प्रिय ! ऐसा तुम क्यों कहती हो ?
by Shobha Mishra on Tuesday, August 9, 2011 at 4:11pm
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
जननी हो
बहन हो
अर्धांगिनी हो
बेटी हो तुम
सच में
ममता का तुम सागर हो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
तुम ही नहीं
मैं भी माँ के आँचल से दूर हुआ
माँ की थपकी
वो प्यार भरी लोरी
सुनी थी कब ?
यादों में बस रह गयी वो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
आँसू बहाकर अपनी पीड़ा
मुझसे तुम बाँट लेती हो
मैं अपनी पीड़ा जब्त कर
आँसू अपने स्वयं पीकर
मुस्कुराता रहता हूँ
ह्रदय की पीड़ा तुम समझो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
पुरुष ही नहीं
पिता भी हूँ
भाई भी हूँ
जीवन साथी
एक प्यारा दोस्त भी हूँ
न समझो खुद को बंधन में
प्यार से मुझे ये मान तो दो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
चलो एक वादा करें
हम एक दुसरे पर ममता बरसाएंगे
संग खेलकर बचपन जियेंगे
दुःख-सुख बाँटकर दोस्त बनेगें
सदा एक दुसरे का साथ देंगें
मुश्किलें चाहे जितनी भी हो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो ?
शोभा
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
जननी हो
बहन हो
अर्धांगिनी हो
बेटी हो तुम
सच में
ममता का तुम सागर हो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
तुम ही नहीं
मैं भी माँ के आँचल से दूर हुआ
माँ की थपकी
वो प्यार भरी लोरी
सुनी थी कब ?
यादों में बस रह गयी वो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
आँसू बहाकर अपनी पीड़ा
मुझसे तुम बाँट लेती हो
मैं अपनी पीड़ा जब्त कर
आँसू अपने स्वयं पीकर
मुस्कुराता रहता हूँ
ह्रदय की पीड़ा तुम समझो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
पुरुष ही नहीं
पिता भी हूँ
भाई भी हूँ
जीवन साथी
एक प्यारा दोस्त भी हूँ
न समझो खुद को बंधन में
प्यार से मुझे ये मान तो दो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
चलो एक वादा करें
हम एक दुसरे पर ममता बरसाएंगे
संग खेलकर बचपन जियेंगे
दुःख-सुख बाँटकर दोस्त बनेगें
सदा एक दुसरे का साथ देंगें
मुश्किलें चाहे जितनी भी हो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो ?
शोभा
सुंदर प्रस्तुति आभार .......
ReplyDeleteआदरणीया शोभा जी
ReplyDeleteसादर अभिवादन !
मैं विनम्रता से भर गया हूं आपकी यह रचना पढ़ कर
आंसू बहाकर अपनी पीड़ा
तुम बांट लेती हो
मैं अपनी पीड़ा जब्त कर
आंसू अपने स्वयं पीकर
मुस्कुराता रहता हूं …
ह्रदय की पीड़ा तुम समझो
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूं मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?
आपने नारी हो'कर पुरुष की बात को समझा , उसे अभिव्यक्ति दी … नमन है आपको और आपकी लेखनी को !
सच तो यही है कि नारी पुरुष के हृदय की हर बात स्वतः पहचानती है … आपने बहुत निर्मल हृदय से इन्हीं भावों को उकेरा है । जितना आभार व्यक्त करूं , कम होगा ।
…नारी-लेखन में पुरुष , समाज , व्यवस्था सबके प्रति एक शिकायती स्वर ही अधिक देखने में आता है … जबकि हर पुरुष नारी पर अत्याचार करने वाला ही नहीं होता ।
पुनः पुनः आभार ! साधुवाद !!
♥श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार