मेरी श्वासें करती रही नित प्रिय का अभिनन्दन
एक उन्मुक्त चिड़िया सी चहकती नन्ही बच्ची जब अपनी गुड़िया से खेलती है तभी उसके प्रेम को समर्पित भाव को देखा जा सकता है ... एक पतली शख्त लकड़ी को आधार बना रुई और रिब्बन से उसका उपरी आवरण बनाते समय उसके मन लकड़ी वाले हिस्से को लेकर अपने भीतर धैर्य का निर्माण करती है ... रुई की कोमल पर्त से गुड़िया को आकार देते समय अपने मन की कोमलता का निर्माण कर रही होती है ... रिबन,लाली,बिंदी से सजाते समय अपने अंतर्मन को संस्कारों और रीतिरिवाजों से सजाती रहती है ... मिटटी के सुन्दर छोटे बर्तन और घरौंदें से खेलते -खेलते अपने सपनों का भविष्य सजा रही होती है ... बचपन के इस खेल में ही वो कभी कुछ प्राप्त करने का नहीं सोचती ... गुड्डे-गुड़िया की शादी में गुड्डे को सजे सजाये दुल्हे की भूमिका के बाद अपने सम्पूर्ण अस्तित्व में दुल्हे को अपने श्रृंगार के रूप में देखती है .. सृजनकर्ता और जननी के बीज वो स्वयं ही अपने भीतर तभी बो देती है जब वो स्वयं बिना गोड़ाई की हुई सुखी ठोस मिटटी का भाग होती है...
जेठ की चिलचिलाती धूप .. सावन की बारिश .. कातिक की सर्द रात सी सांसारिक परेशानियों रुपी प्रकृति के प्रकोप को सहती .... अपने आस-पास की उपज को बचाती अन्नपूर्णा का निर्माण करती बिजुका सी गुड़िया बनी पृथ्वी और जीवनदायिनी प्रकृति को बचाए रखने की अनिभूति बालावस्था में ही सहेज लेती है.
" ए री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोए
न मैं जानू आरती वंदन, न पूजा की रीत "
स्त्री के प्रेम और आस्था का उदाहरण है मीरा बाई का प्रेम ... स्त्री प्रेम और आस्था एक दूसरे के पूरक हैं ... बचपन में माँ के कह देने भर से ही उन्होंने कृष्ण को अपना पति मान लिया था .... वहीँ से शुरू हो गयी थी उनकी उपासना और साधना .. विवाह के बाद भी कृष्ण को ही अपना पति माना ... राजसी सुख छोड़कर वन-वन भटकीं अपने प्रेम के लिए ही ... प्रेम में डूबी राधा रानी के प्रेम की कोई थाह नहीं है ... भगवान् श्री कृष्ण राधा के बिना याद नहीं किये जाते ..... सबको मुक्ति मार्ग की राह ले जाने वाले लीलाधर राधा प्रेम में बंधे रहे ....पहला प्रेम ..पहली अनुभूति का उदाहरण है स्त्री प्रेम.
अविवाहित स्त्री के लिए प्रेम एक पवित्र भाव है .. अपने प्रिय से मिलने और उसके स्पर्श की अनुभूति से अलग अपने घर की खिड़की से चुपके से झाँककर अपने प्रिय को निहारना, प्रिय के संदेशों का इंतज़ार करना और संदेस पाकर सकुचाना, अपने प्रिय को न देख पाने और उसकी कोई खबर न मिलने पर व्याकुल होना ही स्त्री प्रेम है.
विवाह को लेकर स्त्री के मुख पर जो महावर और संध्या की नुरानी आभा छिटक जाती है वो सिर्फ प्रिय से मिलन के लिए ही नहीं .. वो सुखद अनिभूति होती है पूर्णता के अहसास की ... एक नयी शुरुवात की .. एक अपना चंबा बनाने की .
