Sunday, May 19, 2013

( सृष्टि से प्रथम साक्षात्कार के बाद )

आगमन की अनुभूति से अनभिज्ञ जब उसने अपनी कोमल गुलाबी पंखुड़ियों सी पलकें हलके से ऊपर उठाई तो नारंगी क्षितिज को मंत्रमुग्ध सी निहारती रही, स्वर्ण सी दमकती बादलों की मुलायम रुई की मंडलियाँ एक दूसरे से गुंथी हुई  बहुत नज़दीक उसके गालों को अपने स्पर्श से गुदगुदा रही थी ..
  नन्हें पाँव के नीचे गीली रेट की गुदगुदी उसके ह्रदय और रोम रोम को उमंगों से भर रही थी, ठंडी नदी की धीमी  लहरें बार-बार पांवों में पायलों का आकार दे रही थी, ठंडी बूंदों की रुन-झुन कानों से होती हुई मस्तिष्क की शिराओं को विषादों से मुक्त कर ब्रह्माण विचरण का आभास दे रही थी, देवदार के वृक्षों से ढंकी विशाल पर्वत श्रंखला को वो अपनी नन्ही बाहों में समेत लेना चाहती थी .
 इन्द्रधनुष के सभी रंगों से सजी क्यारियाँ, फूलों की पंखुड़ियों पर इतराती तितलियाँ उसकी   आँखों  में सभी रंग  भर दे रहीं  थी .
तभी  अचानक पांवों के नीचे की गीली नरम रेत पथरीली होती गयी , पाँव में पायलें बनती ठंडी लहरें सख्त बेड़ियाँ बनती गयीं ....................
( सृष्टि से प्रथम साक्षात्कार के बाद ) 

Monday, May 13, 2013

युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से मेरी बातचीत

 
युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से बातचीत
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'कठपुतलियाँ' 'शालभंजिका' 'केयर ऑफ़ स्वात घाटी' ' बौनी होती परछाई ' , 'गन्धर्व-गाथा' जैसे कहानी संग्रह , लघु उपन्यास और 'शिगाफ़' जैसे चर्चित उपन्यास से साहित्यजगत में बहुत ही कम समय में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी सहज,सरल, सहृदय और विनम्र कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से कहीं ना कहीं कविता-पाठ में अक्सर मुलाकात हो जाती है. कथाकार के साथ-साथ वो एक कुशल गृहिणी, कवयित्री ... और चित्रकार भी हैं.
अक्सर जब भी उनसे फ़ोन पर बात होती तो वो मुझे बहुत ही आत्मीय भाव से अपने घर आमंत्रित करतीं , एक दिन उनसे मिलने उनके घर भी गयी , एक अद्भुत अनुभव था उनसे मिलना , जैसा संवेदनशील उनका लेखन है वैसी ही वो स्वयं भी हैं.

कुछ देर उनके घर उनके साथ समय बिताकर उन्हें बहुत करीब से जानने का मौका मिला, उन्होंने मेरे लिए चाय स्वयं ही बनायीं , चाय बनाते समय वो अपनी मेड की बेटी छुटकनी का जिक्र करते हुए भावुक हो गयीं थी, छुटकनी की कहानी भी 'फर्गुदिया' की जैसी थी .



बालकनी में चाय की चुस्कियों का मज़ा लेते हुए वो अपनी शादी का जिक्र करते हुए बिलकुल छोटी बच्ची सी लग रहीं थी, शादी के पहले मनीषा ने अंशु जी से मजाक में जिक्र किया होगा कि 'मुझे तो बिना सास वाली ही ससुराल चाहिए थी' वो वाकया सुनाते हुए उनके चेहरे पर एक शरारती मुस्कान दौड़ गयी थी लेकिन दूसरे ही पल सासू माँ के ना होने पर शादी के बाद उन्होंने किन कठिनाइयों का सामना किया वो सब याद करके ... अपनी सासू माँ को याद करके उनकी आँखें भीग गयीं थीं.
अभी हाल ही में उनके उपन्यास 'शिगाफ' को 'गीतांजलि लिटरेरी' एवार्ड मिला .
उन्हें स्वयं लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली ... लेखन विधा सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण सुझाव गृहणियों के लिए .. और भी बहुत कुछ है उनसे हुई इस बातचीत में ...




१ . मैं - जब भी आपसे मिलती हूँ , आपकी आँखों को पढ़ती हूँ, आपकी आँखें हर किसी के चेहरे और आँखों की कहानी पढने को आतुर नज़र आतीं हैं. ऐसा है क्या ?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - थोडा मुस्कुराते हुए ..हाँ .. ऐसा है .. यहाँ सदर में मैंने कल एक समोसे वाले को देखा, उसे देखकर मुझे ये लगा कि वो पूरा का पूरा एक कहानी का पात्र है, क्योकि इतने बड़े दिल्ली शहर के छोटे मोहल्ले में हमारी पीढ़ी का होकर भी समोसे बना रहा है और बड़ी लगन से बना रहा है, और उसका लोगों को बड़े प्यार से खिलाना देखकर मुझे लगा कि उसके पीछे भी एक कहानी का पात्र है.
हाँ ..ऐसा है मैं हर व्यक्ति के पीछे की कहानी ढूँढने की कोशिश करती हूँ , मुझे मज़ा आता है, मुझे जो ऊपर दिखता है या दिखाया जाता है उसमें बहुत कम रूचि रहती है, मुझे बर्फ के नीचे के पानी में ज्यादा रूचि रहती है.



२. मैं- आस-पास की घटनाओं और संगी-साथियों से जुडी बातों को लेकर क्या सोते-उठते, खाते-बनाते हर समय कथा-कहानी-उपन्यास का एक खाका मन में तैयार होता रहता है ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - नहीं .. ऐसा तो नहीं है कि हर समय मन में एक खाका तैयार होता रहे .. हाँ एक प्रस्थान बिंदु जब सामने आता है तो जरुर वो प्रस्थान बिंदु मेरे अन्दर रहता है, और जब उसपर चलना होता है, रास्ता चुनना होता है ...तब मैं जरुर उसपर चलती हूँ . हाँ ... जब कुछ लिख रहीं होतीं हूँ तब सोते-उठते हर समय वो मेरे दिमाग में रहता है.



३.मैं- शादी के पहले से लिख रहीं हैं, शादी के बाद ( जाहिर सी बात है ) कुछ समय के लिए लिखना छूटा होगा, एक लम्बे अंतराल के बाद फिर लेखन शुरू करने में किस तरह की दिक्कतें आई ..?
परिवार वालों खासतौर पर अंशु जी ने किस तरह आपका साथ दिया ..? या फिर जैसा कि आमतौर पर होता है " छोडो न यार ये सब करके अब ..क्या करोगी " ऐसा कहकर समझाने की कोशिश की ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - शादी से पहले भी लिखती थी लेकिन पहचान एक छोटे स्तर पर ही मिली थी, आज जो इतनी बड़ी पहचान है वो नहीं बनी थी, हाँ ... शादी के बाद लम्बे अंतराल तक सब छूट गया था लेकिन मैंने मेरे नवजात बच्चों पर ..उनकी मुस्कान पर या प्रतीक्षा पर कविताएँ लिखकर अपनी उँगलियों को मैंने हरकत में रखा .. मैं डायरियां भी लिखती थी ..लेकिन लिखने को मैंने तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक बच्चे स्कूल नहीं जाने लगे, जब वो स्कूल जाने लगे तब मैंने वेबसाइट शुरू की .. वेबसाइट शुरू की तो संपादकीय हमेशा मुझे ही लिखना होता था ... संपादकीय के साथ दोबारा से लिखना शुरू हुआ .


