Tuesday, August 16, 2011

प्रिय ! ऐसा तुम क्यों कहती हो ?

प्रिय ! ऐसा तुम क्यों कहती हो ?

by Shobha Mishra on Tuesday, August 9, 2011 at 4:11pm
मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?

जननी हो
बहन हो
अर्धांगिनी हो
बेटी हो तुम
सच में
ममता का तुम सागर हो

मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?

तुम ही नहीं
मैं भी माँ के आँचल से दूर हुआ
माँ की थपकी
वो प्यार भरी लोरी
सुनी थी कब ?
यादों में बस रह गयी वो

मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?

आँसू बहाकर अपनी पीड़ा
मुझसे तुम बाँट लेती हो
मैं अपनी पीड़ा जब्त कर
आँसू अपने स्वयं पीकर
मुस्कुराता रहता हूँ
ह्रदय की पीड़ा तुम समझो

मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?

पुरुष ही नहीं
पिता भी हूँ
भाई भी हूँ
जीवन साथी
एक प्यारा दोस्त भी हूँ
न समझो खुद को बंधन में
प्यार से मुझे ये मान तो दो

मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो?

चलो एक वादा करें
हम एक दुसरे पर ममता बरसाएंगे
संग  खेलकर  बचपन  जियेंगे
दुःख-सुख  बाँटकर दोस्त  बनेगें
सदा एक दुसरे का साथ देंगें
मुश्किलें चाहे जितनी भी हो

मैं पुरुष
बस पुरुष ही रहा
पत्थर दिल हूँ मैं
प्रिय !
ऐसा तुम क्यों कहती हो ?

शोभा

फरगुदिया

फरगुदिया

by Shobha Mishra on Sunday, August 7, 2011 at 8:51am
आज भी याद है वो दिन , जब मामा जी का पत्र पढ़कर मेरी माँ ने मेरी बड़ी दीदी को आवाज़ लगायी ! वो कुछ घबरायी और डरी हुई भी थी ! मैं भी माँ की आवाज़ सुनकर भाग कर उनके पास गयी  ! दीदी भी भाग कर माँ के पास आई और प्रश्न भरी नजरों से माँ की तरह देखा , माँ ने मामा जी का पत्र उनकी तरफ बढ़ाते हुए उनसे जो कहा वो सुनकर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी ! उन्होंने कहा "फरगुदिया अब नहीं रही" !!!!  उसके बाद माँ और दीदी में क्या बातें हुई वो उनके पास खड़ी होने पर भी मैं सुन नहीं सकी ! ये खबर सुनकर माँ और दीदी को दुःख से ज्यादा हैरानी हो रही थी ! वो फरगुदिया की मृत्यु के बारें में कुछ दबी जुबान से बात कर रहीं थी , जो मैं समझ न सकी और न ही समझ सकने की स्थिति में थी ! मैं रो नहीं रही थी , लेकिन मेरी  पीड़ा मैं ही समझ सकती थी ! जब ये घटना घटी , तब मेरी उम्र लगभग १४ वर्ष थी और मेरी हम उम्र थी फरगुदिया ! फरगुदिया से जुडी यादें मेरे आँखों के सामने चलचित्र की तरह दौड़ गयीं ...

     हम हर साल गर्मीं की छुट्टियों में मामा जी के घर गाँव जाया करते थे ! बाग़- बगीचे , खेत -खलिहान , चिड़ियों की चहचहाहट के साथ सुबह का सूरज ... प्राकृतिक छटाओं से भरपूर है हमारे मामाजी का गाँव ! जब भी हम गाँव जाते ... गाँव के बाहर से ही लोग हमें , खासतौर  पर औरतें और बच्चे हमें ऐसे घूरते जैसे हम  दूसरे लोक के प्राणी हों ! कुछ तो हमारे  साथ-साथ चलकर मामा जी के घर तक भी आ जाते .. और भीड़ लगाकर हमें आश्चर्यचकित नजरों से देखते रहते ! मुझे उन सबका हमारी तरफ इस तरह देखना बहुत ही अजीब लगता था , मैंने नानीजी से इसका जिक्र भी किया की ये हमें इस तरह क्यों देखतें हैं ? नानी जी ने मुस्कुराते हुए मुझे पुचकार कर कहा  की ये तुम्हारे खिलौनें देखने आतें हैं .....