विवाह के बाद अपने सारे सपने स्थायी भाव रुपी मोली के मजबूत पवित्र धागे में आम के कोमल पत्ते और गेंदे के फूल से पिरोये वन्दनवार बनाकर अपने घर के दरवाजे पर लटका देती है .... उसका स्थायी प्रेम घर के दोनों तरफ स्वस्तिक चिन्ह , शुभ प्रतीक है.
भारतीय स्त्री में प्रेम के बदले कुछ पाने की उम्मीद रखने के बजाय अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार रहती है...प्रेम में कोई हिसाब-किताब नहीं होता...स्त्री की नज़र में प्रेम का नाम है एक हो जाना... सच्चे प्रेम में अपने साथी से कुछ पाने के बजाय उसे देने की इच्छा अधिक होती ह....ईश्वर ने स्त्री को जन्मजात रूप से भावुक बनाया है आज उसे घर-बाहर की िजम्मेदारियां साथ-साथ निभानी पडती हैं, इस वजह.से उसका व्यक्तित्व बाहर से सख्त प्रतीत होता है जो कि असल में उसका मूल रूप नहीं है...स्त्री प्यार के बदले ढेर सारा प्यार चाहती है ....ईश्वर ने स्त्री को कुछ इस तरह बनाया है कि उसके दिल को समझ पाना बहुत मुश्किल होता है.
स्त्री जब गृहिणी होती है .. दिन भर अथक परिश्रम करके परिवार के सदस्यों की हर जरुरत का ध्यान रखती है ... बदले में वह सिर्फ भाव की भूखी होती है .. एक प्यार भरा स्पर्श .. एक स्नेहिल मुस्कान उसकी हर थकान और पीड़ा हर लेतें हैं ...
स्त्री को सिर्फ भौतिक सुखों की चाह नहीं होती है ...विवाह के बाद कुछ साल तक वस्त्र और गहने स्त्री को आकर्षित जरुर करतें हैं ... लेकिन अंततः वो अपने पति के सामने अपने मन की हर तरह की सुख-दुःख भरी बातों की पोटली खोलकर रख देना चाहती है ... स्त्री के जीवन में विवाह के बाद पति ही सबसे करीबी सदस्य होता है ... अपने पति को वो एक सच्चे मित्र के रूप में देखना चाहती है ... उम्र बढ़ने के साथ माध्यम वर्गीय पुरुषों का प्रेम सिर्फ देह तक सीमित रह जाता है .... वहीँ स्त्री की घुटन का कारण बनती है उसकी अपने मन की दुविधाएं, असमंजसताएँ ... दिनभर की व्यस्ततम दिनचर्या में जब एक घरेलु स्त्री अपने लिए ही समय नहीं निकाल पाती है .. उम्र बढ़ने के साथ उसकी शारीरिक मानसिक पीड़ा उसके शरीर और दिमाग को अकेलापन और दुविधाओं भरे दीमक की तरह खोखला कर देती हैं ..
जिन्हें वो अपने अस्तित्व का मुख्य सूत्रधार समझती है .. उन्ही के विमुख हो जाने से वो निराश, हताश हो जाती है.
ऐसे हताशा और निराशा भरे उसके जीवन में जब कोई ऐसा पुरुष आता है ... जिसके सामने वो अपनी भावनाएं खुलकर व्यक्त कर सकती है ... तो उसके प्रति आकर्षित होना एक स्वाभाविक सी बात है ... स्पर्श रहित भावों से सींचता वो प्रेम उसके दिमाग और शरीर को दीमक द्वारा खोखले किये गए हिस्से के लिए दवा का काम करता है ...
स्त्री के विवाहेतर सम्बन्ध में जरुरी नहीं है की उसमें शारीरिक सम्बन्ध भी शामिल हो ....ऐसे सम्बन्ध में पुरुष के साथ अपने विचारों को खुलकर साझा करना ही उसे बहुत सुख दे जाता है .... पुरुष उसका पति, पिता, भाई, रिश्तेदार, नातेदार कुछ न हो पर वह केवल हमदर्द हो जहां स्त्री मुक्ति की सांस ले... अपने मन की परतों को खोलकर रख सके...