जहां तक अंशु की बात है तो हिंदी की पहली वेबसाइट बनाने में ही जिस व्यक्ति ने मेरा साथ दिया हो .. मुझे कप्यूटर में हिंदी की संभावनाओं की खिड़की ही जिस व्यक्ति ने खोली हो तो वो पीछे कैसे हट सकता है ... उन्होंने मुझसे कभी नहीं ये कहा कि "छोडो न यार" बल्कि वो हमेशा मेरे साथ रहे .



४. मैं- अब तक जितना भी मैंने आपको पढ़ा है उसके अनुसार कह सकतीं हूँ कि आप अपनी कहानियों में महिलापात्र को मर्यादित,संस्कारिक ढंग से पेश करती हैं , कुछ समकालीन लेखिकाएँ संस्कारों और परम्पराओं को तोड़ते हुए बहुत ज्यादा आधुनिक लिख रहीं हैं, पाश्चात्य संस्कृति को फ़ॉलो करती लिव-इन-रिलेशनशिप को कहानियों और फिल्मों में जायज ठहराना कहाँ तक उचित है , परिवार जैसी संस्थाएं वैसे ही टूट रहीं हैं, आने वाली पीढ़ी को ऐसी कहानियों और फिल्मों से क्या संदेश जा रहा है ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - जहां तक मेरी नायिकाओं की बात है .. मर्यादित .. मतलब उन्होंने मर्यादा ओढ़ी हुई नहीं है .. जैसे मेरे मन में एक स्त्री की छवि है या मैं एक सम्पूर्ण स्त्री को देख पाती हूँ ज्यादातर वो नायिकाएँ हैं .. दरअसल नैतिकता और मर्यादा , गरिमा .. इन तीनों चीज़ों को अलग तौर पर देखतीं हूँ .. मर्यादा मेरे लिए ओढ़ी हुई चीज़ नहीं है .. गरिमा मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है ..एक स्त्री की गरिमा क्या है ... नैतिकता के अनैतिक होकर भी एक गरिमा होती है .. संबंधों की अपने आप में एक गरिमा होती है ... तो मेरी नायिकाएँ ओढ़ी हुई मर्यादाएं , नैतिकता नहीं लिए हुए हैं ... लेकिन हाँ .... परिवार संस्था में उनका विश्वास है ... क्योकि मेरा विश्वास है .. मुझे लगता है कि हम इतनी सभ्यताओं और केव्स को पार करके परिवार की इकाई तक पहुंचे हैं तो इस परिवार के होने में कितनी सारी सुरक्षाएं जुडी हैं स्त्री और बच्चों की और स्वयं पुरुष की भी ... मैं इस परिवार की सुरक्षा में पुरुष को अलग नहीं कर सकती ....मैं पाती हूँ कि पुरुष भी घर में आकर परिवार की तरफ लौटकर स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस करता है .



लिव-इन-रिलेशनशिप के बारे में कहना चाहूंगी कि लिव-इन-रिलेशनशिप वापस जंगल में लौटता है , जहां पर एक बाघिन या एक चिड़िया अकेले बच्चे पालती है ... और उसकी मज़बूरी होती है अकेले बच्चे पालना ... आपने देखा होगा कि मादा को अकेले बच्चे पालने होतें हैं और या फिर बंदरों के झुण्ड को भी देखा जाए तो हमेशा उसमें मादाओं के साथ ज्यादती होती है ...उनके बच्चों के साथ ज्यादती होती है .. तो जब हम इतनी जगली सभ्यताएँ पाते थे ... आज हम समाज की अवधारणा तक पहुंचे हैं घर की अवधारणा तक पहुंचे हैं कि एक पुरुष एक स्त्री के लिए है .... तो वापस से हम अकेली क्यों हो जाएँ ...? और हम क्यों अकेले बच्चे पालें .. जब बच्चा पुरुष का और स्त्री दोनों का है ... तो स्त्री अकेले बच्चे क्यों पाले ... ? तो मेरे ख़याल से लिव-इन-रिलेशनशिप में स्त्री की ही हानि है ... स्त्री की गरिमा की हानि है ... कोई लाभ नहीं है .

और इस तरह की कहानियों और फिल्मों का आने वाली पीढ़ी के ऊपर प्रभाव पड़ने से पहले हमें ये देखना होगा कि आने वाली पीढ़ी कितना इन कहानियों को पढ़ती हैं ... और हर बच्चे के पास अपने एक पारिवारिक संस्कार होतें हैं ... अगर वो संस्कार अच्छे हैं तो कहानी और फिल्मों का बच्चों पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है .

मेरे घर में ही बहुत सारी बातों पर हम खुलकर बात करतें हैं ..जैसे मेरे घर में बार या शराब इस तरह खुलेआम होती है ... लेकिन मेरे बच्चों की इसमें कोई रूचि नहीं है .. उनको पता है कि मम्मी पापा सोशियली ड्रिंक करतें हैं .. कहने का मतलब ... सब कुछ संस्कारों पर डिपेंड करता है .

पर हाँ ... इसे एक कहानी की तरह प्रस्तुत करना ठीक है ... कहानी एक वस्तुनिष्ठ चीज़ है ... कि आपने एक ऐसा रख दिया कि ऐसा होता है ... कहानियों में समाधान और संदेश नहीं होते ... कहानियाँ वहाँ पर ख़त्म हो जातीं हैं ... जहां से संदेश शुरू होतें हैं ..जिन कहानियों में संदेश हों .. वो कहानियाँ कहानी नहीं होती .. कहानी को बस कहानी की तरह ही पढ़ा जाना चाहिए .



५. मैं - अक्सर शीर्ष पर बैठे लेखकों की उपलब्धियों के पीछे उनकी मेहनत,लगन और त्याग का जिक्र होता है ... वहीँ लेखिकाओं की उपलब्धियों के बारे में उन्ही शीर्ष पर बैठे लेखकों के कंधों की सीढ़ी का जिक्र किया जाता है ... आज आप स्वयं शीर्ष प़र बैठी लेखिकाओं में से हैं .. कैसा लगता है ऐसा सुनकर ... ?



मनीषा कुलश्रेष्ठ - नहीं ... मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ ..दरअसल जब आपको लोग बार-बार पढतें हैं .. और आपका एक सिग्नेचर स्टाईल होता है और आपकी एक वैचारिकी होती है ... और आप लोगों से बात करतें हैं ...मंच पर बोलतें हैं ... और वैचारिक लेखन करतें हैं .. जब आप वैचारिक लेखन कर रहें होतें हैं ... तो कहीं न कहीं आपने अन्दर की बुद्धिमत्ता को सत्यापित कर रहें होतें हैं ...इसलिए मैं जितनी मेरी लेखिका मित्र हैं .. हम आपस में बात करतें हैं कि स्त्री को वैचारिक लेखन जरुर करना चाहिए ... वैचारिक लेखन के बहाने हमारी बौद्धिकता सामने आती है ...तो फिर हमारे लेखन को कोई ख़ारिज नहीं कर सकता .. मेरे लेखन को किसी ने खारिज नहीं किया ... एक दो बार लोगों ने कोशिश की भी है तो सबको समझ आ गया कि ये झूठ है ... तो ऐसा होता नहीं है कि किसी के लेखन को ख़ारिज किया जाता हो .. अंततः सामने आता ही है ... कोई भी ऐसे ही शीर्ष पर नहीं पहुँच जाता है ... कहीं न कहीं कंसंत्रेंति की जरुरत है .. और जिन लेखिकाओं पर ये आरोप लगता है तो मेरी उनको ये सलाह है कि वो वैचारिक लेखन करें ... मंच पर बोले ... शाश्त्रार्थ करें ... बात करें लोगों से ... लोगों से मिलें ... तो एक सच्चाई सामने आती है .

६.मैं- अक्सर आपसे बात होती है तो आप परिवार,बच्चों और रसोई का जिक्र जरुर करतीं हैं , खाना अब भी स्वयं ही बनातीं हैं..? इतनी व्यस्तता के बाद परिवार के लिए समय कैसे निकाल पातीं हैं ..?



