Sunday, March 31, 2013

कुछ ऐसा हो जाए



काश !

कुछ ऐसा हो जाए

सब कुछ भूल जाऊं

कौन हूँ ...

क्या हूँ ...

क्या करना है ..

किसी को स्कूल भेजना है ..

किसी को ऑफिस भेजना है ..




कोई मेरा है ..

मैं किसी की हूँ .. !




काश !

कुछ ऐसा हो जाए ..

खो जाऊं कश्मीर के जंगलों में

बेताब वैली की वादियों में

पहलगाम में 'बशीर' के घर जाऊं

उसकी पत्नी से खूब बातें करूँ

उसके बच्चों के साथ खेलूं !




काश !

कुछ ऐसा हो जाए

फिर बचपन में चली जाऊं

मामाजी के गाँव में रहने लगूं

सुबह अपनी गाय को चरने भेजूं

शाम को छत से उसका इंतज़ार करूँ

उसके 'बछड़े' को अपने हाथों से घास खिलाउं

'केमुआ' से घोसले से तोता उतारने को कहूँ

तोते की चोंच में चम्मच से दूध पिलाउं !




काश !

कुछ ऐसा हो जाए

नन्ही-मुन्नी गुड़िया बन जाऊं

चांदनी रात में छत पर ...

नानी जी की गोद में सर रखकर सोउं

'रामबिरिक्ष ' की कहानियाँ सुनूँ

"चंदा मामा आरे आवा .. पारे आवा ...

नदिया किनारे आवा ..

चाँदी की कटोरिया में दूध-भात लेले आवा "

नानीजी की लोरी सुनूँ !




काश !

कुछ ऐसा हो जाए

कि 'बेबी' की झोपडी में ..

बेफिक्र होकर उससे मिलने जा सकूँ

उसके चूल्हे पर खाना बना सकूँ

मिटटी के फर्श पर उसके साथ सोकर ...

उसकी डायरी पढ़ सकूँ ........




काश ...... काश ...... काश .....




( 'केमुआ' से बचपन की यादें जुड़ी हैं ..'.रामबिरिक्ष' बचपन की कहानियाँ ..... 'बशीर' बहुत प्यारा दोस्त ..हर सर्दियों में शाल बेचने आता है .... 'बेबी' दिल के बहुत करीब .. प्यारी बच्ची ... )

कविता नहीं है ... बस मन के भाव हैं .... बस एवीं ... बिजी संडे के दिन मन बहलाने के लिए ..:)

Sunday, March 17, 2013

स्त्री-जीवन पर लिखी कविता







एक बेबस

भूखी

गरीब

अपमानित

सिसकते

अक्षरों वाली

स्त्री-जीवन पर लिखी कविता

महफ़िलों की रौनक

तालियों की गूँज से आनंदित

पुरस्कारों से सम्मानित

अपने आलीशान महल में

आराम फरमाती रही !


वास्तविक जीवन में

एक वैसी ही स्त्री

आंसू बहाती

महफ़िलों की रौनक वाली

कविताओं के बीच

अकेली भटकती रही ..

Saturday, March 9, 2013

नर्म रंगत ओढ़े पलाश

कृतिम रंग, स्तब्ध इमारतें
हकीक़त की नर्म रंगत ओढ़े पलाश
गहरी परत ओढ़े चेहरे
मस्तिष्क की शिराएँ,
यांत्रिक संकेतों पर भागती
एक मौसम सी है ज़िन्दगी
हकीकत के रंग ओढ़ ,
क्यों नहीं ठहर जाती ....!!!