Tuesday, December 6, 2011

"नियति" का चक्र



कभी सिहरती
कभी महकती
कभी तपती

कभी भीगती

स्वतः यूँही घूमती हुई
आनंदित हूँ

विचलित नहीं हूँ
जानती हूँ
नीयत नहीं ये तुम्हारी
नियति के चक्र में तुम बंधे हो
और तुम्हारे चक्र में "मैं " बंधी हूँ .....

*** शोभा ***

संस्कार



मैं तुमसे बार बार रूठती
बेवजह जिद करती
मेरी छोटी छोटी गलतियों पर
तुम हमेशा मुझसे नाराज़ हो जाती
जहाँ जाओगी ऐसे ही करोगी ..?
कभी प्यार से मेरी चोटी बनाते हुए
कभी खाना खिलाते हुए
कभी मेरा सर अपनी गोद में रखकर
थपकी देकर सुलाते हुए
तुम मुझमें बूँद बूँद करके
संस्कारों का सागर भरती रही
और एक दिन
मुझे गुड़ियों की तरह सजाकर
उस दुनिया में भेज दिया
जहाँ भेजने की बात
तुम अक्सर करती थी
तुम्हारे दिए संस्कारों के सागर की
एक एक बूँद से मैंने
उस दुनिया को भिगों दिया
तुम्हारी दुनिया से दूर होकर भी
तुमसे जुडी हूँ
किसी से सुना है
तुम भी मेरी ही तरह
यूँ ही रूठ जाया करती हो
बेवजह जिद करती हो
जिन संस्कारों की बूंदों से
तुमने मुझमें एक सागर भर दिया था
उसकी कुछ बूंदों से
तुम्हें भी भिगोना चाहती हूँ
इंतजार कर रही हूँ
कोई तो कहे
जहाँ से आई हो
वहाँ कोई तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है .......

शोभा