मनीषा कुलश्रेष्ठ - खाना मैं खुद ही बनाती हूँ, हाँ मेड से हेल्प जरुर लेतीं हूँ क्योकि अक्सर मुझे बाहर जाना होता है तो थोड़ी सी हेल्प तो चाहिए ही होती है, खाने में मैं बहुत सारी चीज़ें बनाती हूँ , मुझे रूटीन की सब्जी-रोटी बनाकर खाने का काम निपटाना पसंद नहीं है, मैं बहुत तरह की चीज़ें बनातीं हूँ , और बच्चों की और अंशु की रूचि का बहुत ख़याल रखतीं हूँ , और दाल-बाटी-चूरमा हमारे यहाँ हर संडे को बनता है, शनिवार और रविवार को मैं अंशु और बच्चों के लिए कुछ स्पेशल बनातीं हूँ , मुझे ऐसा करना बहुत अच्छा लगता है .



७.मैं- मुझे आज भी याद है अपने खुद को चैट पर एक "निशाचर लेखिका" कहा था , लिखने का इतना जूनून कहाँ से लातीं हैं.


मनीषा कुलुश्रेष्ठ - निशाचर लेखिका मैंने खुद को इसलिए कहा था कि दिन भर मेरे पास बहुत फोन्स कॉल आतें हैं , दिन भर बच्चों और परिवार में भी व्यस्त रहती हूँ और दिन का समय मैं किताबें पढ़कर बितातीं हूँ और मुझे लगता है कि मैं रात के सन्नाटे में ही लिख सकती हूँ , दूध वाले की घंटी या किसी भी तरह के डिस्टरबेंस में मैं नहीं लिख सकती , मुझे लिखने में एकाग्रता चाहिए वो मुझे रात में ही मिलता है इसलिए मैं रात में जागकर लिखती हूँ ... इसलिए मैंने खुद को "निशाचर लेखिका" कहा .. तो जूनून नहीं है इसमें .. जब मैं लिखती हूँ तो मुझे जूनून आता है तो फिर मैं रात भर जागती हूँ , फिर मेरी बॉडी की क्लॉक है वो बदल जाती है .. दिन में सोती हूँ .. रात में लिखती हूँ ... तो ये जूनून नहीं है .. मेरी मज़बूरी है .. रात में जागकर लिखना.

८.मैं- अभी हाल ही में आपके उपन्यास 'शिगाफ' को 'गीतांजलि लिटरेरी' एवार्ड मिला .. पुरस्कार लेते समय कैसा महसूस करतीं हैं ..?



मनीषा कुलश्रेष्ठ - तात्कालिक तौर पर बहुत अच्छा लगता है पर मैं उस फीलिंग को अपने कन्धों पर ढोकर नहीं चलती , मैं ये नहीं मानकर चलती कि शिगाफ़ अल्टीमेट है या मैंने कोई महान कृति रच दी .. मुझे अगर कभी ऐसा लगेगा तो खुद ही मुझे बहुत दुःख होगा और मैं अपने अन्तरंग साथी अंशु से कहूँगी कि मुझे इस घमंड से नीचे लेकर आओ ताकि मैं आगे बढ़ सकूँ , मैं अपने दोस्तों से भी कहतीं हूँ कि कृति लिख ली .. उसे एवार्ड मिल गए .. उस पर बात हो गयी .. उसे छोड़ दें .. फिर वो बाद में लोगों की हो जाती है .. इसलिए शायद अब मेरे कान शिगाफ़ सुनकर बहुत खुश नहीं होते .. मैं और आगे बढ़ना चाहती हूँ .. क्योकि मैं लेखन में सिर्फ उपलब्धियों के लिए ही नहीं आयीं हूँ .. आत्मसंतुष्टि के लिए भी आयीं हूँ .



९.मैं- कहानी और कथा लेखन के बारे में युवा लेखिकाओं खासतौर पर गृहणियों को कुछ टिप्स दीजिये , गृहिणियां परिवार और अपनी क्रियेटिविटी में कैसे सामंजस्य बैठाये रखें ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - मैं खुद एक गृहिणी हूँ .. मेरी माँ,बहन,ताई सभी वर्किंग और गृहिणियां भी थी .. सभी ने बच्चे भी पाले और अपने पति के घरेलू काम भी अपने कन्धों पर उठाया ...तो जब मैं शादी होकर आई तो मेरे और अंशु दोनों के ही सहमती से हमने ये तय किया कि मुझे नौकरी नहीं करनी है और मुझे ज़िन्दगी का पूरा मज़ा लेना चाहिए .. ऐसा नहीं है कि अंशु ने अकेले घर सँभालने के लिए कभी बाध्य किया .. ये हम दोनों की सहमती से था ... हम नहीं चाहते थे कि बच्चे स्कूल से घर वापस आयें तो उन्हें दरवाजे पर ताला लगा लगा मिले ..क्योकि मुझे हमेशा घर लौटने पर ताला लगा मिला ... मैंने अपने संस्मरण में भी लिखा है कि स्कूल से लौटने के बाद बैग पटककर मैं पूरे चित्तौड़ में नंगे पाँव टहलती थी ... तो बच्चे के साइड पर बहुत असर पड़ता है ... मैं चाहती तो नौकरी कर सकती थी ... दूरदर्शन और आकाशवाणी में मेरे लिए बहुत आप्शन था .. लेकिन बच्चों के लिए मेरा और अंशु दोनों का साझा निर्णय था कि मैं नौकरी नहीं करुँगी.



गृहिणियों के लिए यही कहूँगी कि उनके पास बहुत संवेदनाएं होती हैं ... वो अपने आस-पास के समाज को और उनके अँधेरे कोनो को देख पाती हैं .. वो अपनी नज़र खुली रखें और बहुत सारा समकालीन लेखन पढ़ें ... क्योकि मेरा ये मानना है कि बिना पढ़े तो आप महादेवी से आगे नहीं बढेंगी अगर आप लिखेंगी भी तो कॉलेज का पढ़ा छायावादी ही लिखेंगी .... मैंने देखा है कि बहुत सारी गृहणियां आज भी प्रीतम प्यारे या मैं तुम्हारी मीरा या तू मेरा सूरज .. ऐसा ही लिखती हैं .. तो इसके लिए सबसे पहले उन्हें समकालीन लेखन जरुर पढना चाहिए .

मैं भी शुरू में बहुत घर-गृहस्थी की कहानियाँ ही लिखती थी , मेरा एक सबसे पहला कहानी संग्रह है 'बौनी होती परछाई' .. वो मुझे इसलिए ही ज्यादा पसंद नहीं है क्योकि उसमें बहुत सारी कहानियाँ घरेलू लिखी हैं ... तो जब तक हम समकालीन लेखन नहीं पढेंगें तब तक हम समकालीन लेखन जान नहीं पायेंगें और हम उसकी नब्ज़ नहीं पकड़ पायेंगें .. और हम वही लिखतें रहेंगें जो हमारी कल्पनाओं में है और जो हमने साहित्य के नाम पर कॉलेज में पढ़ा है ... अपने स्टाईल में कुछ नया लिखे .. अपने लेखन में अपनी मौलिकता बनाये रखें .

मनीषा मेरे लिए कहतीं हैं ----जैसा कि शोभा मैंने तुममे ही देखा कि तुम्हारे लेखन में मौलिकता है .. मैं नहीं मानती कि तुमने 'फर्गुदिया' शुरू करने से पहले समकालीन लेखन में कुछ पढ़ा होगा ...? मैंने नहीं में गर्दन हिलाकर जवाब दिया .. उन्होंने कहा " मैंने भी नहीं पढ़ा था .. पर मेरा अपना एक मौलिक लेखन था ... तुम्हारे पास भी एक मौलिकता है .. " तो उस मौलिकता और समकालीन ट्रेंड दोनों को मिलाकर चलतें हैं तो एक अच्छी चीज़ सामने आती है .



