Saturday, July 14, 2012

******* एक थीं भंडारिन *******


******* एक थीं भंडारिन *******

आज बिरझन बहुत सहमा हुआ था,उसके लिए बड़ी असमंजस की स्थिति खड़ी हो गयी थी, पिटहौरा गाँव के ज़मींदार महावीर प्रसाद राय ने उन्हें इस बार धमकी दे डाली की उनकी बेटी शकुंतला का रिश्ता  जल्द ही उसने रणवीर शाही  के बेटे से तय नहीं करवाया तो गाँव में उसका और उसके परिवार का जीना हराम कर दिया जाएगा |  
भूमिहारों, ठाकुरों, ब्राह्मणों के घर के रिश्ते तय करवाना बिरझन का काम है, देवघाट गाँव के लोग उसे बिचवानी कहकर संबोधित करतें हैं, ठाकुर रणवीर  शाही देवघाट के बहुत ही समृद्ध जमींदार हैं बिरझन भी इसी गाँव में रहता है , नज़दीक के गाँव पिटहौरा के ज़मींदार महावीर प्रसाद अपनी बेटी के विवाह को लेकर काफी चिंतित थे  क्योकि उनकी बेटी का रंग थोडा सांवला था , हलाकि बेटी शकुंतला की उम्र अभी ज्यादा नहीं थी लेकिन आज से सौ साल पहले गाँव के समृद्ध ज़मींदार और धनि लोग इस उम्र तक अपनी बेटियों को ब्याह देने में ही अपनी शान और इज्जत समझते थे , कई गाँवों से बहुत से रिश्ते आये लेकिन बेटी का रंग सांवला होने की वजह से हर तरफ से इनकार ही सुनने को मिला , विवाह भी अपनी हैसियत के बराबर वालों में ही करना था , ऐसे में किसी ने उन्हें देवघाट के ज़मींदार रणवीर शाही के बेटे चन्द्रकेश साही का नाम सुझाया , अपने बराबर की हैसियत रखने वाले रणवीर शाही के बेटे का रिश्ता महावीर प्रसाद को अपनी बेटी के लिए बहुत अच्छा लगा, इस बार वो किसी भी सूरत में ये रिश्ता हाथ से गंवाना नहीं चाहते थे, रिश्ते की बात आगे बढ़ने के लिए बिचौलिए का होना बहुत जरुरी होता है इसलिए उन्होंने देवघाट के बिचौलिए  बिरझन का पता करवाया और उसपर दवाब डाला की हर हाल में वो ये रिश्ता तय करवाए , पहले तो बिरझन ने इनकार किया, फिर उसे महावीर प्रसाद के लठैतों द्वारा धमकाया गया, अपने परिवार के जान की सलामती के लिए मजबूरन बिरझन ने विवाह की बात पक्की करवाने की सहमती दे दी और महावीर शाही की बेटी के रिश्ते की बात लेकर रणवीर शाही के घर गया, एक ही बार में रणवीर शाही को अपने बेटे के लिए महावीर प्रसाद की बेटी का रिश्ता पसंद आ गया, अब बारी थी बहु देखने की |
       आज से सौ साल पहले ( गाँव में कहीं कहीं आज भी ) गाँव में लड़के वालो द्वारा सीधे सीधे लड़की देखने की प्रथा नहीं थी , लड़के वालों का कोई करीबी जानकार या खुद बिचौलिया भिक्षुक या गडरिये का भेष बदलकर लड़की देख आते थे | महावीर प्रसाद की बेटी को देखने की जिम्मेदारी बिरझन को दी गयी, बिरझन जिसे सब कुछ पहले से ही पता था, फिर भी भीखारी का वेश धरकर वो लड़की देखने गया और वापस आकर उसने रणवीर शाही को ये ही कहा की लड़की बहुत सुन्दर और सुशील है, रणवीर शाही के बेटे चंद्रकेत शाही ने भी बिरझन से अकेले में ये प्रश्न किया की लड़की कैसी है , उनको भी बिरझन ने यही जवाब दिया की लड़की बहुत सुन्दर और सर्वगुण संपन्न है |
          सब कुछ तय हो गया , विवाह की तैयारियाँ जोर शोर से होने लगीं , दो ज़मींदार रिश्ते में बंध रहे थे, विवाह की तैयारी में दोनों परिवार अपनी शान-शौकत दिखने की होड़ में लग गए , दोनों के गाँव में विवाह की खबर फ़ैल गयी |
चन्द्रकेश शाही के सामने एक सुन्दर, सुघड़ लड़की का चेहरा उभर आया , उनके बचपन  के दोस्त रबिन्द्र राय का अभी हाल ही में ब्याह हुआ था , अक्सर रबिंदर उससे अपनी दुल्हिन की सुन्दरता की बात करता था, चन्द्रकेश की माँ रबिंदर की दुल्हिन देखकर आयीं थीं तो चन्द्रकेश से उन्होंने दुल्हिन के  रूप का बखान कुछ इस तरह किया था .....  