स्त्री प्रेम का बदलता स्वरुप
_______________________सदैव बनी रहने वाली एक शाश्वत भावना है स्त्री प्रेम ...लेकिन समय के साथ स्त्री प्रेम में बदलाव आया है .. बीते समय में चारदीवारी में कैद रहने वाली स्त्री की जरूरतें भी सीमित थी ... वो अपनी सीमित जरूरतों के साथ खुश और संतुष्ट रहा करती थी ... आज बाहर निकलने वाली आधुनिक मध्यमवर्गीय स्त्री की जरूरतें बढ़ने के साथ ही उनकी ज़िन्दगी कशमश भरी हो गयी है ... कामकाजी स्त्री के अनुभवों का दायरा बहुत बढ़ गया है ... पहले स्त्री पति और परिवार को ही अपने जीने का सहारा मानती थी ... इस कारण बहुत सारी बातों को नज़रअंदाज करके हालात से समझौता कर लेती थी ... अपने आत्मसम्मान के प्रति भी जागरूक नहीं थी ... आज की स्त्री अपने आत्मसम्मान के प्रति बहुत जागरूक है .... बदलते परिवेश में थोडा धैर्य से स्त्री मन को समझने की जरुरत है ... आज स्त्री शिक्षित है ... अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी .... आज की स्त्री निर्भीक और जागरूक भी है ...लेकिन आधुनिक होते हुए भी अपने पारिवारिक संबंधों को लेकर बहुत संवेदनशील भी है .... अपने ढंग से संबंधों के बीच सामंजस्य स्थापित रखती है .... पुराने समय में लड़कियों के मन में प्रेम को लेकर दुविधा बनी रही थी ... प्रेम में होती थी लेकिन स्वीकार नहीं करती थीं .. अपराधी न होते हुए भी अपराधबोध से ग्रस्त रहती थी .. अपने प्रेम की बात परिवार के पुरुषवर्ग से छिपाकर रखती थी ... बहुत हिम्मत करती थी तो घर की महिलाओं के सामने अपनी बात हिचकते हुए रखती थीं ... आज लडकियां अपने प्रेम संबंधों को लेकर असमंजस की स्थिति में नहीं रहती ... परिवार के सदस्यों में और दोस्तों में खुलकर अपने प्रेम के बारे में चर्चा करती हैं .. अपने प्रेमी के साथ घूमने भी जाती हैं ...
पुराने समय के मुकाबले आज की स्त्री प्रेम के मामले में व्यवहारिक हो चुकी है .. यह एक तरह से स्वाभाविक भी है .. आज की स्त्री समर्पित प्रेम के साथ-साथ खुद से भी प्रेम करना सीख गयी है .. अपनी इक्षाओं और रुचियों के बारे में सोचती है .... युवा स्त्री हो या प्रौढ़ स्त्री अपने अन्दर छिपे गुणों को निखारकर अपना अस्तित्व निर्माण करना चाहती है .
सांस्कृतिक पहलु और स्त्री प्रेम
___________________________ नियतं कुरु कर्म त्व कर्म ज्यायो ह्मकर्मण: |
शरिरयात्रपी च ते न प्रसिद्द येदकर्मणः |
गीता के तीसरे अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म की व्याख्या कुछ इस तरह से की है कि कर्म एक जगह विशेष आसन पर बैठकर आँखें बंद करके हठ योग करके ईश्वर को याद करने की अपेक्षा सांसारिक कर्म करते-करते भक्ति कर्म करने को श्रेष्ठ बताया है .. कर्म के बिना शारीर को पोषित कर पाना असंभव है ... शारीर को कष्ट में रखकर योग संभव नहीं है .