१०.मैं- आजकल उपन्यास और आत्मकथाओं पर आधारित किताब प्रकाशित होने से पहले लेखकों की मिलीभगत से किताब पापुलर करने के लिए कंट्रोवर्सी खड़ी की जाती है , उसके बारे में क्या कहेंगी ...?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - मैं उसके विरोध में हूँ ... मैंने देखा है कि किताब अभी आई नहीं होती है और उसकी तीन-तीन समीक्षाएं आ जातीं हैं लोगों की .. तो ये घनेबाजी है ... और मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती ..पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता .. 'शिगाफ़' एक साल तक बक्से में बंद रहा ... लोगों ने पढ़ा भी नहीं .. ना मेरे प्रकाशक ने कुछ किया ... लेकिन धीरे- धीरे शब्द बाहर आये ... नावेल बाहर नहीं आया .. किताब बाहर नहीं आई .. शब्द अपने आप निकलकर बाहर आतें हैं .. तो जो ये किताबें छपने से पहले चर्चाएँ शुरू हो जातीं हैं ... उससे कोई फर्क नहीं पड़ता ... असल कसौटी जो है वो पाठक हैं .. और जब पाठक पढतें हैं तो अपने आप उस किताब का नीर-छीर हो जाता है .. फिर पता चल जाता है कि कौन कितने पानी में है .



११.मैं- लिखने की प्रेरणा कब और किससे मिली ....?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - लिखने की प्रेरणा दो-तीन जगह से मिली .. सबसे पहले तो माँ से ही प्रेरणा मिली .. शिक्षा विभाग राजस्थान की एक पत्रिका निकलती थी 'शिमिरा' .. उसमें मेरी माँ कविताएँ लिखती थी .. वो और भी बहुत कुछ लिखती थी .. मैं छिप-छिपकर उनकी डायरी पढ़ती थी ... उसके बाद बचपन के एक दोस्त से प्रेरणा मिली .. वो बहुत अच्छी कविताएँ लिखता था ... आज वो फिल्मों के लिए लिखता है ..उससे सीखा .
जब मैंने बी.एस सी किया तब भी मैं लिखती रही .. लेकिन जब मैंने हिंदी में एम्.ए करने का निर्णय लिया तब मैं साहित्य से सीधे-सीधे जुड़ गयी .. फिर मैंने दोबारा लिखना शुरू किया ... फिर राजस्थान साहित्य अकादिमी से एक प्रतियोगिता 'नवोदित प्रतिभा' का आयोजन किया गया उसमें मैंने छोटी सी उम्र में देवदासी प्रथा पर एक एकांकी नाटक लिखा .. उसको राजस्थान साहित्य अकादिमी एवार्ड मिला ... उसके बाद चार-पांच साल तक के लिए लेखन छूट गया .


उसके बाद कारगिल युद्ध चल रहा था .. उसके लिए मैंने राजेंद्र जी को एक चिट्ठी लिखी थी कि इधर कारगिल का युद्ध चल रहा है और उधर लोग वर्ल्ड कप को चीयर -अप कर रहें हैं .. कारगिल की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है .. मुफ्त में पेप्सी - कोला बांटे जा रहें हैं ... राजस्थानी दूध वालों ने एक ट्रक भरकर कारगिल भेजा था . .. तो 'किसकी रक्षा के लिए' ये फौजी जान गँवा रहें हैं ...
वो चिट्ठी बीच-बहस में छपी ... उस चिट्ठी को लेकर रोज सौ चिट्ठी मेरे पास आती थी ... तब मुझे लगा की लोगों के ऊपर मेरे शब्द असर करतें हैं ... तब मैंने हिंदी नेस्ट साईट शुरू की .. और लिखना शुरू किया .




१२.मैं- लेखन की दोनों विधाएँ कविता और कहानी में आपको महारथ हासिल है .. कविताएँ छिपाकर क्यों रखती हैं ..? भविष्य में कोई कविता-संग्रह निकलने का भी इरादा है ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - जब मैंने शुरू में जब कविताएँ लिखी तो मुझे लगा कि ये मेरी बिलकुल निजी अभिव्यक्ति है .. मेरी व्यक्तिकता से जुडी हुई .. मैंने अपनी कविताओं को छिपाकर तो नहीं रखा .. पर मैंने उनको छपवाया नहीं .. मेरा मानना है कि दो विधाओं का होकर रहने में कहीं कोई कमीं आती है ... जैसे उदय प्रकाश जी दोनों विधाओ में लिखतें हैं ... पर मैं सिर्फ उनकी कहानियाँ ही पढ़ती हूँ.

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प्रस्तुति
शोभा मिश्रा

मानसिकता बदलनी चाहिए - आलेख




मानसिकता बदलनी चाहिए
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16 दिसंबर की घटना के बाद पूरे देश में अपराधियों को सजा दिलाने की मांग की जा रही है, ये वाजिब भी है, अखबारों और न्यूज़ चैनल्स पर हर दूसरे दिन बलात्कार की घटनाएं देखने सुनने को मिल जातीं हैं, फेसबुक और अन्य दूसरी सोशल नेटवर्किंग साईट्स के माध्यम से इस पाशविक घटना का पुरजोर विरोध हो रहा है, इस घृणित कृत्य से सभी आहत है, जनता आक्रोशित है, वहीँ कुछ लोग इस घटना से डरे हुए भी हैं।


सबसे ज्यादा डर ग्रामीण इलाकों से उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली आई लड़कियों के परिवार वालों को है, वो दिल्ली में अकेली रहतीं हैं, कॉलेज या जॉब से देर रात घर लौटतीं हैं, वे सकुशल घर पहुँचे, इसकी जिम्मेदारी सरकार की है कुत्सित मानसिकता से त्रस्त युवक जिनके लिए महिलाएं जिनके लिए महिलाएं मात्र भोग का साधन है से वे अपनी बेटियों को कैसे बचाएं?


देश में एक प्रबल मांग उठ रही है कि बलात्कार के दोषी व्यक्तियों को मृत्यदंड जैसी कठोर सजा दी जाए, समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो चाहता है कि ऐसे पुरुषों को नपुंसक कर देना चाहिए ताकि वह अपने कृत्य की सजा ज़िदगी भर भुगते। तो क्या कुत्सित और मानसिक रूप से विक्षिप व्यक्ति से लडकियां/महिलाएं अपना बचाव कर सकती हैं ..?


एक पुरुष से एक महिला या लड़की अपना बचाव एक बार कर भी सकती है लेकिन दिल्ली जैसी वीभत्स घटना जिसे एक से ज्यादा लड़कों ने अंजाम दिया ... ऐसी स्थिति में लड़की या महिला चाहकर भी कुछ भी नहीं कर सकती.


अब प्रश्न ये है कि विकल्प क्या हो ----? क्या महिलाओं को घर से निकलना बंद कर देना चाहिए या घर से बाहर निकलकर किसी ऐसी परिस्थिति का सामना होने पर दृढतापूर्वक उसका सामना करना चाहिए।

मनोचिकित्सक डॉ नीलेश तिवारी बलात्कारी की मानसिक स्थिति के बारे में बताते हुए कहतें है कि बलात्कारी कहीं न कहीं किसी हीनभावना का शिकार रहता है, आर्थिक तंगी या किसी अन्य कारन से समाज द्वारा स्वयं को अपेक्षित समझता है.
बलात्कारी अपने आपको प्रूव करने के लिए भी रेप जैसे घृणित कृत्य करतें हैं.
रेप जैसे अपराध को रोकने के लिए समाज कि भूमिका की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए डॉ निलेश कहतें हैं की समाज को महिलाओं और लड़कियों को सम्मान की नज़र से देखना होगा.
महानगरों की फ़ास्ट लाइफ में लोग एक दूसरे से दूर हो रहें हैं , शहरों की अपेक्षा गाँव में रेप कम होतें हैं .