" ए बाबू ! दुल्हिन के रंग ता ईसन बा जैसे दूधे में चुटकी भर सेनुर छीट दिहल गईल हो, मोट-मोट आँख , पातर ओठ , आ बाल कमर तक " , हम अपने जीवन में एतना सुन्दर दुल्हिन पहिली बार देखले बानी "  
ये सोचकर चन्द्रकेश शाही बहुत खुश थे की अब उनकी दुल्हिन गाँव की सबसे सुन्दर बहुरिया होगी, परिवार और दोस्तों से अलग अब चन्द्रकेश शाही हर समय एकांत ढूँढने लगे , रात को छत पर अकेले सोते और अपनी भावी पत्नी की कल्पना में खोये रहते , दिन में बिरझन को तलाशते रहते और मिलने पर किसी न किसी बहाने से शकुन्तला की बात करते |
     नाबालिक भावी वधु  भी बहुत खुश थे , बेटी शकुंतला तो अपने पिता की ख़ुशी से खुश थी क्योकि अपने आपको स्वयं भी वो अपने पिता की बहुत बड़ी जिम्मेदारी समझती थी, वो खुश थी की उसके पिता अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेंगें |
       वो दिन भी आ गया जब विवाह होना था, गाजे-बाजे से सजे भव्य बारातियों और दुल्हे के साथ रणवीर शाही बारात लेकर महावीर प्रसाद के घर गए, विवाह की रस्में शुरू हुईं , द्वारचार के बाद दुल्हे को घर के आँगन में बने मंडप में ले जाया गया, कन्यादान और विवाह की दूसरी रस्मों के बाद सिंदूरदान की रस्म अदायगी करते समय दुल्हे चन्द्रकेश शाही ने दुल्हन शकुंतला का पहले हाथ और फिर हलकी सी झलक उसके चेहरे की भी देख ली , चन्द्रकेश शाही स्तब्ध रह गए उनसे न मंडप में बैठते बन रहा था न वहाँ से उठते, लेकिन मन ही मन वो कुछ संकल्प ले बैठे थे , विवाह संपन्न होने के बाद बिना दुल्हन के ही रणवीर शाही और बाराती गाँव देवघाट आ गए , दुल्हन को विदा कराकर इसलिए नहीं लाये क्योकि अभी गौने की रस्म बाकी थी जो की विवाह के तीन वर्ष बाद होनी तय हुई थी |
     घर वापस आकर चन्द्रकेश शाही ने जब अपने पिता को ये बात बताई की शकुंतला का रंग सांवला है तो रणवीर शाही के साथ साथ घर के सभी सदस्यों की त्योरियां चढ़ गयीं , सभी बिरझन को कोसने लगे , बिरझन का तो रणवीर सिंह  के लठैतों  ने बुरा हाल किया, लेकिन अब वो करते भी क्या , विवाह तो हो चुका था , अब शकुंतला उनके घर की बहु थी |
इधर जिद्दी चन्द्रकेश शाही ने घर के सभी सदस्यों को अपना फैसला सुना दिया की शादी तो उन्होंने कर ली है लेकिन गौना करवाने वो नहीं जायेंगें और किसी भी कीमत पर वो शकुंतला को अपनी पत्नी नहीं मानेंगें, घर के सभी सदस्यों ने उन्हें बहुत समझाया की अब वो जैसी भी है तुम्हारी पत्नी है लेकिन उन्होंने एक की भी नहीं सुनी, बाद में रणवीर सिंह ने अपने बेटे को यही कहकर शांत किया की "गौने को अभी बहुत साल है .. देखा जाएगा .. तुम अभी से दिल छोटा मत करो "रणवीर सिंह ने सोचा की कुछ दिन में वो अपने बेटे को समझा लेंगें समय बीतता गया, विवाह को दो साल हो गए थे , अपने गौने के दिन करीब आता  देख शकुंतला बहुत खुश थी , अक्सर उसकी  सखियाँ उसके दुल्हे की बात लेकर उसे छेड़ा करतीं |
