Tuesday, December 6, 2016

मन्नू भंडारी जी पर संस्मरण- शोभा मिश्रा

( साहित्यिक पत्रिका "पाखी" में प्रकाशित संस्मरण )


"हिंदुस्तान के परिवार औरत के कंधों पर टिके हें हैं !" – मन्नू भंडारी
---------------------------------------------------------------------------------------

आदरणीय मन्नू जी से मुझे मिलवाने का सारा श्रेय आदरणीय सुधा (अरोड़ा) दीदी को जाता है !
एक बार सुधा दीदी का फ़ोन आया तो मैं ग्लूकोमा के दर्द की वजह से परेशान थी,आवाज़ सुनकर ही उन्होंने मेरी परेशानी का अंदाज़ा लगा लिया ! दर्द की वजह ग्लूकोमा है ये सुनकर उन्होंने मुझे मन्नू जी से बात करने की सलाह दी और उनका मोबाइल नंबर भी दिया ! मैं संकोच कर रही थी ! मैंने सुधा दीदी से भी कहा कि- " मैं भला कैसे मन्नू जी से बात कर सकती हूँ, वह इतनी वरिष्ठ लेखिका हैं, मुझसे बात करेंगी भला ?"
सुधा दीदी ने एक स्नेह भरी फटकार लगाते हुए कहा - "अरे क्यों नहीं बात करेंगी ? तुम जल्दी से उन्हें फ़ोन करो और उन्हें अपनी बीमारी के बारे में बताओ !"
पहली बार बहुत झिझकते -डरते हुए मैंने मन्नू जी को फ़ोन किया ! उधर से 'हेलो'' सुनकर मैं उत्साह से भर उठी, अपनी प्रिय लेखिका की आवाज़ सुन रही थी, थोड़ी हिचकिचाहट थोड़े संकोच के साथ उन्हें प्रणाम करके मैंने अपना परिचय दिया !
"अच्छा हाँ, सुधा ने तुम्हारे बारे में बताया था ! तुम्हें भी ग्लूकोमा है ?"
ये पहले शब्द थे उनके !.. और उसके बाद उन्होंने अपनी आँखों की बीमारी के बारे में बताया ! ग्लूकोमा होने पर कैसे उन्होंने पहले दिल्ली इलाज करवाया उसके बाद चेन्नई में उनके भाई ने शंकर नेत्रालय में उनका इलाज करवाया ! लगभग आधे घंटे की वो हमारी पहली बातचीत सिर्फ हम दोनों की बीमारी पर ही आधारित थी ! उन्होंने मुझे शंकर नेत्रालय का एड्रेस भी दिया !
मैं बहुत नर्वस थी, उनकी हर बात का जवाब संक्षेप में या ‘जी’ कहकर दे रही थी !
उसके बाद तो उनसे फ़ोन पर कई बार बात हुई ! एक बार मैंने उनसे मिलने की इक्षा जाहिर की,उन्होंने दूसरे दिन ही घर आने के लिए कहा !
अपनी प्रिय व सम्मानित लेखिका से वो पहली मुलाकात आज भी याद है ! करीने से पहनी हुई साड़ी, माथे पर कुमकुम का गोल टीका, चेहरे पर सहज मुस्कराहट के साथ साक्षात् उन्हें देखना किसी सपने जैसा था ! सहजता और सादगी की प्रतिमूर्ति मन्नू जी ने समाज को जो लेखकीय योगदान दिया है, साहित्यजगत में जो उनका स्थान है उस ऊँचाई का आभास तक न होने दिया उन्होंने ! बातचीत की शुरुआत में एक आम घरेलू महिला की तरह घर-गृहस्थी की बातें करतीं रहीं लेकिन बाद में उन्होंने हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों की बुरी स्थिति पर खूब चर्चा की ! अपने परिवार में अपनी माँ और नानी-दादी से लेकर आस-पड़ोस की महिलाओं की दयनीय स्थिति पर उन्होंने खूब बात की ! कहानी लेखन के कई बिन्दुओं पर बात हुई ! विश्वास नहीं हो रहा था कि महाभोज, आपका बंटी और यही सच है जैसी कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाली वरिष्ठ लेखिका मेरे सामने हैं .. मैं उनसे बात कर रही हूँ .. उन्हें स्पर्श कर सकती हूँ ..! सहज, सरल व्यक्तित्व की धनि मन्नू जी का घर भी उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है ! किसी भी तरह के उपरी दिखावे से अलग बेहद कलात्मक ढंग से सजे बैठक में हमने लगभग दो घंटे साथ बिताये ! अनमोल में थे वे पल !
"हिंदुस्तान के परिवार औरत के कंधों पर टिके हें हैं !" पहली मुलाकात में कही स्त्रियों के धैर्य को परिभाषित करती उनकी ये पंक्तियाँ आज भी याद हैं !
दूसरी बार उनसे मिलना हुआ सुधा दीदी के दिल्ली आने पर !
मेरे लिए वो दिन बहुत यादगार है जब मैंने उनसे "दूसरी परंपरा" में अपनी पहली प्रकाशित कहानी “नीला आसमान” पढने के लिए कहा !.. और एक दिन उनका फ़ोन आया तो फ़ोन पर ही उन्होंने मुझे मेरी रचनात्मक प्रक्रिया कि अनूठी पहल और साहित्यिक सरोकार के लिए बहुत स्नेह - मान दिया और बधाई दी ! दरअसल मेरे कहने पर उन्होंने पत्रिका का वो अंक पढ़ा जिसमें फरागुदिया का डायरी-अंश प्रकाशित हुआ था ! मेरे माध्यम से डायरी लिख रही बच्चियों को भी फ़ोन पर उन्होंने खूब स्नेह दिया ! अभावग्रस्त, मुख्यधारा से कटी हुई झुग्गी-बस्तियों की लड़कियों को कैसे छोटी-छोटी कार्यशाला के माध्यम से लिखने के लिए उन्हें और ज्यादा प्रेरित किया जाए, माझा जाए, ये भी समझाया ! सच .. उस दिन एक सम्मानित वरिष्ठ लेखिका से अपने काम की तारीफ सुनकर मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा ! उसके बाद तो उनका स्नेह भरा सानिध्य और मार्गदर्शन लगातार मिल रहा है !
ये जानती हुए भी कि वे साहित्यिक आयोजनों से दूर रहतीं हैं मैंने कई बार उनसे फरगुदिया मंच की गरिमा बढ़ाने का आग्रह किया लेकिन हर बार वे हाथ जोड़कर विनम्रता से मेरा आग्रह ठुकरा देतीं हैं !
राजेंद्र यादव जी उनके संबंधों के बिखराव की वजह कई लेखक मित्रों से और उनके उपन्यास “एक कहानी यह भी” के माध्यम से जान चुकी थी ! .. लेकिन राजेंद्र जी से इतने वैचारिक मतभेद और वैवाहिक संबंधों में बिखराव के बाद भी जब भी मिलने पर मैं उनसे राजेंद्र जी का जिक्र करती तो वे उनके बारे में बहुत ही आदर – सम्मान और प्रेम से उनके बारे में बातें करतीं ! जबकि उनके लिए इतने सम्मान और प्रेम से बातें करते हुए भी उनके प्रति एक गहरी पीड़ा... एक असंतुष्टि का भाव उनके चेहरे पर मैं पढ़ रही थी !
लिखने बैठी हूँ तो मन्नू जी की बहुत सारी बातें लिखने का मन हो रहा है लेकिन सबकुछ लिखना संभव नहीं है !
उनकी स्त्री-प्रधान संवेदनशील कहानियाँ हमारे भारतीय समाज की मध्यमवर्गीय परिवारों की स्त्रियों के संघर्ष की कहानी है जो मौन रहकर चारदीवारी के भीतर घुटती - सिसकती रहती है ! उनका लेखन ऐसी घुटती-सिसकती स्त्रियों के लिए वो खिड़की है, झरोखा है जिससे वे अपने हिस्से का आसमान देख सकतीं हैं ... वो प्रकाश है जिसके माध्यम से वे अपनी स्वतंत्रता की राह अपना सकतीं हैं !
मन्नू जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है ! लिखना-पढ़ना एक लेखक के जीवन का अभिन्न अंग होता है ! ख़राब स्वास्थ्य की वजह से अब लेखन नहीं कर पा रहीं हैं ! बातों – बातों में एक उपन्यास ( जिसकी रूपरेखा तैयार कर चुकीं हैं) और कुछ अधूरी कहानियाँ पूरी करने की अभिलाषा व्यक्त करतीं हैं ! ईश्वर से यहीं प्रार्थना है कि वे स्वस्थ रहें और अपना लेखन जारी रखें !


-----
शोभा मिश्रा

मेरा आधा- अधूरा गाँव -- शोभा मिश्र


तुम्हारी उम्र का एक मेजपोश - शोभा मिश्र

तुम्हारी उम्र का एक मेजपोश
 ------------------------------
------



मैंने सहेजकर दिया


वो उजले धागे वाला मेजपोश

जिसमें बुनी थी , सुलझाई थी

गर्भ में तुम्हारी अनुभूति की पहेलियाँ

माँ पालथी मार

ठेहुन में लपेट

ममता की गोद बना

सुलझा रही थी

उजले धागों की लच्छियाँ

और मुझे सुना रही थी

मईया यशोदा की वात्सल्य कहानियाँ

वो सांध्य-बेला

मुझे आज भी याद है

मैं चौखट पर बैठी

बुन रही थी क्रोशिये से

मेजपोश की फूल-पत्तियाँ

अपनी अनामिका में लपेट

अपने भीतर तुम्हारे होने की अनुभूति के साथ

बुनती जाती तुम्हारी मनमोहक आकृतियाँ

मैंने बुना था तुम्हारा प्रथम संकेत

तुम्हारा करवटें लेना मेरे भीतर

बुनी थी वो सुखद गुदगुदियां

मैंने बुनी थी तुम्हारी प्रतीक्षा की घड़ियाँ

बुनते-बुनते प्रसव-पीड़ा की पहली कड़ी

मैं मुस्करा रही थी

तुम्हें प्रत्यक्ष देखने की व्याकुलता

बुनती जा रही थी

एक दिन तुम्हारे आगमन की

सुखद ,साक्षात् घड़ी सामने थी

मैं मेजपोश की बुनावट से

कुछ समय के लिए दूर थी

और

प्रकृति बुन रही थी मुझमें धैर्य

स्त्री देह से जीवन देने की

असह, सुखद वेदना

वो वेदना थी

इन्द्र के नृत्य-कक्ष में

बजने वाले मृदंग जैसे मधुर स्वर की

अप्सराओं के घुंघरुओं की रुनझुनी सी

अचानक !!

उजले पुष्पों की बारिश सी हुई

वेदना की सारी झंकारें थम गयीं

तुम्हारे वीणा के तारों से उद्दृत स्वर मैंने सुने

तुम साक्षात् मेरे सन्मुख थी

तुम्हें देख

मैं वसंत सी पियराई धरा हो गयी थी

वो अधूरा मेजपोश फिर बुनने लगी थी

कभी तुम्हें अंकवार में भरने की अनुभूति के साथ ...

