Sunday, November 17, 2013

अशुभ कृत्य

आरी,बरछी,कुल्हाड़ी और कटती शाखों की चीखों से आज सुबह नींद खुली ...बिस्तर पर लेटे-लेटे खिड़की की तरफ निगाह गई .. सूखा पॉपुलर अपनी जगह पर था लेकिन आज कुछ सहमा हुआ था .. रोज सुबह बैठी चहकने वाली गौरैया, बुलबुल का जोड़ा भी नहीं था !
मैं भागकर बालकनी में गई ... कुछ लोग हरे-भरे पेड़ काटने में लगे हुए थे ... नीचे जाकर उन्हें रोका तो सारी पड़ोसन घर से बाहर आ गई .. पूछने पर कि क्यों पेड़ कटवा रही हैं आप लोग ? उनका कहना था कि सर्दी में खिड़कियों से धूप नहीं आती और पेड़ों के पत्तों से बहुत कूड़ा होता है ! मेहंदी और शहतूत का पेड़ पूरा क्यों कटवा दिया और केले में तो फल लगा था ? पूछने पर जवाब मिला कि मेहँदी के पेड़ पर भूत रहता है और गर्मियों में झुग्गी के बच्चे शहतूत तोड़ने बाउंड्री की दीवार फांदकर अन्दर आ जातें हैं !
मेरे लिए अजीब विचलित करने वाला दृश्य था ... सूखे पॉपुलर को काटने से मना किया तो सभी औरतें कहने लगीं ये सूखा पेड़ है .. सुबह-सुबह नज़र पड़ ही जाती है ... सूखा पेड़ देखना शुभ नहीं होता है .. मैंने कहा - "मैं तो रोज सुबह सबसे पहले इस सूखे पेड़ को ही देखती हूँ और इस पर इतनी प्यारी-प्यारी चिड़िया बैठती हैं . मेरे साथ तो कुछ भी अशुभ नहीं हुआ ?"
लेकिन मेज़ोरिटी जीतती है .. खूब पेड़ काटे गए .. मेरा सूखा पॉपुलर भी काटा गया .. काटने के बाद उसके टुकड़े -टुकड़े किये गए .. छोटी डंडियों के गट्ठर बाँधकर कुछ लोग ले गए ! सूखी लकड़ियों से चूल्हा जलते तो खूब देखा है लेकिन इस सूखे पेड़ से ना जाने क्यों बहुत लगाव हो गया था .. ये मेरी प्यारी चिड़ियों का बसेरा था ... इसी पर मैंने कितनी ही बार नीलकंठ देखा था .. !

खैर ....
आज कार्तिक पूर्णिमा के दिन ये अशुभ कृत्य करवाने के लिए दूसरे समुदायों के लोगों को बुलाया गया था ... पेड़ों के पूजनेे वाले लोगों के फरमान पर पेड़ काट दिए गए ... लेकिन मेरी नज़र में 'वो' पेड़ काटने वालों से ज्यादा दोषी हैं ..!
रात में खिड़की के बाहर कार्तिक पूर्णिमा के चाँद की छटा बिखरी हुई दिख रही है .. लेकिन इसी खिड़की से मेरा जो सूखा पॉपुलर रात में मुझे सोता नज़र आता था उस जगह का आसमान पूनम की चाँदनी में भीगा उदास है ....................

छठ- पूजा

हर बार की तरह इस बार भी छठ पर्व पर अपनी शादी के पहले के दिनों की याद आ रही है .. मम्मी छठ व्रत रखती थी .. छठ- पूजा की तैयारी में सूप,डलिया,और फलों की खरीददारी के साथ-साथ हम बच्चों को घाट पर पूजा के लिए जगह ढूँढने की जिम्मेदारी सौंप देती थी .. हम भाई-बहन या कुछ दोस्त मिलकर घाट पर अच्छा स्थान देखकर वहाँ मिट्टी का छोटा गोल चबूतरा बनाकर उसमें कभी गन्ना या कभी कोई लकड़ी गाड़ देते थे !
छठ-पूजा वाले दिनों में घाटों की रौनक देखते ही बनती थी .. नाक से लेकर पूरी चौड़ी भरी मांग और सोने के आभूषण से सजी सुहागिन महिलाएं नदी या नहर के पानी में कमर तक डूबी फलों और घर की बनी मिठाइयों से भरा सूप लेकर डूबते और उगते सूर्य को पूजती थी .. गन्ने और केले के पत्तों से बने मंडप में दिए और पूजन सामग्री से सजे घाटों पर अध्यात्मिक मेले जैसा माहौल होता था .. कुछ परिवारों के साथ बैंड- बाजा भी होता था ! कुछ लडकियाँ और बच्चे जिन्हें तैरना आता था वे नहर में तैरते हुए खूब छ्पकईयाँ खेलते .. शाम ढलते ही नहर/ नदि में प्रवाहित होता जल दियो की रौशनी अपने साथ बहाता हुआ -सा प्रतीत होता था ! एक साथ गोल घेरा बनाकर छठ गीत गाती महिलाएं अध्यात्म के रंग में डूबी नज़र आती ! सच .. इतने समर्पण और धैर्य से परिवार की सुख-समृद्धि के लिए े उपवास करती .. ईश्वर से प्रार्थना करती महिलाओं का ओजस रूप देखकर मेरा अबोध मन उनमें ईश्वरीय शक्ति देखता था !
साज-श्रृंगार को छोड़कर पूजा की सारी तैयारी मम्मी दूसरी महिलाओं की तरह ही करती थी लेकिन वो पूजा करती हुई उदास रहती थी .. छठ पूजा ही नहीं किसी भी त्यौहार या ख़ुशी के अवसर पर पापा के ना होने की वजह से उनका अकेलापन साफ़ नज़र आता था ! करीब दो साल हो गए .. मम्मी अब छठ व्रत नही रखती .. ! मुझे तो अब याद भी नहीं कि आखिरी बार घाट पर छठ मनते कब देखा था .. बाजार में छठ का सामान बिकते हुए देखती हूँ .. शारदा सिन्हा के छठ-गीत सुनती हूँ तो बीते दिन याद आ जातें हैं ! हाँ .. कहीं ना कहीं से छठ का प्रसाद हर साल मिल जाता है:)

Friday, November 1, 2013

'रिश्ते

'वक़्त' को तो गुज़र ही जाना होता है .. लेकिन 'रिश्ते' !!!
... और उससे जुड़ी यादें दिल से कब जाती हैं भला ? महत्वाकांक्षाएं इतनी कि हम लगातार भागते रहें उपलब्धियों के पीछे .. ? इस बात से बेखबर कि भागते हुए हम कितने ही रिश्ते अपने पैरों तले कुचलते जा रहे हैं ..
ऐसी दौड़ में शामिल होने के न्योते एक नहीं हज़ारों हैं... साफ़ ,सपाट,चिकनी राह पकड़कर अगर दौड़ने का तनिक भी हुनर है तो कोई भी उपलब्धियां हासिल कर ले .. लेकिन रिश्ते ?
इस भागदौड़ में रिश्ते तो कही पीछे छूट जातें हैं ... रिश्ते तो व्यवहार में ठहराव चाहतें हैं .. धैर्य चाहतें हैं ...
वो कहाँ हैं .... कभी सोचा है आपने ....? या फिर आप रिश्तों का महत्व ही नहीं समझते ...