कुछ लोग संस्कारों की बात कर रहे हैं। ऐसे में सबसे पहला ख्याल परिवार का आता है, वास्तव में बेटी- बेटे के भेदभाव को ख़त्म करने की शुरुवात परिवार से ही हो सकती है, अगर गौर किया जाए तो लड़की के जन्म के समय परिवार के सदस्य बस ये सुझाव देते नज़र आयेंगें कि इसे भी बेटे की तरह खूब पढ़ाना ....अपने पैरों पर खड़ा करवाना ... जैसी नसीहतें लड़कियों के प्रति पुरुषवादी सोच का ही उदाहरण हैं।


बेटियोंको उच्च शिक्षा जरुर दी जाती है लेकिन साथ ही साथ घर-गृहस्थी के काम सीखने कि भी नसीहतें दी जातीं हैं, ये कहकर कि ये सब तुम्हें ही करना है जबकि बेटे को सिर्फ उसकी शिक्षा पर ध्यान देने और भविष्य संवारने की नसीहतें दी जातीं हैं।


बेटी थोड़ी बड़ी होती है तो स्कूल या कॉलेज से समय से लौटने कि हिदायतें कभी प्यार से कभी डांटकर उसे ही दी जाती है, लड़कियों के देर रात बाहर रहने के बुरे परिणाम और लड़कों के देर रात बाहर रहने के बुरे परिणाम में भिन्नता भी अनजाने में लड़कियों को उनकी स्त्री अस्मिता की रक्षा का आभास दिलाना ही है. रोजमर्रा के घरेलू काम भी बेटी और बेटे के लिए विभाजित होतें हैं, घर के पुरुषों के कपड़े लड़कियां धोती हैं लेकिन अक्सर परिवारों में लड़कों को ऐसा करने के लिए नहीं कहा जाता , वो कपडे धोते भी हैं तो सिर्फ अपने, अनजाने में ही सही कहीं न कहीं ये संस्कारों का ही परिणाम है कि वो घर की महिलाओं के वस्त्र धोने में शर्म महसूस करतें हैं, लड़कियों को बर्तन धोने, सफाई करने जैसे घरेलू काम करने के लिए कहा जाता है, जबकि लड़कों को बाहर के काम जैसे- सब्जी लाना, राशन लाना जैसे काम सौपें जातें हैं, हर समय बेटी को ये ध्यान दिलाया जाता है कि तुम्हें किसी और के घर जाना है जबकि बेटे को ये भी नहीं सिखाया जाता कि तुम्हारे घर भी तुम्हारी पत्नी के रूप में कोई लड़की आयेगी, उससे तुम्हें कैसा व्यवहार करना है।


कहने का तात्पर्य ये है कि बचपन से लेकर शादी होने तक परिवार में बेटी को अलग और बेटे को अलग संस्कार दिए जातें हैं, जो कि पुरुषप्रधान सोच को बढ़ावा देती है. अभिवावक का व्यवहार: बेटी हो या बेटा वो अपने माता-पिता के व्यवहार से ही सीखता है,
पितृसत्तात्मकसोच वाले अभिवावक अनजाने में अपने आचरण से बहुत कुछ अपने बच्चों को सीख देतें हैं, पिता द्वारा माँ पर हर समय अपना प्रभुत्व जताना, छोटी-छोटी बात पर अपमानित करने का असर बेटे पर गलत पड़ता है, आगे चलकर वो भी अपनी पत्नी के साथ
वैसा ही व्यवहार करता है, अगर पिता अपनी पत्नी को सम्मान देगा तो पुत्र भी आगे चलकर अपनी पत्नी और हर स्त्री को सम्मान कि नज़र से देखेगा।


स्कूलों,शिक्षण संस्थाओं की भूमिका: स्कूल टाइम से ही बच्चों में अन्य दूसरे पाठ्यक्रमों के साथ-साथ नैतिक शिक्षा भी देनी चाहिए, पहले के समय में मानसिकता इतनी प्रोफेशनल नहीं हुआ करती थी, शिक्षक पढाई के साथ-साथ अपने कुछ ऐसे अनुभव या कहानियाँ बच्चों से साझा करते थे जिससे बच्चों को एक नैतिक सीख मिलती थी। आज स्कूल टाइम से ही बच्चों को ये शिक्षा दी जाती है कि तुम्हें आगे चलकर क्या जॉब करना है, किस जॉब में कितनी कमाई है आदि आदि...


बच्चों को भविष्य के लिए एक अच्छा, सामाजिक इंसान बनाने की शुरुवात स्कूल से ही हो जानी चाहिए। पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा भी शामिल होना चाहिए, अपने स्टार पर भी शिक्षक-शिक्षिकाओंको बच्चों को यौन शिक्षा देने से हिचकना नहीं चाहिए, आजकल अगर प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मिडिया अश्लील और अभद्र चीज़ें दिखा सकता है तो बच्चों को शिक्षक यौन शिक्षा क्यों नहीं दे सकते ..? इस बात से अभिवावक और शिक्षक जानकार भी अनजान बन जातें हैं कि बच्चा छुप-छुपकर टेलिविज़न और अखबारों में सेक्स से सम्बंधित ख़बरें पढता सुनता है, वो कहीं और से सेक्स के बारे में गलत बातें जाने इससे पहले अभिवावक और शिक्षक उनसे इन विषयों पर खुलकर बात करके उनकी जिज्ञासा शांत कर दें।


संगत : घर-परिवार के बाद टीन ऐज जनरेशन पर संगत का बहुत असर पड़ता है, बदलाव के इस समय में खुली मानसिकता जरुरी है, लेकिन उसका दुरुपयोग होना ठीक नहीं है, देर रात पार्टियां करना, एक दूसरे के कॉम्पटीशन में नशीली दवाएं लेना, ड्रिंक करना , ये सब
भटकाव के कारण हैं।


बच्चों को इससे रोकने के लिए अलग-अलग क्रिएटीविटी में खुद को व्यस्त रखना चाहिए, अभिवावकों को ज्यादा से ज्यादा समय अपने बच्चों को देना चाहिए, उनकी हर बात को ध्यान से सुनकर सही और गलत का फर्क समझाना चाहिए, एक ख़ास उम्र में आने पर बच्चों से मित्रवत व्यवहार रखना चाहिए.


हादसा होने के बाद: अगर फिर भी रेप जैसी घटना किसी लड़की के साथ घट जाती है तो उसके लिए स्वयं या बेटी को शर्मिंदगी
का अहसास न कराए। बल्कि उसे अहसास कराएं कि जो कुछ उसके साथ हुआ उसमें उसका कोई दोष नहीं है। वह अकेली नहीं है पूरा परिवार उसके साथ है तथा वे सब मिलकर उस दुष्कर्मी को सजा दिलाने का प्रयत्न करेंगे। घर में सहज माहौल बनाये रखें, अब इसका क्या होगा.... इससे शादी कौन करेगा... हम समाज में क्या मुह दिखाएंगें जैसी हताशा वाली बातें न खुद करें न ही लड़की के सामने किसी और को करने दें।









लेखक





शोभा मिश्रा
संचालन

Sunday, May 12, 2013

' सृजनलोक ' में प्रकाशित कविता ' टिकुली '



मेरी श्वासें करती रही नित प्रिय का अभिनन्दन - अहा ! ज़िन्दगी

मेरी श्वासें करती रही नित प्रिय का अभिनन्दन                                                                                


एक उन्मुक्त चिड़िया सी चहकती नन्ही बच्ची जब अपनी गुड़िया से खेलती है तभी उसके प्रेम को समर्पित भाव को देखा जा सकता है ... एक पतली शख्त लकड़ी को आधार बना रुई और रिब्बन से उसका उपरी आवरण बनाते समय उसके मन लकड़ी वाले हिस्से को लेकर अपने भीतर धैर्य का निर्माण करती है ... रुई की कोमल पर्त से गुड़िया को आकार देते समय अपने मन की कोमलता का निर्माण कर रही होती है ... रिबन,लाली,बिंदी से सजाते समय अपने अंतर्मन को संस्कारों और रीतिरिवाजों से सजाती रहती है ... मिटटी के सुन्दर छोटे बर्तन और घरौंदें से खेलते -खेलते अपने सपनों का भविष्य सजा रही होती है ... बचपन के इस खेल में ही वो कभी कुछ प्राप्त करने का नहीं सोचती ... गुड्डे-गुड़िया की शादी में गुड्डे को सजे सजाये दुल्हे की भूमिका के बाद अपने सम्पूर्ण अस्तित्व में दुल्हे को अपने श्रृंगार के रूप में देखती है .. सृजनकर्ता और जननी के बीज वो स्वयं ही अपने भीतर तभी बो देती है जब वो स्वयं बिना गोड़ाई की हुई सुखी ठोस मिटटी का भाग होती है...