   एक रात चन्द्रकेश शाही की तबियत बहुत ज्यादा बिगड़ गयी, उनके पेट में बहुत जोर का दर्द उठा , पूरी रात उनको कुछ घरेलु और आयुर्वेदिक दवाइयां दी जाती रहीं, उनको अस्पताल ले जाने के लिए सभी को भोर होने का इंतज़ार था लेकिन भोर होने तक चन्द्रकेश शाही जीवित नहीं रहे ..उनकी अकस्मात् मृत्यु हो गयी, अकस्मात् आई इस विपदा से पूरा घर स्तब्ध था |
        चन्द्रकेश शाही की मृत्यु की खबर महावीर प्रसाद के घर पहुंचाई गयी, सभी के लिए ये बहुत विकत की घडी थी , शकुंतला तो न रो सकी और न ही अपनी व्यथा किसी से कह सकीएक तरह से अब वो बिन ब्याही विधवा थी |

     शकुंतला का संघर्ष
चन्द्रकेश शाही तो पहले ही गौने के लिए इनकार कर चुके थे, रणवीर सिंह ने भी अब शकुंतला के गौने के बारे में सोचना बंद कर दिया था , और एक लम्बी चुप्पी साध कर बैठ गए थे |
उधर महावीर प्रसाद के घर में इस बात को लेकर विचार- विमर्श होने लगा की शकुंतला का गौना कराकर उसे ससुराल भेजा जाए या नहीं, घर की स्त्रियाँ शकुंतला का गौना करवाने के पक्ष में नहीं थीं, लेकिन पुरुषों का ये कहना था की अगर गौना नहीं करवाया गया तो सारी ज़िन्दगी उसे घर में कैसे बिठाये रखेंगें , गाँव के लोग क्या कहेंगें .. उनके गाँव और आस-पास के गाँव में घर बिठाये बेटी की वजह से उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे में कमिं आ जायेगी |
    एक दिन महावीर प्रसाद और रणवीर शाही ने मिलकर ये निर्णय ले ही लिया की शकुंतला का गौना होगा, अपनों द्वारा अपने भाग्य और भविष्य का फैसला शकुंतला छिप-छिपकर सुनती,देखती रही .. इस फैसले में  किसी ने भी उसकी राय लेना उचित नहीं समझा |
      रणवीर शाही कुछ लोगों को साथ लेकर पिटहौरा गाँव गए और बहुत ही सादे ढंग से शकुंतला का गौना कराकर अपने घर ले आये | पति की मृत्यु के बाद एक कलश से गठबंधन कर शकुंतला का गौना करवाया गया , वो लाल जोड़े में विदा नहीं हुई, एक साधारण सी हलके रंग की साड़ी पहनाकर कलश से गाँठ बांधकर उसे उसके अपनों ने इस तरह घर की चौखट के बाहर धकेल दिया जैसे घर की सफाई के बाद घर की गन्दगी से भरे भारी बोरे को बाहर घसीटकर फेंका जाता है|
शकुंतला की माँ मुह में साड़ी का पल्लू ठूंसकर अपनी हिचकियाँ रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थी, बिटिया शकुंतला की  कलशे से गाँठ बांधते हुए उसकी भाभी और सखियाँ भी अपनी सिसकियाँ दबाने की भरसक कोशिश कर रही थी | पत्थर जैसी बुत बनी शकुंतला को मटमैले रंग के किनारे वाली सूती साड़ी पहनाई जा रही थी| सुनी मांग , आँखें लगातार शुन्य में कहीं ताकते हुए काले स्याह घेरे से घिरी आँखें मानों किसी से लगातार पूछ रही हो की ये कैसी विदाई है ..? ना दूल्हा ,ना डोली , ना कंहार, ना लाल जोड़ा ..| कहाँ जा रही है वो विदा होकर ...? किसके भरोसे अपना जीवन यापन करेगी ..?