मानव जीवन कर्म के बिना संभव नहीं है ... कर्म जरुरी है लेकिन मानव जीवन में कर्म कहीं न कहीं संघर्ष की तरह भी है .... कर्म क्षेत्र के संघर्ष में आस्था और धर्म, सांस्कृतिक रीति-रिवाज राहत की भूमिका निभाते हैं .... मानव जीवन कभी रुकने वाला संघर्ष पूर्ण कठिन राह की तरह है .... सांस्कृतिक कार्यक्रम , त्यौहार,व्रत उस कठिन राह में वृक्ष की छाया की तरह है ... जिसमें स्त्री कुछ देर बैठकर सुस्ता लेती है ... पूजा-पाठ प्रवाहित शीतल नदी है ... जो जीवन की जद्दोजहद भरी कंकरीली राह पर चलते-चलते सुख गए कंठ को तृप्त करती है ...
स्त्री की अपने जीवन से जुड़ी जिम्मेदारियाँ भी कुछ कम नहीं है ... कुछ सांसारिक और घरेलु जिम्मेदारियाँ निभाते-निभाते स्त्री का अपना अस्तित्व उसकी नज़रों कहीं खो जाता है ... तीज-त्योहार और धर्म के माध्यम से वो खुद को याद करती है .
"तरसत जियरा हमार नईहर में
अरी बाबा हठ कईले, गवन नाही देहलन
बीती गईले बरखा बहार "
पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाये जाने वाले तीज के त्यौहार में सावन में झूला झूलते हुए एक ब्याहता अपने प्रिय को याद करते हुए मन ही मन बाबा से शिकायत कर रही है.... जिसका गौना अभी नहीं हुआ है .. स्त्री प्रेम के सांस्कृतिक पहलु का खूबसूरत दृश्य है .
सावन में महिलाऐं एक साथ मिलकर कजरी लोकगीत गाते हुए तीज व्रत करती हैं .... अन्य मांगलिक अवसरों पर भी मधुर लोक गीतों का गायन करती हैं .
"कईसे खेले जयिबू सावन में कजरिया
बदरिया घेरी आईल ननदी
घाटा घेरले बा घनघोर, बिजली चमके चारु ओर
ननदी रिमझिम बरसला बदरिया, बदरिया घेरी ...
संगे साथ न सहेली, कईसे जईबू तू अकेली
बीचे गुंडा लोग रोकिहें डगरिया, बदरिया घेरी ..
कतिना गुनडन के मखईबू , कतिना के जेल भिजवईबू
कतिना पीसत होइहे जेल में चकरिया, बदरिया घेरी ..!"
इस भोजपुरी कजरी तीज में भाभी अपनी ननद से हंसी - ठिठोली करती हुई उसे बारिश में बाहर जाने से रोक रही है .
अलग - अलग प्रदेशों में विशेष आयोजनों पर गाये जाने वाले लोक गीत अधिकतर महिलाऐं ही गाती हैं ... पूर्वी उत्तर प्रदेश में बदलते मौसम का स्वागत आत्मीय भाव से स्त्रीयां लोक गीतों के माध्यम से करती हैं ... जैसे फागुन में फगुआ, चैत में चैता, और सावन में कजरी गीत गाकर करती हैं . छठ, तीज,जिउतिया, पीड़िया , चौथ आदि पर गाये जाने वाले पारंपरिक लोक गीतों में स्त्री प्रेम का अद्भुत रूप देखने को मिलता है ...
पति और परिवार के प्रति प्रेम प्रदर्शन करने का माध्यम है तीज-त्योहार. .. स्त्रियाँ को ये रीति- रिवाज निभाने में आत्मिक सुख मिलता है . .. त्योहार व्रत तन-मन की शुद्धि का जरिया भी होतें हैं .. हमारे ऋषि-मुनियों ने बहुत ही बुद्धिमानी से हमारे लिए धर्म के माध्यम से जीवन शैली का हिस्सा बनाया है
आपसी रिश्तों को जोड़ने का माध्यम है त्योहार और पर्व ...स्त्रियाँ त्योहार और रीति-रिवाजों के माध्यम से रिश्तों में मधुरता बनाये रखने का काम बखूबी कर रहीं हैं .... हमारी सांसकृतिक धरोहर को सहेजने का काम भारतीय स्त्रियाँ कर रहीं हैं .
(शोभा )