जेठ की चिलचिलाती धूप .. सावन की बारिश .. कातिक की सर्द रात सी सांसारिक परेशानियों रुपी प्रकृति के प्रकोप को सहती .... अपने आस-पास की उपज को बचाती अन्नपूर्णा का निर्माण करती बिजुका सी गुड़िया बनी पृथ्वी और जीवनदायिनी प्रकृति को बचाए रखने की अनिभूति बालावस्था में ही सहेज लेती है.

" ए री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोए
न मैं जानू आरती वंदन, न पूजा की रीत "

स्त्री के प्रेम और आस्था का उदाहरण है मीरा बाई का प्रेम ... स्त्री प्रेम और आस्था एक दूसरे के पूरक हैं ... बचपन में माँ के कह देने भर से ही उन्होंने कृष्ण को अपना पति मान लिया था .... वहीँ से शुरू हो गयी थी उनकी उपासना और साधना .. विवाह के बाद भी कृष्ण को ही अपना पति माना ... राजसी सुख छोड़कर वन-वन भटकीं अपने प्रेम के लिए ही ... प्रेम में डूबी राधा रानी के प्रेम की कोई थाह नहीं है ... भगवान् श्री कृष्ण राधा के बिना याद नहीं किये जाते ..... सबको मुक्ति मार्ग की राह ले जाने वाले लीलाधर राधा प्रेम में बंधे रहे ....पहला प्रेम ..पहली अनुभूति का उदाहरण है स्त्री प्रेम.

अविवाहित स्त्री के लिए प्रेम एक पवित्र भाव है .. अपने प्रिय से मिलने और उसके स्पर्श की अनुभूति से अलग अपने घर की खिड़की से चुपके से झाँककर अपने प्रिय को निहारना, प्रिय के संदेशों का इंतज़ार करना और संदेस पाकर सकुचाना, अपने प्रिय को न देख पाने और उसकी कोई खबर न मिलने पर व्याकुल होना ही स्त्री प्रेम है.

विवाह को लेकर स्त्री के मुख पर जो महावर और संध्या की नुरानी आभा छिटक जाती है वो सिर्फ प्रिय से मिलन के लिए ही नहीं .. वो सुखद अनिभूति होती है पूर्णता के अहसास की ... एक नयी शुरुवात की .. एक अपना चंबा बनाने की .
विवाह के बाद अपने सारे सपने स्थायी भाव रुपी मोली के मजबूत पवित्र धागे में आम के कोमल पत्ते और गेंदे के फूल से पिरोये वन्दनवार बनाकर अपने घर के दरवाजे पर लटका देती है .... उसका स्थायी प्रेम घर के दोनों तरफ स्वस्तिक चिन्ह , शुभ प्रतीक है.

भारतीय स्त्री में प्रेम के बदले कुछ पाने की उम्मीद रखने के बजाय अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार रहती है...प्रेम में कोई हिसाब-किताब नहीं होता...स्त्री की नज़र में प्रेम का नाम है एक हो जाना... सच्चे प्रेम में अपने साथी से कुछ पाने के बजाय उसे देने की इच्छा अधिक होती ह....ईश्वर ने स्त्री को जन्मजात रूप से भावुक बनाया है आज उसे घर-बाहर की िजम्मेदारियां साथ-साथ निभानी पडती हैं, इस वजह.से उसका व्यक्तित्व बाहर से सख्त प्रतीत होता है जो कि असल में उसका मूल रूप नहीं है...स्त्री प्यार के बदले ढेर सारा प्यार चाहती है ....ईश्वर ने स्त्री को कुछ इस तरह बनाया है कि उसके दिल को समझ पाना बहुत मुश्किल होता है.

स्त्री जब गृहिणी होती है .. दिन भर अथक परिश्रम करके परिवार के सदस्यों की हर जरुरत का ध्यान रखती है ... बदले में वह सिर्फ भाव की भूखी होती है .. एक प्यार भरा स्पर्श .. एक स्नेहिल मुस्कान उसकी हर थकान और पीड़ा हर लेतें हैं ...
स्त्री को सिर्फ भौतिक सुखों की चाह नहीं होती है ...विवाह के बाद कुछ साल तक वस्त्र और गहने स्त्री को आकर्षित जरुर करतें हैं ... लेकिन अंततः वो अपने पति के सामने अपने मन की हर तरह की सुख-दुःख भरी बातों की पोटली खोलकर रख देना चाहती है ... स्त्री के जीवन में विवाह के बाद पति ही सबसे करीबी सदस्य होता है ... अपने पति को वो एक सच्चे मित्र के रूप में देखना चाहती है ... उम्र बढ़ने के साथ माध्यम वर्गीय पुरुषों का प्रेम सिर्फ देह तक सीमित रह जाता है .... वहीँ स्त्री की घुटन का कारण बनती है उसकी अपने मन की दुविधाएं, असमंजसताएँ ... दिनभर की व्यस्ततम दिनचर्या में जब एक घरेलु स्त्री अपने लिए ही समय नहीं निकाल पाती है .. उम्र बढ़ने के साथ उसकी शारीरिक मानसिक पीड़ा उसके शरीर और दिमाग को अकेलापन और दुविधाओं भरे दीमक की तरह खोखला कर देती हैं ..
जिन्हें वो अपने अस्तित्व का मुख्य सूत्रधार समझती है .. उन्ही के विमुख हो जाने से वो निराश, हताश हो जाती है.
ऐसे हताशा और निराशा भरे उसके जीवन में जब कोई ऐसा पुरुष आता है ... जिसके सामने वो अपनी भावनाएं खुलकर व्यक्त कर सकती है ... तो उसके प्रति आकर्षित होना एक स्वाभाविक सी बात है ... स्पर्श रहित भावों से सींचता वो प्रेम उसके दिमाग और शरीर को दीमक द्वारा खोखले किये गए हिस्से के लिए दवा का काम करता है ...
स्त्री के विवाहेतर सम्बन्ध में जरुरी नहीं है की उसमें शारीरिक सम्बन्ध भी शामिल हो ....ऐसे सम्बन्ध में पुरुष के साथ अपने विचारों को खुलकर साझा करना ही उसे बहुत सुख दे जाता है .... पुरुष उसका पति, पिता, भाई, रिश्तेदार, नातेदार कुछ न हो पर वह केवल हमदर्द हो जहां स्त्री मुक्ति की सांस ले... अपने मन की परतों को खोलकर रख सके...