कभी तुम्हारी तृष्णा तृप्त करती

स्वयं के यशोदा मईया होने की अनुभूति के साथ ....

कभी तुम्हारी पलकों पर निंदिया रानी बिठाने

चन्द-मामा वाली लोरी सुनाने की अनुभूति के साथ ....

कभी तुम्हारे नन्हें कदम साधने की अनुभूति के साथ ..

कभी तुम्हारी चोटियाँ बनाती ...

माँ-पापा के उच्चारण सीखाती..

अपनी अनामिका में उजला धागा लपेट

बुनती जा रही थी तुम्हारे भविष्य की स्मृतियाँ

जब तक तुमने जीवन के चार वसंत बुने

मैंने बुन लिया तुम्हारी उम्र का एक मेजपोश

तुम्हारे साथ -साथ

मेज पर सजे मेजपोश ने

पूरे कर लिए सोलह वसंत

तुम्हारे सोलह वसंत की

जन्मदिन की स्मृतियों का

उजलापन कम न हो जाए ...

तुम्हारे लड़कपन के बुने फंदे

कहीं कमजोर न हो जाएँ

इसलिए

आज

सहेजकर रख दिया मैंने

उजले धागों वाला

वो मेजपोश ..................


-- शोभा मिश्र 

-स्त्री -लेखन, स्त्री-विमर्श, सत्ता-विमर्श बनाम देह -विमर्श- शोभा मिश्र

{"यात्रा" साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित आलेख }


-स्त्री -लेखन, स्त्री-विमर्श, सत्ता-विमर्श बनाम देह -विमर्श

-----------------------------------------------------------------

रुढ़िवादी परम्पराओं और शारीरिक , मानसिक रूप से प्रताड़ित स्त्री की शोषण
मुक्ति के लिए ही शायद स्त्री आज़ादी की मांग के लिए कलम उठी होगी ...
लेकिन आज स्त्री हित की बातें शायद साहित्यिक मंचों,सामाजिक संगठनों के
बैनर और गोष्ठियों तक ही सिमित रह गयी हैं .... साहित्य जगत की बात करें
तो स्त्री विमर्श पुरुषसत्तात्मक मानसिकता से लडाई के बजाय स्त्रियों की
आपसी अहम् की लडाई बनकर रह गया है ! एक तरफ परुष आपने वर्चस्व को कायम
रखते हुए घर और बाहर स्त्री को मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह उस पर
अपना अंकुश कायम रखना चाहता है दूसरी तरफ स्त्रियों का एकजुट होकर
पुरुषसत्तात्मक समाज से आज़ादी की मांग न होकर आपसी विवाद भर बन जाना
स्थिति चिंताजक है .. स्त्रियों के इस तरह के आपसी विवाद कहीं न कहीं
पुरुषों की निगाह में उपहास है ! एक वरिष्ठ लेखिका की कलम अगर युवा
लेखिकाओं के विरोध में ही चलेगी तो इसका निष्कर्ष क्या निकलेगा ? और फिर
लेखन में उम्र को क्यों बीच में लाया जाये .. लेखिकाएं चाहे वो युवा हों
या वरिष्ठ अगर पार्टियां और नाच-गाना करतीं हैं तो इसमें बुराई क्या है ?
हाँ ... अगर स्त्री लेखन महज यांत्रिक मष्तिष्क से सिर्फ उपलब्धियों के
लिए लिखा जा रहा है तो वो गलत है ! सावित्री बाई फुले ..से लेकर अगर
मौजूदा समय में मलाला का नाम लें तो उन्होंने अपनी लेखिनी के माध्यम से
स्त्रियों को शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए अपनी जान तक को जोखिम
में डाला ... चन्द्रकिरण सौनरेक्सा , मन्नू भंडारी , सुधा अरोड़ा जी ने
अपनी लेखिनी के माध्यम से घरेलू हिंसा के प्रति निम्न वर्ग और मध्यमवर्ग
की स्त्रियों का ध्यान आकर्षित किया है !

ये कैसा विमर्श
--------------

फेसबुक जैसी सोशल साईट्स पर महिला पत्रकार , कथाकार , सोशल वर्कर्स टीन
एज़ गर्ल्स या कॉलेज गोइंग , जॉब कर रही लड़कियों को आज़ादी का पाठ पढ़ाते
हुए देर रात बाहर घूमने ... पार्टियां करने और मनमाना वस्त्र पहनने की
सलाह देतीं हैं .. और अगर इसके लिए अभिवावक रोकतें हैं तो उनका भरपूर
विरोध करने की भी सलाह देती हैं ! मनचाहा वस्त्र पहनने में कोई बुराई
नहीं है ... आजकल जिन वस्त्रों का चलन है उनमें स्कर्ट-टॉप , जींस ,
सलवार-कुर्ता ( परिधानों के और भी नाम हो सकतें हैं जो मुझे नहीं मालूम )
उन्हें पहनने में कोई बुराई नहीं है .. लड़कियों का अपने लिए वस्त्रों का
चुनाव उनका एक बेहद निजी निर्णय है मानती हूँ उसमें अभिवावकों का
हस्तक्षेप ठीक नहीं है लेकिन लड़कियों और महिलाओं के लिए एक विशेष तरह के
डिज़ाईन किये हुए कपडे जो ब्रांडेड कंपनियों द्वारा डिज़ाईन किये जातें हैं
.. जिसमें उनका मकसद स्त्री-देह का इस्तेमाल करके सिर्फ बाजारवाद को
बढ़ावा देना होता है .. रैम्प पर वाक करती हुई चीथड़े वस्त्रों में लिपटी
लड़की विशेष सुरक्षा में वहाँ पर तो ठीक है लेकिन वैसे ही कपड़े कॉलेज जाने
वाली या जॉब पर जाने वाली लड़की पहने तो कुत्सित बुद्धि वालों की गन्दी
नज़रों को आप कहाँ तक रोक सकतें हैं .. आप ये कह सकतें हैं की बुराई देखने
वालों की नज़रों में होती है .. कपड़ों या स्त्री-देह में नहीं लेकिन
अभिवावक ये नहीं सोच सकतें .. ऐसा सोचकर मानसिकता बदलने के लिए अपनी
बच्ची की बलि चढ़ाने के लिए आधे-अधूरे कपड़ों में बाहर निकलने की इजाजत
नहीं दे सकते ... देर रात आधे-अधूरे कपड़ों में लड़कियों का बाहर होना और
पार्टियां अटेंड करना ऐसे हुआ जैसे आपने किसी नरभक्षी के सामने अपने जिगर
के टुकड़े को उसकी पसंद के मसाले लगाकर फेंक दिया हो ... और ऐसे में
बच्चों के साथ कोई दुर्घटना घटती है ... किसी वहशी की कुत्सित मानसिकता
का शिकार आपकी बेटी होती है तो आप तो अपनी संतान से हाथ धो बैठेंगें ..
हाँ .. आपकी दिवंगत संतान को इन्साफ दिलाने में कुछ स्त्री-संगठनों और
उससे जुड़े लोगों के चेहरे जरुर हाईलाइट होंगें !
इसी तरह कॉलेज या ऑफिस खुलने या बंद होने का समय निश्चित होता है .. लड़की
हो या लड़का कॉलेज या ऑफिस बंद होने के बाद तय समय पर घर नहीं लौटते है तो
अभिवावकों का चिंतित होना स्वाभाविक है ... बेटी हो या बेटा उसके कितने
मित्र हैं .. उनका कैसा आचरण है उसकी जानकारी रखने का पूरा हक अभिवावकों
को है ... वो ऐसा बच्चों पर पाबन्दी लगाने या नज़र रखने के लिए नहीं करते
.. अपने जिगर के टुकड़ों की सुरक्षा के लिए करतें हैं !
मैं ऐसे स्त्री-विमर्श का भरपूर विरोध करती हूँ जिसकी वजह से बच्चों के
मन में अभिवावकों के प्रति द्वेष भावना आती हो ! अभिवावक अपनी संतान के
दुश्मन नहीं हैं .. जीवन अमूल्य है उसकी सुरक्षा बहुत जरुरी है !
( हरियाणा , राजस्थान जैसे राज्यों में गोत्र-विवाद और प्रेम संबंधों को
लेकर जिन युवा लड़के-लड़कियों की हत्या कर दी जाती है वो बहुत घृणित कृत्य
है .. उसकी जितनी निंदा की जाए कम है )

कथनी-करनी का फर्क
-----------------------
रेप, एसिड-अटैक और भी स्त्री सम्बन्धी जघन्य अपराधों के खिलाफ आवाज़ उठाने
वाले संगठन से जुड़े लोग .. पत्रकार .. राजनैतिक नेता जिनमें महिलाएं
पुरुष सभी शामिल हैं उन स्त्रियों को क्यों अनदेखा करतें हैं जो किसी न
किसी तरह अपने घर-परिवार , रिश्तेदारों द्वारा सताई गयी हैं ...
घरलू -हिंसा के तहत आने वाले ऐसे अपराधों के लिए कोई कठोर कानून अभी तक
नहीं बना है ... ज्यादातर ऐसी महिलाओं की समस्या से सम्बंधित पीड़ित और
दोषी की काउंसलिंग की जाती है .. लेकिन अगर पीड़ित महिला इससे आगे की लडाई
लड़ना चाहे और वो बेरोजगार हो तो उसके लिए अपने लिए न्याय की ये लडाई
बहुत कठिन हो जाती है ... ऐसे में उनकी आर्थिक रूप से मदद करने के लिए न
तो कोई संस्थान हैं न स्त्री-विमर्श से जुड़े लोग ही उनकी कोई मदद करने
आगे आतें हैं !
संस्थानों की महिलाएं तो दूर लेखिकाओं की सहानुभूति भी ऐसी महिलाओं
के लिए सिर्फ उनकी लेखिनी तक ही सीमित है ... अगर वो प्रत्यक्ष रूप से
किसी महिला को अपने अधिकार की लड़ाई लड़ते हुए आगे बढ़ता देखती हैं तो
उन्हें उनकी छोटी से छोटी उपलब्धि भी हजम नहीं होती ... वर्चुअल साइट्स
में फेसबुक जैसी आभासी दुनिया को ही लें ... जिसके माध्यम से गृहिणियां
घर बैठे बहुत कुछ सीख रही हैं तथा अपनी लेखिनी को फलता-फूलता देख रही हैं
... फेसबुक पेज पर उनकी रचनाओं पर आये लाईक- कमेंट्स भी स्थापित लेखिकाओं
को विचलित कर रहें हैं ... वो डायरेक्ट या इनडायरेक्ट किसी न किसी तरह
से उन्हें हतोउत्साहित करने की कोशिश कर रहीं हैं ... जबकि घर-गृहस्थी
की जिम्मेदारियों में एक लम्बा समय व्यतीत कर चुकी गृहिणियां बहुत ही
मुश्किल से अपनी रचनात्मक रुचियों को सुचारू रख पा रही हैं .... घर के
सदस्य उनके हाथ में कलम और नोटबुक देखते ही तनाव में आ जातें हैं ..
कम्प्यूटर पर ब्लॉग के माध्यम से साहित्य या कोई दूसरी रुचिपूर्ण गतिविधि
में रूचि लेते हुए देखतें हैं तो उन्हें नागवार गुजरता है ... ऐसे में
घरलू महिलाएं अपने घर वालों से संघर्ष करे या बाहर की विशाल समुद्र
रुपी दुनिया में स्थापित बड़ी मछलियों से डरे ?
कुछ बातों के हमारे पास प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई सुबूत
नहीं होते ... लेकिन ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जहां अपने लिए टुकड़े भर
आसमान के लिए संघर्ष कर रही स्त्री को एक वस्तृत आसमान की स्वामिनी
स्त्री उसका छोटा सा आसमान भी हथिया लेना चाहती है ...और वापस उसे
चारदीवारी में बंद रहने के लिए मजबूर कर देती है ! लगभग चालीस वर्षीय एक
अविवाहित महिला अक्सर अपने अनुभवों को साझा करते हुए साहित्य-जगत या
पत्रकारिता में सक्रिय महिलाओं को कोसतीं है और अपना दुखड़ा सुनाते हुए
रोती हैं कि कैसे वरिष्ठ महिला पत्रकारों और लेखिकाओं ने ही उन्हें लेखन
के क्षेत्र में पीछे धकेलने की कोशिश की !

