ये खूबसूरत चाँद

ये खूबसूरत चाँद
पूरा पूनम का चाँद
खामोश रातों का ये हमसफ़र चाँद
धरा के रोम-रोम को ..
रौशनी से सराबोर करता ये चाँद
दीदार तो हमने कर लिया जी भर के
अब ख्वाहिश ये जागी है ..
के एक बार छू लूँ ये चाँद
इसके काले दाग को ..
अपनी आँखों का काजल बना लूँ
 करीब तो ये पहले भी था
अब इसे अपनी पलकों में छिपा लूँ
और बस,
इसकी शीतल तपिश को महसूस करूँ

Saturday, April 16, 2011

गौरैया




मैं पंछी हूँ

हाँ मैं गौरैया हूँ

शाम को क्या ..

अब सुबह को भी नहीं आउंगी

भूल जाओ आँगन में उतरने की बात 

अब तो तुम्हारे छज्जे पर भी नहीं बैठूंगी

 पहचानती थी तुम्हारे आँगन के हर कोने को

 अब वो आँगन ही नहीं रहा

बदल लिया है तुमने घर का नक्शा

 बनवाया है तुमने एक नया घर


संगमरमर से तराशा

बहुत खूबसूरत है ये घर

पर अब आँगन नहीं है तुम्हारे घर में 

बहुत छोटे हैं कमरे भी

नहीं है कोई झरोखा भी

जगह है जो थोड़ी सी

खूबसूरत सजावट की मूर्तियाँ सजा रखी हैं उसमें तुमने

घोसला तो अब बनता ही नहीं

एक तिनका भी रखती हूँ ..

तो टिकता नहीं

तुम कहते हो आया करो

कैसे आऊँ ?

कहाँ बैठाओगे आ भी गयी तो?

आँगन तो अब रहा नहीं

बंद कर दिए झरोखे भी तुमने

मत देखना अब तुम रास्ता मेरा

नहीं आउंगी मैं अब 

आने के मेरे सारे रास्ते..

बंद कर दिए तुमने ही  

हाँ , यही सच है

नहीं  आउंगी मैं अब ...!!! शोभा

वजूद

खुद को फ़ना कर
हम बस उन्ही में खो गए
होश में तब आए..
जब वो ही दामन झटक कर चल दिए
अपने वजूद का एक कतरा भी..
अब हमें तलाशने से नहीं मिलता !!! शोभा

बहुत विराट हूँ मैं ...नदी हूँ मैं


बहुत विराट हूँ
नदी हूँ मैं
अभी तो थमीं हूँ मैं

बहुत ही शीतल हूँ
बहुत याचना से , घोर तपस्या से आयीं हूँ
तुम मोल न मेरा समझ सके
जब बुझा ली तुमने तृष्णा अपनी ..
पाप भी अपने धोने लगे
जब-जब गगरी भरी पाप की ..
लाकर मुझमें ही डुबोने लगे
धो-धो कर पाप तुम्हारे
मैली हो गयीं हूँ मैं !

नदी हूँ मैं
अभी तो थमी हूँ मैं
उफ़न पड़ी तो सम्हल न पाओगे
वेग मेरा कैसे सह पाओगे ?
संताप मेरा डुबो देगा तुम्हें
शंकर नहीं हो ..
जो जटाओं में सम्हाल लोगे !

नदी हूँ मैं
अभी तो थमी हूँ मैं
धो-धोकर तुम्हारेपाप को
खुद से घृणित  हो गयीं हूँ
सिमट रही हूँ अब तो
खो दूंगी वजूद को अपने
तुम सोचो
क्या करोगे ?
तृष्णा तो अपनी भूल जाओ
तर्पण को भी तरस जाओगे !

नदी हूँ मैं
अभी तो थमी हूँ मैं ....
Shobha

Monday, April 11, 2011

तुम्हारे शब्दों की जादूगरी


ये तुम्हारे शब्दों की जादूगरी थी
जिसमें मैं खो गयी  थी

मैं तो मौन थी ,
इन शब्दों के मायने भी नहीं समझती थी
कुछ नए शब्द सिखा दिए थे तुमने
तुम्हारे खूबसूरत और अनोखे शब्दों की बारिश ...
मेरे अंतर्मन को भिगोने लगी थी

तुम्हें शिकायत थी
कि
मैं कुछ बोलती नहीं
अब तुम खुश थे
तुम्हारे शब्द मैं भी बोल पड़ी थी
तुम्हारे एक -एक शब्द को मैं अपनाने लगी थी

पर शायद जो शब्द
मेरे लिए खूबसूरत और अनोखे थे ..
वो तुम्हारे लिए सिर्फ एक खेल थे

तुम्हारे ही शब्दों को मैं बार-बार ...
तुमसे कहना चाहती हूँ
अब तुम क्यूँ नहीं सुनना चाहते ?

करवट बदलते तुम्हारे शब्द ...
बहाने बनाते तुम्हारे शब्द ..
मुझसे ही नजरें चुराते तुम्हारे शब्द

अब तो तुम मौन हो
तुम्हारा मौन मुझे विचलित करने लगा है
मेरे अंतर्मन को झकझोरने लगा है तुम्हारा मौन....

शोभा