पनघट गयी थी मैं तो पनियां भरन
बरबस ही तू मोहे टकरायो रे !
बहियाँ मरोड़ी , राह भी रोकी
आँचल मोरा सरकायो रे
आँख तरेरी मैंने , बाहँ भी झटकी
नटखट फिर भी तू बाज न आयो रे !
स्याम वर्ण तोरा , कजरारी अँखियाँ
घुँघर बाल ,तोरी ठिठोली बतियाँ
बहुत ही मोरे मन भायो रे !
झिझकी रही मैं , तोसे कैसे कहूँ ?
ये कैसो रोग तूने लगायो रे !
देख ये अपना सिंदूरी रंग
खुद पर ही मैं इतरायो रे !
शाम ढले मोहे पनघट पर
काहें तू रोज़ मोहें बुलायो रे !
सुध -बुध बिसरायी
मोहें लाज न आयी
बरबस ही मैं खिंची चली आयो रे !
लुका-छिपी न अब खेल तू
अब तो तू मोहें दरश दिखायो रे !
लोक -लाज सब बिसरायी
सारे बंधन मैं तोड़ के आयी !
प्रीत की अगन ,जो तूने लगायी
अब कौन उसे बुझायो रे ?
सब डगरिया मैं भूल गयी
बस , तोरी ही डगरिया मोहे भायो रे !
अब तो तू गरवा लगा ले मोहे
अब और न मोहे तू तरसायो रे !
एक बार जो मिलन हो तोसे
भव-सागर तर जायो रे !!! शोभा
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