लेकिन उस भीड़ में मुझे मेरी ही हमउम्र की लड़की के चेहरे ने आकर्षित किया ,हम दोनों की उम्र उस समय लगभग ८ वर्ष रही होगी !  वो भीड़ में छिपी मुझे देख रही थी , मेरी निगाह जब उस पर पड़ती , तो वो दूसरे लोगों के पीछे छिप जाती थी ! दोपहर तक सभी जा चुके थे और वो लड़की भी ! हम सब ने भी दोपहर के भोजन के बाद कुछ देर आराम करके रात भर के सफ़र की थकान मिटाई !
    शाम को फिर वही लड़की एक महिला के साथ घर आयी ! महिला मामाजी के घर साफ़ -सफाई का काम करती थी और रसोई के काम में मामीजी की  मदद भी करती थी ! उस लड़की का नाम फरगुदिया था  ! वो एक साधारण नयन- नक्श वाली मासूम लड़की थी ! वो बहुत कम बोलती थी लेकिन उसकी आँखें बहुत कुछ कहती थी , और शायद मैं उसकी आँखें पढ़ भी सकती थी ! मेरी गुड़िया और दूसरे खिलौने उसे बहुत अच्छे लगते थे लेकिन वो अपनी ये इक्छा किसी से या मुझसे जाहिर नहीं करती थी !  उससे बातचीत की पहल मैंने ही की ! धीरे धीरे हम दोनों आपस में बहुत घुल-मिल गए और एक साथ खेलने भी लगे ! कभी आम के बगीचे में हम लुकाछिपी का खेल खेलते और कभी घर की छत के किसी कोने में बैठकर अपनी गुड़िया और बर्तन से खेलते ! ऐसे ही १० दिन कैसे बीत गए ... पता ही नहीं चला ! अब वापस हमें कानपुर आना था ! माँ से पूछकर मैंने उसे अपनी क्लिप्स , रुमाल और अपनी एक ड्रेस भी दी ! ये सब पाकर वो बहुत खुश थी लेकिन उसे मेरे जाने का दुःख भी था ! " अगली बार जब आउंगी तो तुम्हारे लिए बहुत अच्छे अच्छे खिलौने लेकर आउंगी " उसे ये दिलासा देकर माँ के साथ मैं वापस कानपुर लौट आयी ! हँसती मुस्कुराती फरगुदिया ने मुझे विदा किया था ... मुझे आज भी याद है ...
       करीब छः वर्षों में सात आठ बार गाँव जाने पर मेरी मुलाकात फरगुदिया से हुई ! गाँव जाने पर हफ्ते ,दस दिन कैसे गुजर जाते ... पता ही नहीं चलता ...
अब हम दोनों बड़ी भी हो चुकी थी हम दोनों में चंचलता अब भी थी लेकिन फरगुदिया वक़्त से पहले ही कुछ ज्यादा ही परिपक्व हो गयी थी ! अक्सर वो अपने आप में खोयी खोयी सी रहती थी ! कुछ पूछने पर बस मुस्कुरा भर देती थी ...कहती कुछ भी नहीं थी !
   उसके जीवन में जो भी कमियाँ थी ...उन्हें पूरा करने के बारे में मैं बहुत कुछ सोचती थी ! जब भी मैं कानपुर में होती थी तो मामाजी का  पत्र आने पर उसमे फरगुदिया का जिक्र ढूंढती थी , लेकिन कभी भी उसका जिक्र नहीं पाती थी !
   लेकिन पहली और आखिरी बार मामाजी के पत्र में उसके दुनिया में न होने के जिक्र ने मुझे झकझोर के रख दिया ! उसकी मृत्यु का कारण जानने की जिज्ञासा मेरे मन में बहुत थी ! माँ और दीदी से जब भी उसकी मृत्यु के कारण के बारे में प्रश्न करती तो उनसे कभी भी मुझे संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता था ! कुछ महीने बाद जब फिर से गाँव जाना हुआ तो सबकी बातों से ये जान सकी की वो ( फरगुदिया ) गर्भवती थी और उसकी अनपढ़ माँ ने उसका गर्भपात  कराने के लिए , दाई के कहने पर उसे पता नहीं कौन सी दवाई दी जिसे खाने के बाद उसकी दर्दनाक मौत हो गयी !
    गाँव के बाहर एक पुराना पीपल का पेड़ है ! गाँव वालों का कहना  है की उस पेड़ पर फरगुदिया की आत्मा है ! रात तो क्या ...दिन में भी लोग इस पेड़ के पास से गुजरने में डरतें हैं !
  वो सहमी , मासूम जो जीते जी अपनी रक्षा न कर सकी ....उसकी मृत्यु के बाद लोग उससे डरतें हैं ! आज भी जब गाँव जाती हूँ तो सबसे छुपकर उस पेड़ से लिपट कर उसकी खिलखिलाहट और उसे महसूस करती हूँ ................

शोभा