एक साक्षात्कार में सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका जी ने हिंदी लेखन के
माहौल में स्त्री की मुश्किलों के बारे में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए
कहा कि " स्त्री का शरीर उसके गले का ढोल तो है ही उसके शोषण का प्राइम
साईट भी है !" स्त्री लेखन के क्षेत्र में आने वाली महिलाओं के लिए उनका
शरीर पुरुष संपादकों या साहित्यकारों के लिए है ये तो सभी जानतें हैं
लेकिन लेखन के क्षेत्र को अपनाने वाली महिलाओं को वरिष्ठ , स्थापित
लेखिकाएं ही असुरक्षा के चलते उनपर घृणित आरोप और दूसरे अन्य तरीकों से
हतोउत्साहित करेंगी तो नयी रचनाकार कहाँ जायेंगी ? कहने का तात्पर्य ये
है कि नयी आने वाली लेखिकाओं के संघर्ष को बढ़ाने में कम से कम वरिष्ठ ,
स्थापित लेखिकाएं तो ना आयें ... प्रोत्साहित करें या न करें .. उन्हें
हतोउत्साहित तो ना करें !

विकृत मानसिकता वाले साहित्यकारों/ संपादकों के आगे घुटने टेकती अति
महत्वाकांक्षी युवा लेखिकाएं
-----------------------------------------------------------------------------------------
हाल ही में एक सम्मानित पत्रिका के संपादक और युवा लेखिका का विवाद सामने
आया ... वर्चुअल साईट्स पर ये विवाद पढ़कर तथाकथित संपादक के प्रति मन
घृणा से भर उठा ! हाँ ... यहाँ युवा लेखिका भी कम दोषी नहीं है ...
हमेशा विवादों में घिरे रहने वाले बुजुर्ग संपादक महोदय की इस बात पर
विश्वास किया जा सकता है कि उन्हें युवा महिलाओं को स्पर्श भर कर लेने से
उनका मन तृप्त हो जाता है ... फिर ऐसी विकृत मानसिकता वाले संपादक से
युवा लेखिका ने इतनी घनिष्ठता क्यों बढाई ? वो कहतें हैं न कि बिना आग के
धुंआ नहीं होता ... बुजुर्ग , लम्पट संपादक महोदय के संपर्क में बहुत
सारी सम्मानीय लेखिकाएं भी हैं .. उनके लिए संपादक महोदय ने तो कभी ऐसे
घिनौने विचार नहीं रखे ... कुछ लेखिकाओं में से इस युवा लेखिका के बारे
में ही क्यों रखे ? रातों-रात बहुत बड़ी कहानीकार बनने की इतनी ललक ??
प्रसिद्धि पाने के लिए ऐसा सॉर्ट कट ?? बहुत उत्कृष्ट लेखन बेशक कम लिखा
हो लोगों की निगाहों में आता ही है ... अपनी गति और समय अनुसार लिखते
रहना .. आत्मिक सुख के लिए लिखना क्या लेखन की श्रेणी में नहीं आता है ?
यहाँ सिर्फ महत्वाकांक्षी लेखिका को ही दोष नहीं दिया जा सकता .. सनकी
संपादक महोदय ने जिस बेबाकी से अपने मनचले स्वभाव का बखान किया .. उस पर
कोई प्रश्न क्यों नहीं उठाता ? लेखिका अतिमहत्वाकांक्षी जरुर कही जा सकती
है लेकिन इस तरह खुलेआम अपनी विकृत मनोवृति का बखान करते बुजुर्ग संपादक
साहब का किसी लेखिका ने विरोध क्यों नहीं किया ?? सम्मानित पत्रिका के
संपादक साहब अतिमहत्वाकांक्षी लेखिकाओं की कैसी भी रचना या कहानी को
पत्रिका में जगह दे देंगें जिनसे उनका निजी , शारीरिक मतलब सिद्ध होता हो
?? क्या संपादक साहब की मानसिक विकृति के लिए उन्हें किसी मनोचिकित्सक
की जरुरत नहीं है ??
ये सभी प्रश्न किसी इमानदार लेखिनी की स्वामिनी लेखिका के माध्यम से
क्यों नहीं उठाये गए ?? यहाँ इस विवाद पर विमर्श क्यों नहीं हुए ??
गोष्ठियां क्यों नहीं हुई ?? यहाँ सिर्फ विकृत मानसिकता और
अतिमहत्वाकांक्षा में आपसी सामंजस्य से प्रसिद्धि और निज सुख में
निर्लिप्तता की बात नहीं थी .. यहाँ संपादक और लेखिका के बीच में एक
सम्मानित पत्रिका की भी बात थी !

एक सार्थक स्त्री-विमर्श में लेखिनी और व्यावहारिकता , उदारता जरुरी है
------------------------------------------------------------------------------
स्त्री-विमर्श में सिर्फ यहाँ सिर्फ महिलाओं और लेखिकाओं से उम्मीद रखने
पर प्रश्न उठाया जा सकता है लेकिन महिलाओं और लेखिकाओं से ज्यादा उम्मीद
यहाँ इस मंशा से रखी जा रही है क्योकि ये स्त्री-विमर्श की बात है जो कि
हर वर्ग की स्त्रियों से जुड़ी समस्याओं की बात है .. और लेखिकाएं हों या
महिलाओं से सम्बंधित संस्थान में सक्रिय महिलाएं .. उनमें जब तक
स्त्रियों के प्रति उदारता और बहनापन नहीं होगा तब तक स्त्रियों के हित
में किये गए विमर्श सार्थक नहीं होंगें !
स्त्रियों पर होने वाले अपराध वो छोटे हो या बड़े घटित होते ही मंचों पर
और इलेक्ट्रोनिक - प्रिंट मीडिया और लेखन के माध्यम से उस पर विमर्श और
परिचर्चाएं शुरू हो जातीं हैं ... लेकिन क्या शहरी क्षेत्र से दूर
गाँव-देहातों की स्त्रियों तक उनके हित में किये गए विमर्श का सार पहुँच
पाता है ... ? शहरों में भी जो स्लम एरिया है उन महिलाओं तक उनके लिए ही
जागरूकता फैलाने वाले वक्तव्यों का विवरण पहुँच पाता है ?
जब तक स्त्री-हित में लेखिकाओं द्वारा सार्थक लेखन नहीं होगा ... जब तक
स्त्रियों के बीच में मानसिक रूप से .. शैक्षिक रूप से .. आर्थिक रूप से
उच्च वर्ग और निम्न वर्ग की खायी नहीं पाटी जायेगी तब तक स्त्री हित में
लेखन और विमर्श की कोई सार्थकता नहीं होगी !
विदित हो कि पुरुषों को पूजने और उनका वर्चस्व कायम रखने के लिए जो
रुढ़िवादी परम्पराएँ बनायीं गयी हैं ... महानगरों में महिला जागरूकता
अभियान के बाद भी महिलाओं में वो परंपरा पोषित हो रही है !
अगर आप जागरूक लेखिका हैं .. स्त्री विमर्श की सार्थकता को फलता हुआ
देखना चाहतीं हैं तो आत्ममंथन बहुत जरुरी है !

"पाँव भर जमीं की उम्मीद रखो
सर पर आसमां की
चूमेंगी मंजिलें कदम
राहें होंगी आसां ज़िन्दगी की "


प्रस्तुति - शोभा मिश्रा

अन्हियारे तलछट में चमका- उपन्यास समीक्षा - शोभा मिश्र

अन्हियारे तलछट में चमका-अल्पना मिश्र

25 March 2014 at 12:02
"यह हेम मृग स्त्री की देह है ! स्वर्ण देह ! जिसका शिकार किया जाना है ! उसके मन को जीत न पाने की बारम्बार असफलता के बावजूद ! इसी देह की दुर्गति करनी है,चाहे सद्गति के नाम पर या किसी और के नाम पर ! वध के लिए कब्जायी गयी देह का मन अलग जा पड़ता है ! यह पाना सम्पूर्ण पाना नहीं रह जाता ! आत्मा से छिटकी देह किसी खाली बटुली सी, किसी खाली गगरे सी टनकती रहती है ! उसमें से जीवन संगीत नहीं फूटता ! असम्भव है कि उसमें जीवन के राग-रंग जीवन जैसे खनके !"

