कोई देख ले तो सोचेगा की गहरी नींद सो रही है , लेकिन नहीं ... जब से होश संभाला है उनींदी के उड़नखटोले में सवार ब्रह्म -मुहूर्त की शुभ बेला में नर्म तकिये को अंकवार में भर किसी चिड़िया की टिहू - टिहू का इंतज़ार रहता है उसे ।
.. लेकिन आज की भोर अपने साथ ये कैसा शोर लेकर आई .. आसमान में कुछ चमका और कमरा एक क्षण के लिए रौशनी में नहा गया दूसरे ही क्षण तेज कड़कती आवाज़ सुनकर उसकी हृदय गति तेज हो गयी .. कुछ क्षणों का भय था .. बात समझते देर नहीं लगी कि अचानक ऋतु के विपरीत प्रकृति ने एक हल्की करवट ली है .. आसमान से चमक कर भयावह चीत्कार के साथ बार-बार कौंधती बिजली ऊँची इमारतों और पेड़ोंं को छूने को आतुर थी ।
आँख खोलने के बाद रोज की तरह आज भी उसी छोटी खिड़की की तरफ उसने देखा ..बाहर हलकी भीगी रौशनी में नहाया बरसता आसमान आज कुछ उदास था ... सूखे पॉपुलर की कुछ शाखाएँ नज़र आ रही थी ... उठकर खिड़की के पास जाकर देखा तो आज उसे सूखे पेड़ पर चिड़ियों का समूह नहीं दिखाई दिया .. बारिश में भीगती दो चिड़िया लगातार आसमान की ओर देख रही थी ।
मन में कई प्रश्न उठ रहे थे .. बाकी चिड़िया कहाँ गयी ? आस-पास कोई घोसला भी तो नहीं नज़र आ रहा .. सूखे पॉपुलर के आस-पास हरे-भरे पॉपुलर भी हैं लेकिन गौर से उनकी पत्तियों में झाँकने पर भी उसे कोई चिड़िया नज़र नहीं आई .. कहाँ गयी सब ? और ये दो चिड़िया लगातार तीन- चार घंटे से इस पेड़ पर बैठी क्यों भीग रही हैं ? ये कड़कती बिजली के शोर से डर क्यों नहीं रही ?.....
( एक बरसती - भीगती सुबह )
Shobha Mishra
Thursday, October 10, 2013
Wednesday, October 9, 2013
दिलों के मेले
गुल्लक जो फूटेंगे
लाल माटी से सने
सिक्कों की चमक हम
आँखों में भर लेंगें
नन्ही अंजुरियों में
सीपियाँ खनकायेंगे
नन्ही हथेलियों में
रेखाएं पसीजेंगीदिलों के मेले में
भटकेंगे, भागेंगे
माटी के खिलौनों से
सपनों के घर सजेंगे
देखो लुका-छिपी में
त्यौहारों के मौसम ये
यूं ही बीत जाएंगे
.....
Monday, October 7, 2013
पलाश के वृक्ष
एक बार फिर नदी की सतह सूखने ही वाली थी ... नमी की आस कोसो दूर थी ... नन्हे और विशाल मर्यादाओं के पत्थर सतह रुपी हृदय पर ना जाने कब से उसके भार को सह रहे थे .. तभी उम्मीद के विपरीत कौन से शिखर से एक सोता फूटा .. एक नयी नदी शिखर के उषा से नहाये ओजस ललाट से होकर प्रणय का एक नया सफ़र शुरू करके उसके हृदय रुपी सागर में विलीन हो जाना चाहती है ... मर्यादाओं के भारी पत्थर फूलों की तरह हलके लग रहें हैं ... प्रेम की नदी उफान पर है .. बाँध सहमें हुएं हैं !!!!
स्त्री भी तो नदी ही है ना प्रिय ! कितनी ही बार सूखती है लेकिन प्रकृति का ही एक रूप है शिखर .. हर बार ना जाने कहाँ से ले आता है नदी ...
इन संकेतों को समझो प्रिय ... मौसम के विपरीत गुलमोहर और पलाश के वृक्ष फूलों से ढंके हुए प्रतीत हो रहें हैं ... एक सूखे वृक्ष पर चिड़ियों का जोड़ा चहचहा रहा है .....
शोभा
स्त्री भी तो नदी ही है ना प्रिय ! कितनी ही बार सूखती है लेकिन प्रकृति का ही एक रूप है शिखर .. हर बार ना जाने कहाँ से ले आता है नदी ...
इन संकेतों को समझो प्रिय ... मौसम के विपरीत गुलमोहर और पलाश के वृक्ष फूलों से ढंके हुए प्रतीत हो रहें हैं ... एक सूखे वृक्ष पर चिड़ियों का जोड़ा चहचहा रहा है .....
शोभा
सिंदूरी तारों भरा प्रणय का सिंहोरा
सिंदूरी तारों भरा प्रणय का सिंहोरा
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सिंदूरी साँझ जाते -जाते
तुम्हारी यादों से लिपटी नूरानी आभा बन, मुझसे लिपटी रहती है
सारी रात निहारती हूँ तारों को
हर तारें में तुम्हारी छवि
चाँदी से चमकते तारे मुझसे लिपट
साँझ की आभा में रंग जातें हैं
भोर होने से पहले
साँझ और तारों के रंग में लिपटी 'मैं',
'तुम्हें' विदा करने से पहले ,
अंजुरी भर तुम्हें अपने पास रख लेतीं हूँ
सिरहाने के नीचे छिपा
एक हलकी झपकी लेती हूँ
उषा की पहली किरण से पहले
चिड़िया मुझे जगाती है
'भोर' लोक-लाज- मर्यादाओं का उजाला साथ लाती है
सिरहाने के नीचे से अंजुरी में तुम्हें उठाकर,
'गठबंधन' के सिन्होरे में छिपा देती हूँ
'गठबंधन ' तो एक रीत थी
प्रणय का अनुबंध जो तुमसे है
साँझ और रात के तारों भरी कहानी बनकर
दिन के उजाले में मेरे मुख पर सिंदूरी आभा बिखेरतें हैं ..........
रफ
- शोभा मिश्रा
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सिंदूरी साँझ जाते -जाते
तुम्हारी यादों से लिपटी नूरानी आभा बन, मुझसे लिपटी रहती है
सारी रात निहारती हूँ तारों को
हर तारें में तुम्हारी छवि
चाँदी से चमकते तारे मुझसे लिपट
साँझ की आभा में रंग जातें हैं
भोर होने से पहले
साँझ और तारों के रंग में लिपटी 'मैं',
'तुम्हें' विदा करने से पहले ,
अंजुरी भर तुम्हें अपने पास रख लेतीं हूँ
सिरहाने के नीचे छिपा
एक हलकी झपकी लेती हूँ
उषा की पहली किरण से पहले
चिड़िया मुझे जगाती है
'भोर' लोक-लाज- मर्यादाओं का उजाला साथ लाती है
सिरहाने के नीचे से अंजुरी में तुम्हें उठाकर,
'गठबंधन' के सिन्होरे में छिपा देती हूँ
'गठबंधन ' तो एक रीत थी
प्रणय का अनुबंध जो तुमसे है
साँझ और रात के तारों भरी कहानी बनकर
दिन के उजाले में मेरे मुख पर सिंदूरी आभा बिखेरतें हैं ..........
रफ
- शोभा मिश्रा
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