सिंदूरी तारों भरा प्रणय का सिंहोरा
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सिंदूरी साँझ जाते -जाते
तुम्हारी यादों से लिपटी नूरानी आभा बन, मुझसे लिपटी रहती है
सारी रात निहारती हूँ तारों को
हर तारें में तुम्हारी छवि
चाँदी से चमकते तारे मुझसे लिपट
साँझ की आभा में रंग जातें हैं
भोर होने से पहले
साँझ और तारों के रंग में लिपटी 'मैं',
'तुम्हें' विदा करने से पहले ,
अंजुरी भर तुम्हें अपने पास रख लेतीं हूँ
सिरहाने के नीचे छिपा
एक हलकी झपकी लेती हूँ
उषा की पहली किरण से पहले
चिड़िया मुझे जगाती है
'भोर' लोक-लाज- मर्यादाओं का उजाला साथ लाती है
सिरहाने के नीचे से अंजुरी में तुम्हें उठाकर,
'गठबंधन' के सिन्होरे में छिपा देती हूँ
'गठबंधन ' तो एक रीत थी
प्रणय का अनुबंध जो तुमसे है
साँझ और रात के तारों भरी कहानी बनकर
दिन के उजाले में मेरे मुख पर सिंदूरी आभा बिखेरतें हैं ..........
रफ
- शोभा मिश्रा
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