     आखिरकार जब उसे चौखट की देहलीज लंघवाया जाने लगा तब उसके सब्र का बाँध टूट पडा, पीछे मुड़कर अपनी माँ को देखकर को दहाड़े मारकर रोने लगी, माँ राजलक्ष्मी का कलेजा भी फट पड़ा, जिन हिचकियों को वो रोकने की कोशिश कर रही थी वो एक दर्द भरी चीत्कार में बदल चुकी थी | भाभी , सखियाँ और गाँव की औरतें सभी एक साथ हृदयविदारक रुंदन करने लगीं , रोटी बिलखती शकुंतला को उसके भाई और पिता संभालकर  ले गए और जीप में बैठाकर उसे विदा किया|
 वो रोती बिलखती अपने ससुराल आ गयी, घर की दूसरी औरतों को उसके साथ पूरी सहानुभूति थी लेकिन उन सभी की नज़रों में वो अपशगुनी थी, रसोईघर के पास भंडारघर में शकुंतला का बिस्तर लगा दिया गया और खाने के लिए सूखी रोटी और बिना छौंकी दाल दी गयी |
सामने रखी खाने की थाली को देखती , अपने भाग्य पर आंसू बहाती , बिना पति के ये कैसा विवाह है ..? किसके भरोसे वो इस घर में रहेगी ..? कुंवारी , ब्याही या विधवा .. क्या समझे अपने आपको ..? खुद से यही सवाल करती रही और पता नहीं कब शकुंतला को नींद आ गयी |
     करीब हफ्ते भर बाद घर की बड़ी बूढी औरतों द्वारा शकुंतला को भंडारघर और रसोई के बारे में समझाया गया , शकुंतला ने रसोईघर संभाल लिया , अब तो शकुंतला का सारा दिन रसोईघर में परिवार के पंद्रह बीस लोगों का खाना बनाने में बीतने लगा , रात को भंडारघर के कच्ची मिटटी के फर्श पर चटाई बिछाकर वो सो जातीं, घर में सभी उन्हें भंडारिन कहकर संबोधित करने लगे, धीरे- धीरे करीबी रिश्तेदार उसके बाद गाँव के सभी लोग उन्हें भंडारिन नाम से ही जानने लगे , उनका वास्तविक नाम कोई नहीं जनता था |
     समय बीतता गया .. मायके से बोझ समझकर निकाली गयी भंडारिन का ससुराल में आसरा भी बोझ संझ्कर ही मिला, घर उनकी स्थिति किसी नौकर से कम नहीं थी रसोई सँभालने में उनका पूरा दिन निकल जाता था, उनके बाद घर में दो तीन और भी बाहें ब्याह कर लायी गयीं ..उन्हें रसोई का दर्शन तक नहीं करवाया गया, नयी बहुत की रसोई छुवाई रस्म  के बाद उन  बहुओं ने कभी  भी रसोई का मुँह नहीं देखा, बिना किसी शिकायत के भंडारिन अपना फ़र्ज़ निभातीं रहीं |
   घर की बड़ी बहु का दर्ज़ा और इज्जत तो कभी उन्हें मिली ही नहीं | देवरानियों के बच्चे बड़े हो चुके थे, वो भंडारिन के साथ खेलते थे, मातृत्व सुख क्या होता है .. ये तो भंडारिन जानतीं नहीं थी लेकिन देवरानियों के बच्चों पर अपना सारी ममता लुटा देती थीं, कई बार खेल -खेल में बच्चे भंडारिन का बाल पुरुषों की तरह काट देते , वो कुछ नहीं कहतीं .. बच्चों को खुश देखकर वो भी बहुत खुश होतीं थीं |
    बुजुर्ग सास लीलावती की बीमारी की अवस्था में भंडारिन ने उनकी बहुत सेवा की, वो बिस्तर पर ही मल-मूत्र  त्याग करने लगीं थीं , उनकी साफ़- सफाई भंडारिन ही करतीं थीं |
 अपनी  शारीरिक क्षमता से बढ़कर अपने कर्म से उन्होंने घर की बड़ी बहु होने का फ़र्ज़ बहुत ही ईमानदारी से निभाया... लेकिन रणवीर शाही और उनके परिवार के सदस्यों ने उन्हें एक नौकर से ज्यादा कुछ नहीं समझा |
     जब भंडारिन की उम्र ढलने लगी और वो रसोई सँभालने में असमर्थ हो गयीं तब अनमने मन से उनका इलाज करवाया जाने लगा और दबी जुबान से घर में ये बातें होने लगीं की ये मर जातीं तो ही ठीक था |
  जब  एक हादसे में घर की छोटी बहु की मृत्यु हो गयी तो रोते - रोते घर की दूसरी बहुओं ने भंडारिन के सामने ही ये बात कह दी की " ये बुढ़िया अभी जिंदा है , भगवान को उठाना ही था तो इन्हें उठा लेते " .. ये सब सुनकर उस रात भंडारिन खूब रोई थीं |
   पिच्चानबे वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी , उनकी मृत्यु पर शायद ही किसी ने आंसू बहाए हों , अंत्येष्टि में भी कुछ लोग ही शामिल हुए .. सभी ने यही कहा की चलो इन्हें मुक्ति मिली .......!!!
     ईश्वर मनुष्य को पता नहीं कितने हजार कीड़े -मकोड़ों की योनियों के बाद मनुष्य योनी में जन्म देता है , भंडारिन का जन्म दो प्रतिष्ठित ज़मींदारों के झूठे मान -सम्मान और सामाजिक मर्याओं की भेंट चढ़ गया ...................................... !!!!

शोभा मिश्रा,  11/6/12