कुछ दिन पहले कथाकार अल्पना मिश्र जी का पहला उपन्यास "अन्हियारे तलछट में चमका" पढ़कर ख़त्म किया ! समाज में स्त्री की स्थिति को लेकर मन में बहुत सारे प्रश्न एक साथ उठे ! - क्या आज भी हमारे भारतीय समाज में पुरुष की नज़रों में स्त्री सिर्फ "देह" भर है ? - पुरुष के बिना स्त्री का अपना कोई अस्तित्व नहीं ? - निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की अधिकतर स्त्रियां आज भी पुरुष प्रताड़ना के जख्म अपने तक ही सीमित रखने के लिए मजबूर क्यों हैं ?
शिक्षित हो या अशिक्षित, स्त्रियों के अपने कुछ निजी संघर्षों का रूप आज भी हमारे समाज में एक जैसा ही है, चारदीवारी में मानसिक- शारीरिक हिंसा से जूझती स्त्रियों की यंत्रणा को उपन्यास में लेखिका ने बखूबी उकेरा है !निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की बिट्टो उन्यास की मुख्य पात्र है ! शिक्षित बिट्टो समाज की निगाह में एक शिक्षित और आधुनिक स्त्री है इसके विपरीत घर के भीतर अपनों से उसके संघर्ष को देखते हुए आधुनिक समाज का दोहरा व्यक्तित्व साफ़ नज़र आता है ! बिट्टो अपने जीवन में पहली बार रिश्तों की लड़ाई हार जाने के बाद दोबारा शचीन्द्र के साथ अपना जीवन शुरू करती है, लेकिन वहां भी अंततः एक पुरुष के अपनी पौरुष क्षमता के आंकलन का माध्यम मात्र भर बनकर रह जाती है ! अशिक्षित मुन्ना- बो (सुमन ) मौसी.. ननकी महिलापात्रों के निजी संघर्ष का मार्मिक चित्रण लेखिका ने जिस तरह किया है उसे पढ़ते हुए कभी-कभी पीड़ित पात्रो और पाठक के मध्य का अंतर ख़त्म होता हुआ सा महसूस हुआ !
शचीन्द्र, मुन्ना भैया, गिरधारी, दामोदर उपन्यास के मुख्य पुरुष पात्र हैं ! शिक्षित- आधुनिक शचीन्द्र हों या अशिक्षित मुन्ना भैया हो या अधेड़ गिरिधारी चाचा हों स्त्रियों को महज देह मात्र समझतें हैं, स्त्री  उनके लिए घर के भीतर महज आत्मिक संतुष्टि का माध्यम है तो दूसरी तरफ समाज में अपना वर्चस्व बनाये रखने और अपनी अहम् की रक्षा में मोहरे की तरह है !पात्रों के मध्य हुए संवाद पढ़ते-पढ़ते अचानक रूककर दोबारा पढ़ने-समझने पर मजबूर करतें हैं और कभी-कभी दुःख की अथाह पीड़ा और असमंजस की स्थिति में छोड़ जातें हैं, उपन्यास के कुछ मार्मिक अंश स्त्री की शारीरिक- मानसिक आघात का वर्णन करतें हैं -
"नहीं, मेरी आँखों से एक भी मोती नहीं टपकेगा ! नहीं रोउंगी मैं ! नहीं ! जीऊँगी मैं ! नहीं करुँगी, जो मैं नहीं चाहती ! मैं उठकर बैठ गयी हूँ !"मुझसे नहीं हो सकेगा !" मैंने अपनी तरह की निरीहता में कहा है ! आखिरी प्रार्थना की तरह !"शचीन्द्र के वहशीपन से बचने के लिए रात में ही बिट्टो अपनी सहेली सुरभि के घर चली जाती है ! लेकिन शचीन्द्र वहाँ जाकर जिस तरह भावुक होकर बिट्टो के आगे मान-मनुहार करतें हैं उसे देखकर सुरभि बिट्टो को ही समझाती है और वापस उसके साथ जाने को कहती है ! वापस घर आकर शचीन्द्र फिर वही फ्रस्टेशन उग्र रूप में बिट्टो पर निकालते हैं !  "क्या समझ रही हो अपने को ? हाँ ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्ज़ी बोलोगी ? हाँ ! मैं कुछ नहीं हूँ न ! यही साबित करना चाहती हो !" तुम तैश में खुद को भूल गए हो ! एक साथ मुझे हिलाते हुए, ना जाने कितने झापड़ - घूंसे- लात जमा रहे हो ! मैं बैठी हूँ ,गिरती हुई, रोकती हुई ..."
स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में देह से परे बिट्टो अपने पति से एक दोस्ताना व्यवहार की कामना रखती है ! पति द्वारा शारीरिक- मानसिक-शाब्दिक हिंसा की शिकार बिट्टो का एकांत में खुद से संवाद उसकी मनः स्थिति का मार्मिक वर्णन है !
" यही, इतना भर तो जीवन नहीं होता ! तुम्हें समझा नहीं पाती हूँ ! ठीक है मैंने कहा था कि तुम मुझे संपूर्णता में चाहिए ! पर यही इतना भर छूट जाए तो ..... देह के पार भी चाह लेती तुम्हें ! पर तुम ! तुम हो कि इस देह के पार जाना ही नहीं चाहते ! यहीं अटक गए हो ! यहीं साबित करना है तुम्हें अपने आप को !"
 किसी भी तरह की प्रताड़ना जब बर्दाश्त की सीमा से बाहर होती है तब विरोध तो स्वाभाविक ही है ! बिट्टो,मुन्ना-बो, मौसी, ननकी अपने निजी संघर्षों की लड़ाई स्वयं लड़ती हैं और अंततः ननकी को छोड़कर  सभी के जीवन का एक बुरा अध्याय ख़त्म होता है ! CHAPTER CLOSED होने के साथ ही उनके जीवन को एक नयी दिशा मिलती है जिसमें सिर्फ 'वो' हैं और 'उनके' सपने !
"भोर का हल्का सा फूटता उजास कैसे मेरी खिड़की को बेधता चला आया है मेरे कमरे के फर्श तक ! कितने अर्से बाद देख रही हूँ भोर का होना, भोर का आना, भोर का छू जाना .......सचमुच एक नया दिन ! बिलकुल नया दिन देख रही हूँ ! उगता, बनता, फैलता नया दिन !"उपन्यास में घर-परिवार में घुटती स्त्रियों के संघर्षमय जीवन की व्यथा का सजीव,मार्मिक चित्रण है ! राजनीती हो या शिक्षा तंत्र की लचर व्यवस्था सभी पहलुओं का लेखिका ने उपन्यास में बखूबी चित्रण किया है ! "विद्या का मंदिर उर्फ़ लिखा जाना एक निबंध का" शीर्षक से सम्बंधित उपन्यास के इस खंड में पूर्वी उत्तरप्रदेश में शिक्षा व्यवस्था की गम्भीर खामियों का उल्लेख है !
सबसे अधिक प्रभाविक करतें हैं उपन्यास के स्त्री पात्रों के पुरुषों से संघर्ष और बिना किसी शोर - शराबे के खुद उससे लड़कर बाहर आने की प्रक्रिया ! आज के मंचीय और लेखकीय स्त्री-विमर्श के नारेवाजी वाले रूप को देखते हुए सही मायने में अपने लिए स्वतंत्रता का मार्ग चुनने वाली इन स्त्रियों के प्रतिकार का लेखिका ने बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है !
- शोभा मिश्रा      

एक और खाप--शोभा मिश्रा

{ jansatta news paper me prakashit kahani }

एक और खाप

--------------------

सावन की महकती संध्या थी ! हलकी रिमझिम फुहारों में संध्या बेला किसी नई- नवेली दुल्हन की तरह काले घने बादलों सी केश में लाल बिंदी लगाये, नीली ओढ़नी ओढ़े, पाँव में महावर लगा बस विदा ही लेने वाली थी ! श्रद्धा फुहारों में भीगती हुई ट्यूशन से घर लौटी ! किवाड़ की कुण्डी खटखटाने से पहले अपने घर के सामने वाले घर की देहरी पर अकेली शर्माइन चाची को देखकर कुछ क्षण के लिए रुकी और उनकी तरफ शरारत भरी नज़रों से देखती हुई पूछ बैठी -

"काहे चाची ..आज तुम्हारी चुगलखोर मंडली कहाँ है ? "

तभी उसकी नज़र चाची के हाथ पर गई ! उनकी मुट्ठी में छोटे झाड़ - पोंछ वाले कपड़े के भीतर कुछ था ! शायद कोई नन्हा जीव .. !

"आज फिर किसी चुहिया ने तुम्हारा अनाज खा लिया होगा या तुम्हारी कोई नई साड़ी कुतर दी होगी ! जान से गई बिचारी चुहिया !" दुखी होते हुए उसने चाची से कहा !
चाची उससे स्नेह से बोली -" घर और समाज के खातिर जे खतरा बने उनका ईहे हाल करे के चाही ... वैसे ई सब बातन से तुमका का मतलब ? जाओ.. जाइके हाथ - मुंह धोई के कुछ खा लो .. थक गयी होगी !”

चाची और चाची की मंडली का ये रोज का काम था ! रोज एक-दूसरे से मिलकर पूरे मोहल्ले की ख़ोज-खबर लेती थी ! किसके घर कौन आया .. कौन गया ... ! लड़कियों के चरित्र का आंकलन करना इनके स्वभाव में शामिल था ...!





दरवाजा खुल चुका था, वो घर के भीतर दाखिल होने ही वाली थी, तभी पायलों की रुनझुनी..चूड़ियों की खनक सुनकर वो एक बार फिर ठहर गयी ! एक जानी-पहचानी खुशबू का मासूम झोंका कहीं से आकर उससे लिपट गया! उसका मन कजरी खेलता, नीम के पेड़ पर झूले की पेंगें बढाता हुआ कभी ख़ुशी से झूम रहा था कभी कभी झूले के उतार -चढ़ाव जैसा अधीर हो रहा था ! घर के भीतर जाते हुए उसके कदम बाहर की तरफ दौड़ पड़े !
नारंगी,हरे और पीले रंग की लहरिया साड़ी, मेहँदी रचे हाथ, हरे रंग की भर हाथ चूड़ियाँ , कमर तक लम्बे खुले घुंघराले बाल, एक हाथ से साड़ी की प्लेट्स संभालती उसकी सखी कुलवंती उसकी ओर बढ़ी चली आ रही थी ! ट्यूशन के बैग का उसे होश नहीं था, वही बरसते पानी में बैग गिराकर वो भागकर अपनी प्यारी सखी कुलवंती से लिपट गयी ! दोनों के चेहरे पर बारिश की बूँदें थी ! भीतर का सावन आँखों से बरसने लगा !

भर्रायी आवाज़ में उसने अपनी सखी से प्रश्नों की झड़ी लगा दी-


"ये शादी.. अचानक .. !!! कब ? कैसे ? मुझे कुछ पता ही नहीं चला .. !! मैं तो गाँव गयी थी .. !! वापस आई तो पता चला तेरी शादी हो गयी !! "
कुलवंती कुछ कहती इससे पहले शर्माइन चाची ने कुलवंती को पुकारा " ससुराल से कब आई कुलवंती बिटिया ? "
"कल ही आई चाची ... आपकी तबियत कैसी है?" कहकर कुलवंती ने आगे बढ़कर चाची के पाँव छू लिए ! सौभाग्यवती रहने के आशीर्वाद के साथ ही चाची ने कुलवंती के बैठने के लिए पाटा आगे बढ़ा दिया ! तब तक चाचीजी की दो-चार और सहेलियां आ चुकीं थी ! सब एक साथ एक सुर में उससे उसके ससुराल वालों के व्यवहार के बारे में पूछने लगीं ! कुलवंती अपनी उदासी छुपाती हुई ससुराल पक्ष के सभी सदस्यों की तारीफ़ करती रही !




