Tuesday, September 10, 2013

चौथ का चाँद - शोभा मिश्रा

चौथ का चाँद
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"तुम हमेशा किचन या किताबों में ही बिजी रहती हो, मेरे लिए भी समय है तुम्हारे पास ?"


" तुम भी तो ऑफिस या टेलिविज़न पर वही घिसी-पिटी खबरे देखने में व्यस्त रहते हो , तुम्हारे पास बैठकर तुम्हारी पॉलिटिक्स की बातें सुनूँ जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं ..अब छुट्टी लेकर बैठे हो देखो और समझो कुछ गृहस्थी की बातें।"

"सीख ही तो रहा हूँ, अब तुम ये बेलन लेकर मेरे सामने मत खड़ी रहो ..बहुत डर लगता है यार तुमसे ... तुम अब पहले जैसी नहीं रही .. सुनो ! चलो , आज तुम्हें कहीं घुमा लाऊं "

"कहाँ घुमाने ले जाओगे ? वहीँ माल या शोर शराबे वाली बेसिर पैर की कोई मूवी ?"

"नहीं , कहीं पार्क में चलकर थोड़ी देर बैठतें हैं जैसे बीस साल पहले बैठा करते थे .. आज बाईक निकालता हूँ .. चेक करूँ उसकी कंडीशन क्या है "

"आज तुम्हें मेरा और बाईक का ख़याल कैसे आ गया .. इतने साल से गैराज में फेंकी हुई बाईक अब कहाँ ठीक होगी ?"

तुम तैयार हो जाओ .. हॉर्न दूंगा तो आ जाना ..
कुछ बीती शामों जैसी आज ये शाम मुस्करा रही थी ... पेड़ो की फुनगी पर डूबते सूरज की किरणें अठखेलियाँ खेल रही थी ... इतने सालों बाद भी बाइक पर बैठते ही आदतन उसने अपनी दाई बाँह उसकी कमर में लपेट दी और सर बांये कंधे पर टिका दिया .. उसने भी मुस्कराते हुए दाहिने हाथ से बाईक का हैंडल बार संभाला और बांये हाथ से अपनी कमर में लिपटे उसके हाथ को धीरे से दबा दिया ।
"तुम अभी अपनी पुरानी आदतें भूली नहीं "
"तुम भी तो नहीं "
"अर्र्र्र्र्र्र !!! पागल ! तुम्हें पता भी है तुमने रेड लाईट क्रॉस की है .. जरुर ट्रेफिक पुलिस ने तुम्हें देख लिया है " कहने के साथ ही उसने गुस्से से एक चपत उसकी पीठ पर लगाई ।

"देखने दो .. ज्यादा से ज्यादा चालान काटेगा और क्या करेगा " कहने के साथ ही उसने एक्स्लिरेटर घुमाकर स्पीड तेज कर दी ... और ज़िक-जैक स्टाईल में स्टंट करता हुआ बाईक भगाने लगा ।
"सुनो ! अरे रुको तो .. ये तुम्हारे लखनऊ की कानपुर रोड नहीं है ... दिल्ली है ..स्पीड कम करो " कहते हुए उसने दोनों हाथों से उसकी कमर जोर से पकड़ ली ।
"मुझे मत रोको ... बहुत सालों बाद मुझे किसी दुसरे शहर में अपने अवध की शाम की यादें मिली हैं और तुम मिली हो "

वो भी खुश थी .. आज बहुत सालों बाद उसके साथ थी .. कसकर उसकी कमर को पकड़कर उसने आसमान की तरफ नज़रें की ... चौथ का चाँद चमक रहा था ... उसने जी भरकर चाँद को देखा ... चाँद तो चाँद होता है .. उसे देखना हमेशा ही शुभता और शीतलता का अहसास देता है ..................................

शोभा शोभा मिश्रा
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Friday, September 6, 2013

'घर'

दरअसल ..जिस 'घर' की खिड़कियाँ दरवाजे तुम खुला देख रहे हो ... ये संकेत है इस बात का कि अब ये 'घर' तुमसे बेख़ौफ़ हैं ...इस 'घर' के लिए अब तुम एक निरीह सूखे हुए वृक्ष मात्र हो ... अब तो बारिश में भीगकर .. धूप में झुलसकर परत दर परत बिखरने भी लगे हो ... दीमकों ने तुम्हें भीतर से खोखला भी कर दिया है ... हवा का एक हल्का झोंका कभी भी तुम्हें गिरा सकता है ... हलके,खोखले अगर तुम 'घर' पर गिर भी गए तब भी 'घर' की एक ईंट भी नहीं हिलेगी .....
(यूँ ही कुछ गुण-बुन लिया )

muktak

कुछ समेट लियें हैं
कुछ अभी बाकी हैं
यादों के जर्जर घरौंदे से
विदा लेना अभी बाकी है ..

शोभा मिश्रा )

ghazal

हर पल हर दिन बिखर रहे हो 
तन्हाई से गुज़र रहे हो 

जिन वादों का दम भरते थे 
उन वादों से मुकर रहे हो

दुआ दिया करते थे जिनको
अब उनसे बेखबर रहे हो

ऊंचाई की सीढ़ी पर थे
उस सीढ़ी से उतर रहे हो

थक जाओगे तब लौटोगे
कर अनजाने सफ़र रहे हो

हासिल जो तुमको था शायद
खो अपना वो हुनर रहे हो

जिनकी नज़रों में थे ऊपर
उन नज़रों से उतर रहे हो

- शोभा मिश्रा