स्त्री प्रेम का बदलता स्वरुप
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सदैव बनी रहने वाली एक शाश्वत भावना है स्त्री प्रेम ...लेकिन समय के साथ स्त्री प्रेम में बदलाव आया है .. बीते समय में चारदीवारी में कैद रहने वाली स्त्री की जरूरतें भी सीमित थी ... वो अपनी सीमित जरूरतों के साथ खुश और संतुष्ट रहा करती थी ... आज बाहर निकलने वाली आधुनिक मध्यमवर्गीय स्त्री की जरूरतें बढ़ने के साथ ही उनकी ज़िन्दगी कशमश भरी हो गयी है ... कामकाजी स्त्री के अनुभवों का दायरा बहुत बढ़ गया है ... पहले स्त्री पति और परिवार को ही अपने जीने का सहारा मानती थी ... इस कारण बहुत सारी बातों को नज़रअंदाज करके हालात से समझौता कर लेती थी ... अपने आत्मसम्मान के प्रति भी जागरूक नहीं थी ... आज की स्त्री अपने आत्मसम्मान के प्रति बहुत जागरूक है .... बदलते परिवेश में थोडा धैर्य से स्त्री मन को समझने की जरुरत है ... आज स्त्री शिक्षित है ... अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी .... आज की स्त्री निर्भीक और जागरूक भी है ...लेकिन आधुनिक होते हुए भी अपने पारिवारिक संबंधों को लेकर बहुत संवेदनशील भी है .... अपने ढंग से संबंधों के बीच सामंजस्य स्थापित रखती है .... पुराने समय में लड़कियों के मन में प्रेम को लेकर दुविधा बनी रही थी ... प्रेम में होती थी लेकिन स्वीकार नहीं करती थीं .. अपराधी न होते हुए भी अपराधबोध से ग्रस्त रहती थी .. अपने प्रेम की बात परिवार के पुरुषवर्ग से छिपाकर रखती थी ... बहुत हिम्मत करती थी तो घर की महिलाओं के सामने अपनी बात हिचकते हुए रखती थीं ... आज लडकियां अपने प्रेम संबंधों को लेकर असमंजस की स्थिति में नहीं रहती ... परिवार के सदस्यों में और दोस्तों में खुलकर अपने प्रेम के बारे में चर्चा करती हैं .. अपने प्रेमी के साथ घूमने भी जाती हैं ...
पुराने समय के मुकाबले आज की स्त्री प्रेम के मामले में व्यवहारिक हो चुकी है .. यह एक तरह से स्वाभाविक भी है .. आज की स्त्री समर्पित प्रेम के साथ-साथ खुद से भी प्रेम करना सीख गयी है .. अपनी इक्षाओं और रुचियों के बारे में सोचती है .... युवा स्त्री हो या प्रौढ़ स्त्री अपने अन्दर छिपे गुणों को निखारकर अपना अस्तित्व निर्माण करना चाहती है .

सांस्कृतिक पहलु और स्त्री प्रेम
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नियतं कुरु कर्म त्व कर्म ज्यायो ह्मकर्मण: |
शरिरयात्रपी च ते न प्रसिद्द येदकर्मणः |
गीता के तीसरे अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म की व्याख्या कुछ इस तरह से की है कि कर्म एक जगह विशेष आसन पर बैठकर आँखें बंद करके हठ योग करके ईश्वर को याद करने की अपेक्षा सांसारिक कर्म करते-करते भक्ति कर्म करने को श्रेष्ठ बताया है .. कर्म के बिना शारीर को पोषित कर पाना असंभव है ... शारीर को कष्ट में रखकर योग संभव नहीं है .
मानव जीवन कर्म के बिना संभव नहीं है ... कर्म जरुरी है लेकिन मानव जीवन में कर्म कहीं न कहीं संघर्ष की तरह भी है .... कर्म क्षेत्र के संघर्ष में आस्था और धर्म, सांस्कृतिक रीति-रिवाज राहत की भूमिका निभाते हैं .... मानव जीवन कभी रुकने वाला संघर्ष पूर्ण कठिन राह की तरह है .... सांस्कृतिक कार्यक्रम , त्यौहार,व्रत उस कठिन राह में वृक्ष की छाया की तरह है ... जिसमें स्त्री कुछ देर बैठकर सुस्ता लेती है ... पूजा-पाठ प्रवाहित शीतल नदी है ... जो जीवन की जद्दोजहद भरी कंकरीली राह पर चलते-चलते सुख गए कंठ को तृप्त करती है ...
स्त्री की अपने जीवन से जुड़ी जिम्मेदारियाँ भी कुछ कम नहीं है ... कुछ सांसारिक और घरेलु जिम्मेदारियाँ निभाते-निभाते स्त्री का अपना अस्तित्व उसकी नज़रों कहीं खो जाता है ... तीज-त्योहार और धर्म के माध्यम से वो खुद को याद करती है .

"तरसत जियरा हमार नईहर में
अरी बाबा हठ कईले, गवन नाही देहलन
बीती गईले बरखा बहार "
पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाये जाने वाले तीज के त्यौहार में सावन में झूला झूलते हुए एक ब्याहता अपने प्रिय को याद करते हुए मन ही मन बाबा से शिकायत कर रही है.... जिसका गौना अभी नहीं हुआ है .. स्त्री प्रेम के सांस्कृतिक पहलु का खूबसूरत दृश्य है .
सावन में महिलाऐं एक साथ मिलकर कजरी लोकगीत गाते हुए तीज व्रत करती हैं .... अन्य मांगलिक अवसरों पर भी मधुर लोक गीतों का गायन करती हैं .

"कईसे खेले जयिबू सावन में कजरिया
बदरिया घेरी आईल ननदी
घाटा घेरले बा घनघोर, बिजली चमके चारु ओर
ननदी रिमझिम बरसला बदरिया, बदरिया घेरी ...
संगे साथ न सहेली, कईसे जईबू तू अकेली
बीचे गुंडा लोग रोकिहें डगरिया, बदरिया घेरी ..
कतिना गुनडन के मखईबू , कतिना के जेल भिजवईबू
कतिना पीसत होइहे जेल में चकरिया, बदरिया घेरी ..!"

इस भोजपुरी कजरी तीज में भाभी अपनी ननद से हंसी - ठिठोली करती हुई उसे बारिश में बाहर जाने से रोक रही है .
अलग - अलग प्रदेशों में विशेष आयोजनों पर गाये जाने वाले लोक गीत अधिकतर महिलाऐं ही गाती हैं ... पूर्वी उत्तर प्रदेश में बदलते मौसम का स्वागत आत्मीय भाव से स्त्रीयां लोक गीतों के माध्यम से करती हैं ... जैसे फागुन में फगुआ, चैत में चैता, और सावन में कजरी गीत गाकर करती हैं . छठ, तीज,जिउतिया, पीड़िया , चौथ आदि पर गाये जाने वाले पारंपरिक लोक गीतों में स्त्री प्रेम का अद्भुत रूप देखने को मिलता है ...


पति और परिवार के प्रति प्रेम प्रदर्शन करने का माध्यम है तीज-त्योहार. .. स्त्रियाँ को ये रीति- रिवाज निभाने में आत्मिक सुख मिलता है . .. त्योहार व्रत तन-मन की शुद्धि का जरिया भी होतें हैं .. हमारे ऋषि-मुनियों ने बहुत ही बुद्धिमानी से हमारे लिए धर्म के माध्यम से जीवन शैली का हिस्सा बनाया है
आपसी रिश्तों को जोड़ने का माध्यम है त्योहार और पर्व ...स्त्रियाँ त्योहार और रीति-रिवाजों के माध्यम से रिश्तों में मधुरता बनाये रखने का काम बखूबी कर रहीं हैं .... हमारी सांसकृतिक धरोहर को सहेजने का काम भारतीय स्त्रियाँ कर रहीं हैं .