" तुम्हरे भाग माँ जो लिखा रहा वो हुआ ..... अब ससुराल वालन के सेवा-सत्कार करिके सबका खुश रखो .... !”
शर्माइन चाची और उनकी मंडली कुलवंती को सुझाव दे रही थी
कुलवंती सभी के सुझावों पर बस मुस्कराकर सहमती में गर्दन हिला भर दे रही थी !
प्रकृति ..संध्या रूप धारणकर विदा ले रही थी ! आलते के रंग में रंगी शाम और कुलवंती के रूप का तेज देखते ही बन रहा था ! कुलवंती की मनः स्थिति श्रद्धा समझ रही थी ! उसे स्कूल की सारी बातें याद थी ! कुलवंती ने अपने भविष्य के लिए तो कुछ और ही सपने संजोये थे .. ! मेडिकल की पढाई करके डॉक्टर बनना उसका सपना था ! उसने कभी ऐसा कोई जिक्र भी नहीं किया था कि उसके परिवार वाले उसकी शादी करने का विचार कर कर रहें हैं !
बातों ही बातों में श्रद्धा के घर वालों ने एक दिन कुलवंती के बारे में बताया था कि कैसे अपने होने वाले पति को मंडप में देखकर वो भीतर भाग गई थी ! बहुत रोइ थी वो अपनी शादी में !


चाचीजी और उनकी सखियों से घिरी कुलवंती बहुत खुश नज़र आ रही थी ! लहरिया साड़ी सोने के आभूषणों में सजी - संवरी वो बहुत सुन्दर लग रही थी ! श्रद्धा का उससे खूब बातें करने का मन हो रहा था लेकिन कुछ ही देर में वो चाची जी से विदा लेकर अपने घर जाने लगी !
श्रद्धा उसका हाथ पकड़कर बोली - " आओ ना .. कुछ देर बैठते हैं ... बातें करेंगें !"

कुलवंती उसकी हथेलियों को हलके से दबाकर मुस्कुरा उठी और उसे कसकर गले से लगा लिया !
"मेरे ससुराल वाले घर में ही बैठे हैं ... अभी वापस भी जाना है ! " ये कहते हुए उसने श्रद्धा को खुद से अलग किया !


"अरे ..!! इतनी जल्दी ? आज ही तो आई हो .. !!! कुछ दिन रूककर जाना !" श्रद्धा ने उसे रोकने का आग्रह करते हुए कहा !
कुलवंती ने अपनी दोनों हथेलियों में श्रद्धा का चेहरा लेकर भरी आँखों से उसे बहुत ही प्यार से देखा और जाने के लिए वापस मुड़ गई !

" मैं आती हूँ थोड़ी देर में तुम्हारे घर !"

वापस जाती हुई कुलवंती को पीछे से पुकारते हुए श्रद्धा ने कहा ! कुलवंती ने एक बार पीछे मुड़कर हाथ हिलाया और सहमति में सर हिलाकर अपने घर की तरफ बढ़ गई ! श्रद्धा कुछ देर वही खड़ी उसे जाता हुआ देखती रही !

" बहुत चिड़िया बनी ड़ाल -डाल फुदकत रही .. बखत रहत पंख ना काटल जात ता हाथ से निकली जातीं ! बिटिया जात के जब अपने महतारी -बाप .. हीत -रिश्तेदारन के मान - मरियादा के कौनो होश ना रहे तो अईसने सजा देवे के चाही !"

" दीदी .. तुम खूब बढ़िया काम की .... आजकल कहाँ जल्दी बिटियन के लिए अच्छा घर-बार मिळत है !"

“ का करी बहिन .. रिश्तेदारी की बात रहे ... इज्जत की बात रहे !” मोहल्ले की बात रहें .. !
चाची और चाची की सखियाँ आपस में कुलवंती के बारे में बात कर रही थी !

"ये सब क्या है चाची ? ये चिड़िया .. पंख .. और पंख काटने की बात ..... !! आप लोग कैसी बातें कर रही हो कुलवंती के बारे में ?" बहुत देर चाची और उनकी मंडली की बातें सुनने के बाद उससे चुप नहीं रहा गया ! कौतूहलवश उसने ये प्रश्न कर ही दिया !
चाची की हितैषी सखियों में से एक ने चाची की तरफ इशारा करते हुए कहा --

"अरे ... तुम नहीं जनती का ? मोहल्ले भर में मुंह काला होए से बचा हम सबन का ! कुलवंती के घरे के सामने जउन लड़के की रेडियो -टीवी की दुकान रही ओहिसे एकर खूब ताक-झाँक चलत रहे ! उ तो दीदी के आँखिन में ओहि दिन भगवान बसे रहे .. सब कुछ देखि लिहिन ... और बखत रहत परिवार के इज्जत बचा लिहिन ! "

"अरे ये क्या कह रही हो आप लोग !!! मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा !" श्रद्धा अपना धैर्य खो रही थी ! उन सभी के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना वो कुलवंती के घर की ओर भागी ! उसके घर के बाहर (थ्री-व्हीलर ) टैम्पो खड़ा था ! अभी वो घर के भीतर दाखिल नहीं हुई थी , उसे कुलवंती बाहर आती हुई दिखाई दी ! कोई अधेड़ युवक भी उसके साथ था ! उसके परिवार में सभी की आँखें नम थी ! कुलवंती की सहमी सिसकियाँ सुनकर वो भी अपने आंसू रोक नहीं सकी !! आगे बढ़कर श्रद्धा ने कुलवंती को अपनी अंकवार में भर लिया ! कुलवंती श्रद्धा से लिपटकर फफक पड़ी और धीरे से श्रद्धा के कान में इतना भर कह सकी , "चाची के बहकावे में आकर हमें आजीवन सजा भुगतने के लिए काल-कोठरी में डालने से अच्छा था कि अम्मा- बाबा मेरा गला ही घोंट देते .. !!! सब खत्म हो गया श्रद्धा .. !! सब खत्म हो गया .. !!! "

कुलवंती की माँ ने उसे श्रद्धा से अलग किया और दिलासा देते हुए उसे टेम्पो में बैठा दिया ! श्रद्धा उहापोह और असमंजस की स्थिति में स्तब्ध खड़ी थी ! कुलवंती वापस अपने ससुराल जा रही थी ! टैम्पो में वो अधेड़ युवक बैठ चुका था ! कुलवंती की माँ ने जब कुलवंती को उस अधेड़ युवक की बगल में बैठाते हुए उसका ख़याल रखने की विनती की तब श्रद्धा को सारी बातें समझ आ गयीं कि वो अधेड़ युवक ही कुलवंती का पति है और चाची ने जिस अपराध की सजा उसे दिलवाई है वो भी समझ चुकी थी !

वो जहां थी वही पत्थर की तरह जड़ हो गई ! छोटे कद और सावली रंगत वाला अधेड़ कुरूप युवक कुलवंती का पति था !
वो चाची और सखियों की बातें समझ चुकी थी ! गुड़िया -सी सुन्दर कुलवंती का विवाह जान -बूझकर उसके पिता की उम्र के एक ऐसे कुरूप युवक से किया था जिसे देखकर ही कोई भी बच्ची डर जाए ! पूर्वाग्रह के चलते एक लड़की के चरित्र में दोष ढूंढ लिया गया और सजा के तौर पर उसे जीवनपर्यन्त भयावह जीवन जीने के लिए बाध्य किया गया !

अल्हड़ .. खिलखिलाती कुलवंती के साथ बिताये स्कूल के दिन याद करते हुए श्रद्धा वापस घर आ गई ! चाची देहरी पर किवाड़ के सहारे खड़ी मुस्कुरा रही थी ! कुछ ही दूर वो चुहिया मरी पड़ी थी जिसको चाची ने अपने हाथों से मारा था ! उसे चाची की कही बात याद आ गयी -
-" घर और समाज के खातिर जे खतरा बने उनका ईहे हाल करे के चाही..!”
टैम्पो तेजी से सड़क पर जा रहा था ! उसमे बैठी कुलवंती भीगी आँखों से पीछे मुड़कर उसे ही देख रही थी ...........................................................

- शोभा मिश्रा

गाँव अब पहले जैसा गाँव नहीं रहा ----शोभा मिश्रा

{ lamahi patrika me prakashit aalekh}


गाँव अब पहले जैसा गाँव नहीं रहा
------------------------------------------------



इस बार बहन (मामा जी की बेटी) की शादी में दो दिन के लिए ननिहाल जाना हुआ ! विवाह के बाद पारिवारिक आयोजन या अकस्मात किसी रिश्तेदार की बीमारी –हजारी की खबर मिलने पर ही गाँव जाना हो पाता है !
शादी के पहले हम सभी बहनें और माँ हर साल गर्मी की छुट्टीयो में पंद्रह दिन के लिए गाँव जाते थे ! मैं तो कभी-कभी गर्मी की पूरी छुट्टियां गाँव में नानीजी के घर ही बिताती थी ! दादी जी के गुजरने के बाद उनके घर कम ही मन लगता था ! हर बार की तरह इस बार भी गाँव में बिताया बचपन याद आने लगा ! खासकर गर्मी की छुट्टियां !

जेठ के तपते दिनों में खेल-खिलौनों और परिवार के साथ खूब सारी मस्ती दिल-दिमाग को ठंडक देती थी ! कोयल की कूक और चिड़ियों की चहचहाहट के साथ ब्रह्म मुहूर्त की पावन बेला दस्तक देती ! मैं तो नानी जी के साथ ही सोती थी ! मामाजी को छोड़कर छत पर पूरा परिवार एक साथ सोता था ! पूर्वोत्तर के प्रथम प्रहर का वो अद्भुत अनुभव आज भी मन को एक सात्विक भाव से भर देता है ! उनींदी से भरी पलकें खुलती तो नानी जी बिस्तर पर बैठी हुई शिव भजन और रामचरितमानस की पंक्तियों का धीमे स्वर में पाठ करती दिखती ! सर से आँचल ओढ़कर आँखें बंद करके भजन का जाप करती हुई मग्न नानी जी देवी जैसी लगती ! एक क्षण के लिए आँखें खोलकर धीरे से मैं उनका सूती आँचल अपने हाथ में लेकर फिर से सो जाती ! बिस्तर छोड़ने से पहले लगभग आधे घंटे रोज एकाग्रचित्त मन से नानीजी अपने आप में खोई रहती, साथ में शायद कोई और भी होता था, उनका कोई अपना बहुत करीबी या ईश्वर ! शायद दिवंगत नानाजी को याद करती हो ! नानीजी आज भी नानाजी को बहुत याद करती है ! उनके निस्वार्थ-समर्पित प्रेम के किस्से माँ से भी सुन चुकी थी ! नानाजी को जब पैरालाईसिस का अटैक आया था तब वे काफी चिडचिडे हो गए थे ! बात-बात पर नानीजी को डांट देते थे ! एक बार तो नानीजी से नाराज़ होकर घर के बाहर बने कुँए में कूद गए, नानीजी भी रोती-बिलखती किसी को मदद के लिए पुकारती कुँए में कूद गयी ! कुँए के सोत में उन्हें डूबते- उतराते जिन लोगों ने भी देखा सभी आश्चर्य चकित रह गए थे ! .. क्योकि नानीजी जीवन-मृत्यु से जूझती हुई भी नानाजी का सर अपनी गोद में संभाले हुई थी ! उन्हें सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया था ! आज भी गाँव में सभी बहुत आदर से नानीजी का नानाजी के प्रति प्रेम का उदाहरण देते है ! इसलिए शायद मैं ऐसा महसूस करती थी, कभी उनसे पूछने की हिम्मत नहीं हुई, और पूछने वाली तो शायद बात भी नही थी ! हाँ .. मैं ऐसा महसूस करती थी कि जब वो अध्यात्म में लीन रहती थी तब अकेली नहीं होती थी !
किसी निराकार रूप की मौन भक्ति के बाद उनकी दिनचर्या शुरू होती ! जैसे ही वे बिस्तर से उठती मैं भी उनके साथ उठ जाती, उन्होंने कई बार कहा भी कि अभी तुम कुछ देर और सो लो, मुझे घर के काम निपटाने में देर होगी लेकिन मैं नहीं मानती ! दरअसल गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त देखना मुझे बहुत भाता था , साथ ही नानी जी की पूजा की तैयारी करवाने में भी मेरा बहुत मन लगता ! खासतौर पर पूजा के लिए खूब सारे फूल इकठ्ठा करने के बहाने अपने घर के पीछे के अहाते की छोटी सी बगिया और शाही जी के अहाते की बगिया घूमने में खूब मजा आता था ! कनेर, गुलाब , गुड़हल के साथ-साथ शिव जी पर चढाने के लिए भांग की खूब सारी पत्तियाँ भी तोड़ती थी !
शाही जी गाँव के समृद्ध भूमिहार हैं ! उनका घर ७० के दशक की किसी गाँव की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों के जमींदार की हवेली जैसा है ! मुख्य द्वार के बाहरी हिस्से में पशुओं को बाँधने और लोगों के बैठने के लिए खूब खुली जगह है ! मुख्य द्वार से भीतर जाते ही दाहिनी तरफ बड़ा-सा ओसारा और बायीं तरफ बहुत बड़ा अहाता है, जिसमें आज भी खूब फूल और सब्जियां उगाई जाती हैं !
नानी जी जब तक घर में झाड़ू लगाकर नहाकर मंदिर जाने के लिए तैयार होती तब तक मैं घर के पीछे वाले अहाते और शाही जी के अहाते से फूल और भांग की पत्तियां तोड़कर ले आती थी ! मैं बेंत की बनी पूजा की टोकरी पूरी भरने की फिराक में रहती ! कभी-कभी मीरा दीदी ( शाही जी की छोटी बेटी ) टोक देती कि, "और कितने फूल तोडोगी ? इतने फूल में तो दस लोग पूजा कर लेंगें, फूल पौधों में लगे ही सुन्दर लगतें हैं, हमें जितनी जरुरत हो उतने ही फूल तोडना चाहिए!”
पूजा की तैयारी साढ़े चार बजे के पहले कर लेनी होती थीं क्योकि नानीजी को उजाला होने से पहले पहले गाँव के बाहर पश्चिम उत्तर के कोण पर स्थित मंदिर में पूजा करके वापस घर लौट आना होता था ! ऐसी उनकी कोशिश रहती थी लेकिन कभी-कभी उनके घर लौटने तक उजाला भी हो जाता था ! मैं कभी-कभी नहा लेती थी तो मंदिर के भीतर जाने दिया जाता था नहीं तो जब तक नानी जी पूजा करती मैं वही मंदिर के बाहर खेलती रहती थी ! मंदिर के बाहर कुआं था और एक बेल का पेड़ भी था ! आंवले , आम और बँसवारी से घिरे खूब घने बगीचे में एक किनारे कोने पर स्थित वो छोटा - सा मंदिर आज भी है ! मंदिर में पूजा के लिए पुजारी नहीं थे ! कुछ विशेष अवसर या किसी को कोई अनुष्ठान करवाना होता तो लोग पुजारी से पूजा करवाते थे ! कुछ संभ्रांत परिवारों के बुजुर्ग और महिलाएं-लडकियां ही वहाँ पूजा करने जाती थी ! गाँव में बहु- बेटियां बिना किसी प्रयोजन के घर से बाहर नहीं निकलती थी ! यूँ ही देहरी पर बैठना या गांव-खेत घूमना संभ्रांत परिवारों की बहु-बेटियों के लिए आज भी अच्छा नहीं माना जाता है ! बहुएं उम्रदराज़ हों तो भी पूजा -पाठ के लिए जल्दी भिन्सारे जाकर लौट आना होता है !
आज अगर गांव में महिलाओं की स्थिति कुछ बदली भी है तो बस इतनी कि उँगलियों पर गिने कुछ भूमिहार और ब्राह्मण परिवार की बेटियां गांव से बाहर शहर में जाकर उच्च शिक्षा ले पा रही हैं , घरेलू महिलाएं आज भी चारदीवारी में कैद रहती हैं !


मंदिर से मेला की याद आ गयी ! महाशिवरात्रि के दिन मंदिर पर मेला लगता था ! मेले का ख़ास आकर्षण बैलों की बिक्री होता था ! हम बच्चों को तो मेले में बिकने वाले खिलौने और मिठाइयाँ खूब भाती थी ! मिटटी के बर्तन, फिरकी और बांस की बनी एक गाडी हुआ करती थी जिसमें बंधा धागा खींचने पर टक -टक आवाज़ करती हुई चलती वो गाडी बहुत प्यारी लगती थी ! मिठाइयों में खुरमा,जलेबी,बताशे जो शायद आज पसंद ना आये लेकिन उन दिनों हम ये मिठाइयाँ बड़े चाव से खाते थे !

उन दिनों गाँव में जांत और ढेका-ओखली पर अनाज कूटा-पीसा जाता था , अक्सर मामीजी और उनकी कोई जोड़ीदार जांत पर जतसार गाती हुई कुछ पीसती नज़र आती ! ....! 'ढेका' से कूटने का काम लिया जाता था ! शीशम, आम या यू.के लिप्टस के मोटे तने से बने ढेका का आगे का सिरा मोटा होता था ,जो अनाज कूटने के काम आता था ! पीछे का सिरा पतला होता था जिस पर एक महिला अपने एक पाँव से दवाब देती थी जिससे उसके आगे सिरा उठता-गिरता था ! गिरते-उठते सिरे वाले की जमीन पर किये छोटे गड्ढे में अनाज कुटता था और एक महिला उस अनाज को अपने हाथों से चलाती रहती थी ! अनाज चलाने वाली महिला और पाँव से दवाब देकर ढेका चलाने वाली महिला का आपसी मानसिक संतुलन बहुत सधा हुआ होता था ! हाथ से अनाज चलाने वाली महिला का अनाज चलाने से ध्यान केन्द्रित न होने की स्थिति में हाथ में चोट लगने का डर रहता था !
जांत पर अनाज पीसना बहुत मेहनत का काम होता था इसलिए कुछ पीसते हुए महिलाएं जतसार और दूसरे लोकगीत गाती थी !

पुरबा जे बहेले हना हनी हे देओरे
पछुआ जे बहल अनहार
अंगना मे कुईंया खनाय देहो हे देओरे
बाटी देहो रेशम के डोर् पुरबा
जे बहेले हना हनी हे देओरे
पछुआ जे बहल अनहार
चईत बैसाख के धुपवा बडी तेज
अंगना मे चंदोवा लागाय देहि हे देओरे
जरत नरमियो मोरे गोड
पुरबा जे बहेले हना हनी हे दियोरे
पछुआ जे बहल अनहार

इस गीत में भाभी अपने देवर से निहोरा कर रही है कि..पूर्व दिशा से हवा बहुत तेज बह रही है और पश्चिम की हवा से अँधेरा हो जाता है और दूर से पानी ले आने मे परेशानी होती है , इस साल आँगन में कुआँ खुदवा दो ,और चैत- बैसाख के महिना मे गर्मी बहुत तेज होती है हमारे पाँव जलते हैं, इस साल रेशम की डोरी ल़ा दो और अंगना छवा दो जिससे हम सब आराम से काम कर सके ..!

दैनिक जीवन और लोक गीतों की ये स्मृतियाँ अब गाँव के घरो के आँगन से विलुप्त हो गयी हैं !


जेठ की दोपहर लू और धूप से खूब तपाती थी, गाँव में 12 बजे तक भोजन हो जाता था! बड़े से आँगन में पश्चिम की दीवार से होती हुई धूप पूरे आँगन में बिखर जाती ! भोजन के बाद हम सभी बाहर ओसारे में बैठकर कुछ देर बतियाते ! नानीजी और मामीजी ओसारे के पास वाले बड़े से कमरे में ही बैठती थी ! ओसारे के बाहरी तरफ दो -दो के जोड़े वाली चार जोड़ी खम्हिया है, हम उन दिनों उसी खम्हिया के इर्द-गिर्द घुमरिया खेलते थे ! खम्हिया से ठीक आगे ओसारे से नीचे द्वार पर उतरने के लिए सीढ़ी थी ! सिर्फ दो पायदान की सीढ़ी ! उस पर बैठकर भी हम लोग पांच गोटी और दूसरे खेल खेलते थे !
मामाजी के घर के सामने का हिस्सा गाँव के अन्दर जाने के लिए सड़क का भी काम करती थी ! चौपहिया वाहन तो नहीं , आते-जाते इक्का दुक्का लोग कभी पैदल तो कभी साईकिल पर नज़र आ जाते ! द्वार से होकर आते-जाते राहगीर कभी-कभी रूककर सुस्ताते भी थे ! नानीजी के सामने से कोई भी राहगीर अगर वो सुस्ताने बैठा है तो प्यासा नहीं जाता था ! हालाँकि उनमें से कुछ अजनवी भी होते थे ! उन्हें पानी के साथ कुछ मीठा जरुर दिया जाता ! परिचय.. हालचाल.. किस गाँव से आये हैं .. यहाँ किसके घर जाना है ये सब कुछ बातचीत के दौरान पूछा जाता ! अजनबियों में भी आपस में कितना मेलमिलाप हुआ करता था उन दिनों ! अब तो वहाँ अपनों में भी वो पहले जैसा अपनत्व नहीं रहा !