(शोभा )

'अहा ! ज़िन्दगी ' में प्रकाशित आलेख











रानी बनी भिक्षुणी                                                                                                                      





एक निर्धन,एक रोगी और जीवन का कटु सत्य साक्षात् मृत्यु देखने के बाद सिद्धार्थ को जीवन से विरक्ति हो गयी, पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को निद्रा में छोड़ आत्मज्ञान के लिए गृह त्याग कर दिया, पत्नी और पुत्र से अगाध प्रेम होते हुए भी सिद्धार्थ ने उनका त्याग किया, मन में कई प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है , प्राणी मात्र से प्रेम करने की भावना रखने वाले सिद्धार्थ को घर त्यागते समय अपनी प्राण प्रिय पत्नी और सुकोमल नन्हें पुत्र राहुल से क्या स्नेह नहीं रहा होगा ..? लेकिन अगर दूसरे पक्ष की ओर ध्यान दें तो घर-गृहस्थी और राज-पाट में बंधे सिद्धार्थ का प्रेम एक सीमा में बंधकर रह जाता , सिद्धार्थ के आत्मज्ञान के पश्चात् पूरे भारत वर्ष और विश्व में उनके जिन अनमोल वचनों और उपदेश से जन -समूह को जो ज्ञान प्राप्त हुआ हुआ उससे समाज वंचित रह जाता , सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण की कहानी में यशोधरा का तप और त्याग है, प्रातः काल पति को घर में न पाकर निश्चित रूप से यशोधरा को जो अपार दुःख हुआ होगा उसकी केवल कल्पना की जा सकती है |


"सखि, वे मुझसे कहकर जाते
कह, तो क्या मुझको वे अपनी
पथ-बाधा ही पाते ?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?"


मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपनी कविता के माध्यम से यशोधरा की व्यथा को उजागर किया है , इसे व्यथा कहना उचित न होगा , ये तो उनकी अपने प्रिय से विरह वेदना है , उलाहना है , प्रतिरोध कहीं भी नहीं है , यशोधरा को मलाल ये है कि सिद्धार्थ अगर उन्हें अपनी अर्धांग्नी मानते तो उनसे छिप कर न जाते जाते , वो उनके अध्यात्म और आत्मज्ञान ग्रहण करने का स्वागत करतीं , उन्हें आदरपूर्वक विदा करतीं |


यशोधरा ने स्वयंबर में असंख्य तरुणों में से सिद्धार्थ को ही वर रूप में चुना था, पिता दंडपाणी जानते थे कि सिद्धार्थ को साधू -संतों की संगत प्रिय है , एकांत प्रिय है , उन्हेंयशोधरा का निर्णय स्वीकार नहीं था , दोनों का दांपत्य जीवन सुखी होगा होगा इस बात पर दंडपाणी को संदेह था लेकिन यशोधरा अपने निर्णय पर अटल रहीं |


सिद्धार्थ भी यशोधरा के लिए लक्ष्यभेद प्रतियोगिता में शामिल हुए और सफल भी हुए ,यशोधरा को अपनी जीवन संगिनी के रूप में पाकर आनंदित भी हुए , यशोधरा की मधुर आवाज़, उनकी धीमी हँसी, उनके गहनों की मीठी रुनझुन सिद्धार्थ को सुखद लगती थी |


राहुल के पैदा होने के बाद वो पुत्र मोह में भी थे, अपनी मासी से ये सुनकर बहुत खुश होते थे कि वो भी बचपन में राहुल के जैसे दिखते थे |


लेकिन एक समय ऐसा आया जब सिद्धार्थ ने विश्व -कल्याण का निर्णय लिया , सत्य को तलाशना चाहा , इसके लिए उन्होंने सांसारिक -सुख और भौतिक सुख-शांति का परित्याग करने का निर्णय लिया , उनकी आत्मा विश्व कल्याण के नूतन आनंद के लिए तड़प रही थी, वे विश्व के रहस्यमय संगीत से अपने हृदय को सराबोर कर देना चाहते थे, वे किसी सीमा में बंधकर नहीं रहना चाहते थे, जीवन में निरंतर गति के लिए उन्होंने आत्मदान कर दिया |


सिद्धार्थ को यशोधरा पर विश्वास था कि उनकी अनुपस्थिति में वो पुत्र राहुल और घर -गृहस्थी को संभाल लेगी, और हुआ भी ऐसा ही , यशोधरा को सिद्धार्थ के जाने का दुःख कम नहीं था , उन्होंने उनके विरह और याद में आंसू बहाते हुए पूरे बारह वर्ष गुजार दिए ,लेकिन पुत्र राहुल के पालन-पोषण में कोई कमीं नहीं रखी, उन्हें लोरी गाकर सुलाती, कभी -कभी अबोध राहुल जब माता यशोधरा से पिता के बारे में पूछते तो वो उन्हें दुलार कर समझाती कि वो सत्य की खोज में गएँ हैं , कभी - कभी जब यशोधरा के मन में सिद्धार्थ के लिए असह्य विरह वेदना उठती तो वे क्षुब्ध होकर राहुल के प्रश्नों के उत्तर कुछ इस तरह देती कि - " पुत्र ! जो अपने आपको छोटा समझतें हैं .. जिनके मन में अपनी सत्ता के अस्तित्व के बारे में लघुत्व और हीनत्व बस जाता है ..वे महान की तृष्णा में निकल पडतें हैं .." | पति के विरह में पत्नी की ये पीड़ा स्वाभाविक थी |


सिद्धार्थ के जाने के बाद यशोधरा ने राजमहल में रहकर भी उन्ही की तरह सन्यासी जीवन व्यतीत किया , यशोधरा के पीहर से बार- बार निमंत्रण आया लेकिन यशोधरा नहीं गयी और राजमहल में ही रहकर सिद्धार्थ की बाट जोहती रही |

पति को सन्मुख पाकर पत्नी की स्वाभाविक पीड़ा
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वटवृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुए और वे बोधिसत्व कहलाये , पूरी दुनिया में उनका नाम हुआ , बारह वर्ष उपरांत जब वे कपिलवस्तु लौटे तो उन्हें सामने देखकरयशोधरा के मन में प्रेम का जो सोता दबा हुआ था वो उलाहना और क्रोध बनकर फूट पड़ा ..


स्वागत, स्वागत, हे आर्यपुत्र !
वंदन तेरा! अभिनन्दन तेरा!!
कैसे करूँ मैं तेरी आरती?
रह गयी कहाँ पूजा की थाली?
पधारो ! पधारो ! हे भगवान् !
सबरी की कुटिया के श्रीराम.
मैंने त्याग दिया है वैभव सारा,
हुआ जब से ओझल राम हमारा.


वो रोती रहीं और शिकायतें करती रही, यशोधरा को सिद्धार्थ के घर त्यागने से ज्यादा इस बात का दुःख था कि उन्होंने एक पत्नी होने के नाते उनपर विश्वास नहीं किया और बिना बताये घर छोड़कर चले गए , सिद्धार्थ के सत्य कि खोज में वो बाधक कभी नहीं बनती , वो क्षत्राणी थी , युद्ध के लिए विदा करते समय टीका और तिलक करके भेज सकती थी तो सत्य की खोज के मार्ग में बाधक कैसे बन सकती थी , यशोधरा ने क्षोभ और क्रोध में बहुत सिद्धार्थ से बहुत सवाल किये किन्तु उनके सभी सवाल पर सिद्धार्थ चुप ही रहे, क्रोधित यशोद्धरा ने उनसे ये भी प्रश्न किया कि "जो ज्ञान उन्हें जंगल में जाकर मिला क्या वो यहाँ राजमहल में रहकर प्राप्त नहीं होता .."
सिद्धार्थ उनके प्रश्नों का क्या जवाब देते बस आँखें झुकाकर उनके सभी प्रश्न सुनते रहे, जब उन्होंने यशोधरा के सामने अपना भिक्षा पात्र बढाया तब यशोधरा ने पुत्र राहुल को उनके समक्ष कर दिया और स्वयं भी उनका अनुसरण करते हुए भिक्षुणी बन गयीं |


शोभा मिश्रा