घर की देहरी के आगे ही कपूरी आम के चार बड़े -घने पेड़ हुआ करते थे जो अब नहीं है ! आस-पास बँसवारी और महुआ के भी पेड़ थे ! हमारा जब भी मन होता उस छोटे से बगीचे में भी खेलते ! कपूरी आम आकार में दूसरे आमो से कुछ बड़े होतें हैं ! कभी-कभी हवा न चलने पर भी पके आम अपने आप टूटकर गिर जाते थे ! सन्नाटे में आम गिरने की आवाज़ की दिशा में हम सभी बच्चे दौड़ पड़ते ! जिसके हाथ आम लगता था वही उस पर अपना अधिकार ज़माने की कोशिश करता लेकिन आखिर में सभी बच्चे मिल -बांटकर आम खाते थे ! घर में आम की कमी नहीं थी लेकिन पेड़ से गिरे आम के लिए हम सभी खूब झगड़ते ! जून के पहले या दूसरे हफ्ते तक पहली बारिश हो जाती थी ! पेड़ पर एक भी आम पक जाए तो मामाजी और नानीजी कहते कि, “अब आम लग गया है !” 'आम लग जाना ' का मतलब होता था कि आम पकने की शुरुआत हो चुकी है ! उसके बाद तो हम सभी आम तोड़कर अलग- अलग बोखारों में अनाज में दबाकर रख देते थे ! एक -दो दिन में आम पक जाते, अपने-अपने हिस्से के आम लेकर हम सभी खूब चाव से खाते थे ! शरारत में हम सभी एक दूसरे का आम चुरा भी लेते ! इस बात को लेकर आपस में खूब झगड़ा होता ! रोना- धोना भी ! बड़ो के बीच-बचाव करने और समझाने पर मामला शांत होता था !

दोपहर में हमें डांट कर सुलाया जाता , खेलने की धुन में हमें नींद नहीं आती थी ! लू लगने का डर और बीमार पड़ने का डर देकर हमें सुलाया जाता ! ओसारे के दोनों छोर पर छोटे -छोटे कमरे थे , उन्ही में हमे सुलाया जाता ! नानीजी थोड़ी-थोड़ी देर में हमें पंखा झलकर हवा करती रहती !


सूर्यास्त के बाद शाम को छत पर हम सभी खूब धमाचौकड़ी करते ! रात को नीचे हैण्डपंप से पानी लाकर छत पर सोने वाली जगह को ठंडा करने के लिए खूब भिगोते ! कभी-कभी नानीजी भी हमारा साथ देती थी ! .. हाँ .. इससे पहले मैं छत के पश्चिमी किनारे पर बैठकर डूबता हुआ सूरज जरुर देखती थी ! अपने छोटे से गाँव के बाहर दूर तक नज़र आते खेतों के उस पार नज़र आते बगीचे से ढंके गाँव के पीछे दिन को विदाई देता सूरज बेहद खूबसूरत नज़र आता था ! नूरानी आभा से नहाया क्षितिज़.. अपने घोंसलों में लौटते पंक्षीयों से सजे क्षितिज की रौनक देखते ही बनती !
पश्चिम-घर की दीवार से और आँगन के बाद पूरब-घर की दीवार से होती हुई धूप पूरब की दिशा की ओर जाती हुई हमसे विदा ले लेती थी और सूरज पश्चिम की ओर दूर गाँव की ओट में धरा की गोद में समां जाता था ! शाम होते ही नानीजी और मामीजी कितने इत्मिनान से दिया-बाती की तैयारी करती थी ! आराम से पीढ़े पर बैठकर लालटेन का शीशा साफ़ करती थी और ढिबरी में तेल भरकर उसकी बाती ठीक करती थी ! लालटेन जलाने के बाद पूरे घर के कमरों में दिया दिखाना होता था ! ये काम करने में मैं आगे रहती थी ! घारी और गोहरा-घर में बहुत अँधेरा होता था .. दिया दिखाने में डर लगता था लेकिन एक किनारे से लालटेन लहराकर दिया दिखाकर भाग आती थी ।
रात में आँगन में नानीजी और मामीजी जब काम करती थी तब ढिबरी या लालटेन की रौशनी में दीवार पर उनकी कभी बड़ी कभी छोटी कभी टेढ़ी-मेढ़ी छाया देखकर मुझे बहुत मज़ा आता था .. रात को सोने से पहले हम सभी रामवृक्ष से कहानी जरुर सुनते थे ! बेलवती-कन्या, सूत का घोडा और राजा -रानी की कहानियाँ हमें उनींदी के उड़नखटोले में बैठाकर किसी दूसरे लोक ले जाती थी !

उन दिनों अपने कीमती गहनों को चोरो से छिपाने की नानीजी की तरकीब और उनकी मासूमियत भरी सूझ-बूझ याद करके आज भी मुस्कुरा उठती हूँ ! छत के ऊपर बनी एक कोठरी की दीवारों पर प्लास्टर नहीं हुआ था, उन्ही दीवारों की कुछ ईंटें निकालकर नानीजी उसमें नर्म सूती कपड़ों में लपेटकर अपने गहने रखकर उस पर दोबारा ईंट फिट कर देती थी !


उन दिनों आँगन और ओसारे में दीवारों के झरोखों में गौरैया घोसले बनाती थी ! आँगन में गौरैया और उनकी चहक से खूब रौनक रहती थी ! उनके घोसलों से उनके चूजों की भी धीमी चहक सुनाई देती थी ! मैं कभी-कभी गौरैया को पकड़ लेती और उसे रंगकर उड़ा देती थी ! आँगन में अपने हाथों से रंगी रंगीन चिरईया फुदकते देख बहुत अच्छा लगता !



गाँव के कुछ समृद्ध घरो में उन दिनों वाहन के नाम पर ट्रैक्टर , जीप और मोटर साईकिल हुआ करती थी ! अनाज और बोझा ढोने के अलावा बैलगाड़ी का इस्तेमाल एक गाँव से दूसरे गाँव आने-जाने के लिए वाहन के रूप में किया जाता था !
मुझे आज भी याद है, बैलगाड़ी में विदा होती दुल्हन का विलाप ! तिरपाल से पूरी ढंकी हुई बैलगाड़ी से रोती-बिलखती दुल्हन की आवाज़ आ रही थी ! नानीजी ने ही बताया कि इसमें दुल्हन विदा होकर जा रही है !





उन दिनों मेरी उम्र शायद आठ नौ वर्ष की रही होगी ! गाँव भर के पशुओं को (जिनमें गाय अधिक होती थी ) चराने के लिए चरवाहे गाँव के बाहर खेत-खलिहानों में ले जाते थे ! नानीजी मेरी रूचि के अनुसार छत पर खड़े होकर उत्तर दिशा की ओर से पशुओं के आता देखने की जिम्मेदारी देती थी ! हमारे घर के पीछे से उत्तर दिशा की ओर फूस और खपरैल से छाये कच्चे घरों के सामने से होती हुई गाँव के भीतर जाती एक कच्ची पगडण्डी भूमिहार परिवार के एक बड़े हवेलीनुमा घर के कोने की ओट से दिखना बंद हो जाती थी ! सुबह जब चरवाहे पशुओं को चराने के लिए गाँव से बाहर ले जाते थे तो उसी ओट से पहले धूल उड़ती नज़र आती , उसके बाद जैसे ही एक - दो गाय आती हुई नज़र आती तो मैं भागकर नानीजी को आवाज़ लगाती, "ए नानी ! गइया आ गईं !" नानीजी कभी रामवृक्ष को आस-पास देखती तो उन्हें गाय खोलने के लिए कहती , अगर रामवृक्ष नज़र नहीं आते तब मुझे कहती कि "देखो रामवृक्ष कहाँ हैं .. उनसे गइया खोलने के लिए कहो !"
गाँव भर के लगभग दो-तीन सौ पशु जिनमें गाय-भैंस-बकरी शामिल होती थी , रंभाती झूमती गाँव से बाहर चरने के लिए जाती थीं ! उनकी आवाज़ सुनकर ही उत्साह से हमारी गाय उछाड़ भरने लगती ! अगर थोड़ी सी भी देर हो जाए पगहा खोलने में तो जोर-जोर से रंभाकर हम सभी को पुकारने लगती ! पगहा खोलते ही रोज की तरह दक्खिन दिशा की तरफ चरने जाने वाले पशुओं की भीड़ में भागकर शामिल हो जाती ! छत के एक कोने से मैं तब तक उन्हें जाता हुआ देखती रहती जब तक वो सारे पशु मेरी आँखों से ओझल नहीं हो जाते ! शाम को मैं छत से दक्खिन दिशा की ओर देखती अपनी गईया का इंतज़ार करती ! जैसे ही दूर से सारे पशु गाँव की तरफ आते नज़र आते ,मैं भागकर घर के पीछे कच्ची पगडण्डी पर खड़ी होकर पशुओं में अपनी गाय को ढूंढती, ढूंढना क्या .. वो तो अपना घर पहचानती थी और मुझे देखकर तो महारानी मटकती हुई (ऐसा मुझे लगता था) मेरी तरफ ही चली आती थी ! धीमी गति से दौड़ती हुई हमारी गइया घर की तरफ चल पड़ती और मैं उसके पीछे-पीछे !

आज उन दिनों को याद करती हूँ तो सोचती हूँ उन दिनों पत्र-व्यवहार के माध्यम से घर-परिवार की बातें होती थी तब पत्रों में घर में पाले गए पशुओं का भी जिक्र होता था ! जैसे - आजकल गईया गाभिन है, बैल बीमार हैं, गइया को बछिया या बछड़ा हुआ है .. इत्यादि ! बछड़े के जन्म पर घर में सभी ज्यादा खुश होते थे क्योकि बछड़े बड़े होकर बैल के रूप में खेत जोतने के काम आते थे ! मुझे आज भी याद है, मामाजी ने किसी पत्र में ही हमारी गइया को बछड़ा होने की खबर दी थी ! उस खबर से मैं कितनी खुश हुई थी ! कैसे कहूँ ! मैं बेसब्री से गर्मियों की छुट्टी का इंतज़ार करने लगी ! .. और जब गर्मी की छुट्टियों में गाँव गई तब नन्हे बछड़े को देखकर मैं निहाल हो उठी और बछड़े के प्रति मेरा ऐसा निश्छल स्नेह देखकर मामाजी-मामीजी - नानीजी मेरी माँ सभी मुझे देखकर निहाल होते रहते ! अपने हाथ से खुरपी से घर के सामने के बगीचे से घास काटकर बछड़े को खिलाती थी, बार-बार बछड़े का चेहरा अंकवार में भरकर चूमती थी ! कभी-कभी बछड़े की आँखों से पानी जैसा कुछ बहता हुआ देखकर नानीजी से बार-बार यही पूछती कि, "ये रो क्यों रहा है?? इसे कोई परेशानी होगी, इसे कहीं दर्द तो नहीं हो रहा ? “



स्त्री संघर्ष की कहानी कहता एक भूमिहार परिवार
--------------------------------------------------------------

इस बार जब बहन (मामाजी की बेटी)की शादी में गाँव गई तो शाही जी के घर जाने का मन नहीं हुआ क्योकि माँ से शाही जी की पहली पत्नी के देहांत की दुखद खबर सुन चुकी थी ! शादी-ब्याह वाले घर में व्यस्तता तो थी ही लेकिन उनके घर जाने की इक्षा होने के बाद भी मन का एक कोना बार-बार हाथ पकड़कर रोक ले रहा था !
पिछली बार उनके घर गई थी तो घर के बाहर वाले कमरे में वे शाही जी के पीठ की मालिश कर रही थी ! उन्हें ऐसी हालत में देखना बहुत अजीब लगा था ! लगभग चौरासी वर्ष के शाही जी तख़्त पर बैठे थे और मामीजी अपनी झुकी हुई कमर सँभालते हुए उनकी सेवा में लीन थी ! माँ से और नानी जी से पहले ही सुन चुकी थी कि मामी जी ( शाही जी की पत्नी ) उम्र में उनसे बड़ी हैं ! फिर कैसे उनकी सेवा कर रही हैं? क्या वे शारीरिक रूप से क्षीण नहीं हुई हैं ? बहुत सारे प्रश्न एक साथ मन में उठे लेकिन मैं चुप ही रही !
शाही जी ने मुझे पहचान लिया था और मामीजी से भी मेरा परिचय करवा दिया था लेकिन उम्र के उस पड़ाव पर कम सुनाई देने की वजह से और नज़र कमजोर होने की वजह से वे शायद न तो शाही जी की बात सुन पाई न ही मुझे ठीक से पहचान पाई ! लगभग दो घंटे मैं उनके घर रुकी थी ! बाहर के कमरे से आकर मैं घर के भीतर छोटी भाभी के कमरे में बैठ गई ! भाभियों और उनके बच्चों के साथ बहुत देर तक खूब सारी बातें हुई ! कुछ देर बाद मामीजी भी भीतर आ गई, उनके साथ-साथ मामीजी जी भी मुझसे ना जाने क्या-क्या बतियाती रही ! उनका कहा कुछ समझ आ रहा था कुछ नहीं भी !... लेकिन अपने हाव-भाव से उन्हें मैं यही जता रही थी कि मैं उन्हें बहुत ध्यान से सुन रही हूँ ! उनकी ज्यादातर बातें उनके अपने ख़राब स्वास्थ्य के सन्दर्भ में थी ! भाभियाँ भरसक प्रयास कर रही थी कि मामीजी चुप हो जाएँ या बाहर चली जाएँ लेकिन मैं उनकी ढेर सारी बातें उत्सुकता से सुन रही थी और समझने की कोशिश भी कर रही थी !
मामीजी के व्यवहार में मैं अपने लिए कुछ अधूरा महसूस कर रही थी, इतने साल बाद मिलने पर भी उनके व्यवहार-बातों में मेरे लिए पहले जैसा स्नेह नहीं था !.. लेकिन मैं यही सोचकर खुद को तसल्ली देती रही कि उम्र के आखिरी पड़ाव में जब वो अपने स्वास्थ्य से ही इतनी दुखी हैं तो अपनों के प्रति प्रेम कहाँ तक संभालकर रख पाएंगी !
जब मैं उनके घर से लौटने लगी तब तक बड़े भैया ( शाही जी के बड़े बेटे) भी आ चुके थे !
मामीजी किसी तरह द्वार तक मुझे विदा करने आई ! ना जाने क्यों भैया ने मामीजी से पूछ लिया ..
" चिन्हताड़ू , के हई ?" ( पहचान रही हो, ये कौन है?") "नाही ए बाबू, गाँव -टोला में केहू की रिश्तेदारी में आईल होइहें!"
"बड़की बुआ के माझिल हई, मणि बाबा के घरे से!" भैया मामीजी के कान के नजदीक जाकर थोडा ऊँची आवाज़ में बोले ! ये सुनते ही उन्होंने मेरे दोनों हाथों को पकड़कर अपने पास खींच लिया ! मेरे चेहरे को अपने कांपते हाथों से सहलाने लगी और सबसे शिकायत करने लगी कि किसी ने उन्हें बताया क्यों नहीं ! मुझे गले से लगाकर बबुनी बबुनी कहकर रो पड़ी ! भारी मन से मैं उन्हें रोता हुआ छोड़कर लौट आई थी !


Top of Form




Bottom of Form

कैसे जाती उस घर में जहाँ मामीजी से जुड़ी इतनी सारी यादें थी और वही नहीं रही ! माँ से उनके निजी जीवन के बारे में कितना कुछ सुन चुकी थी, पति से मिली मानसिक और शारीरिक पीड़ा वो सबसे छुपाती थी ! लेकिन गाँव की कुछ अपनी बहुत करीबी महिलाओं से अपनी व्यथा कभी कभी कह देती थी !
मेरी माँ उन्हें भाभी कहती थी, ननद - भौजाई का रिश्ता तो वैसे भी सहेलियों या माँ-बेटी की तरह ही होता है ! माँ से वो अपना सारा दुःख साझा करती थी ! माँ बताती हैं कि शाही जी की दो पत्नियां थी और दोनों सगी बहने थी ! भूमिहार परिवार के मुखिया अपने घर की बहु-बेटियों को तो सात परदे में छिपाकर रखते थे लेकिन उनका अपना चरित्र बहुत ही गन्दा था ! धर्म की कट्टरता, उंच-नीच का भेदभाव सब कुछ उनके लिए दिखावे की बातें थी ! रात के अँधेरे में उनका मनचला मन सारे भेदभाव भूल जाता था !
गाँव के एक किनारे रहने वाले नट जाती की एक लड़की नाजिबिया पर वो रीझ गए थे ! कोई भी पत्नी ये कभी सहन नहीं करेगी कि उसका पति किसी और महिला के प्रति आकर्षित हो ! नजिबिया से मिलने से मना करने पर शाही जी मामी जी से खूब झगड़ते थे ! एक बार तो खाना खाते समय ही मामीजी ने उनसे नजिबिया से दूर रहने के लिए समझाया, इससे परिवार और समाज में उनका सम्मान घटेगा, इसका हवाला भी दिया !... लेकिन अपने खिलाफ ऐसी बातें सुनकर वे आगबबूला हो गए और बैठने वाले पाटे से मामीजी को मारा ! ये बातें तो मामीजी ने माँ से साझा की थी , उन्होंने ना जाने कितनी विपदा अपने भीतर दबाये रखी होंगी ! माँ कहती हैं उस घटना के बाद शाही जी मामीजी से अलग रहने लगे ! एक ही घर में रहते हुए मामीजी से कभी बात नहीं करते थे !
इतना ही नहीं उन्होंने दूसरी शादी का फैसला भी कर लिया और अपना फैसला अपने पिता को भी सुना दिया ! उन दिनों मामीजी की मनः स्थिति क्या रही होगी उसकी कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं ! घर के सदस्यों और रिश्तेदारों ने शाही जी को खूब समझाया लेकिन वे जिद पर अड़े रहे ! अंततः दूसरा कोई विकल्प न पाकर मामीजी के पिता जी ने शाही जी के सामने अपनी ही दूसरी बेटी से शादी करने के लिए निवेदन किया ! उन्होंने सोचा होगा कि अपनी ही दूसरी बेटी से शादी होने से उनकी बड़ी बेटी का घर उजड़ने से बच जायेगा ! मामीजी की छोटी बहन भी सुन्दर थी इसलिए किसी तरह बहुत मान-मनुहार के बाद वे मान गए ! .. लेकिन सगी बहन होते हुए भी मामीजी की छोटी बहन उन से डाह रखे लगी ! दूसरी शादी के कुछ सालों बाद परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि शाही जी का व्यवहार बड़ी मामीजी के प्रति कुछ विनम्र रहने लगा लेकिन छोटी मामी भरसक प्रयास करती कि शाही जी बड़ी मामीजी से दूर रहें ! कुल मिलाकर मामीजी का जीवन बहुत संघर्ष भरा रहा ! छोटी मामी के सर में चोट लगने के वजह से उनकी अकस्मात् मृत्यु हो गयी ! अपने जीवनकाल के अंत समय तक जब तक बड़ी मामी जीवित रही शाही जी की सेवा करती रही !

माँ एक बार की घटना याद करते हुए बताती है कि एक बार वे शाही जी के घर गई तो वे आँगन में नहा रहे थे और मामीजी नहाने में उनकी मदद कर रही थी ! अकेले में माँ ने उनसे ऐसे ही पहले की बातों को याद करतेहुए कहा, भाभी, 'आखिर पुरनके चौरा पंथ पड़ल !' ( आखिर आप ही उनके काम आई ) मामीजी बोली, ' हमके उजाड़ के.. ए बाबू !'




यही सब वजह थी शाही जी के घर ना जाने की ! इस बार बड़ी मामीजी बहुत याद आई !.. गर्मी की छुट्टियों में गाँव जाने पर जब हम सभी उनके घर जाते तो हमें उनका कितना स्नेह मिलता था ! गोइंठे पर मिट्टी की बटुली में खूब औटाये हुए दूध की दही हमें खिलाती थी ! मिठाई , अपने पेड़ों के आम हमें खिलाती थी ! खाने से मना करने पर बहुत स्नेह से दुलार कर खाने के लिए आग्रह करती ! इस बार गाँव जाने पर वो बहुत याद आई !



उन दिनों के गाँव की छवि की यादों के धागे में शब्द रुपी भाव पिरोना संभव नहीं है ! अब मेरा गाँव पहले जैसा गाँव नहीं रहा ! घरों में अब दुधारू पशु नहीं हैं ! उन दिनों हफ्ते में दो दिन गोसाई में चूल्हा जलता था, पूरे गाँव की महिलाएं और बच्चे वहाँ भूजा भुजवाने के लिए इकट्ठे होते थे, गोसाई में भूजे की खुशबू के साथ मेले जैसा माहौल रहता था ! घर के सामने के कपूरी आम के पेड़ कुछ तो आंधी में गिर गए कुछ काट दिए गए !
हाँ वहाँ जाने पर नानीजी मेरे बचपन के किस्से सुनाकर मुझे मेरे बचपन में ले जाती हैं !
कैसे मैं उनकी पूजा की तैयारी करवाती थी ......! मुझे खाने में क्या-क्या पसंद था ..! छोटी-छोटी बातों पर मैं कैसे रूठ जाया करती थी ...!
क्या-क्या याद करें ? अब तो अपने गाँव के लिए यही दुआ करती हूँ कि मेरा गाँव खूब समृद्ध हो ..! खुशहाल हो ! आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ गाँव .. गाँव ही बना रहे ..! वहाँ मनुष्यता बची रहे ...! दुधारू पशुओं और पंक्षियों के कलरव से वहाँ की रौनक बनी रहे ..!
... मेरा प्यारा गाँव !

- शोभा मिश्रा , ०४.०६.२०१४

परिचय
---------
नाम - शोभा मिश्रा
जन्म ,शिक्षा - कानपुर यूनिवर्सिटी से स्नातक
व्यवसाय- गृहिणी, ब्लॉगर, लेखिका
प्रकाशित- जनसत्ता, अहा ! ज़िन्दगी, हंस, दूसरी परंपरा,सृजनलोक -गाथा, जागोरी, और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लोग्स पर कवितायेँ , आलेख और विचार प्रकाशित , आकाशवाणी के आल इण्डिया रेडिओ पर एकल कहानी-पाठ
निवास- दिल्ली
संस्थापक और संचालिका फरगुदिया समूह