Monday, May 13, 2013

युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से मेरी बातचीत

 
युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से बातचीत
---------------------------------------------------


'कठपुतलियाँ' 'शालभंजिका' 'केयर ऑफ़ स्वात घाटी' ' बौनी होती परछाई ' , 'गन्धर्व-गाथा' जैसे कहानी संग्रह , लघु उपन्यास और 'शिगाफ़' जैसे चर्चित उपन्यास से साहित्यजगत में बहुत ही कम समय में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी सहज,सरल, सहृदय और विनम्र कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से कहीं ना कहीं कविता-पाठ में अक्सर मुलाकात हो जाती है. कथाकार के साथ-साथ वो एक कुशल गृहिणी, कवयित्री ... और चित्रकार भी हैं.
अक्सर जब भी उनसे फ़ोन पर बात होती तो वो मुझे बहुत ही आत्मीय भाव से अपने घर आमंत्रित करतीं , एक दिन उनसे मिलने उनके घर भी गयी , एक अद्भुत अनुभव था उनसे मिलना , जैसा संवेदनशील उनका लेखन है वैसी ही वो स्वयं भी हैं.

कुछ देर उनके घर उनके साथ समय बिताकर उन्हें बहुत करीब से जानने का मौका मिला, उन्होंने मेरे लिए चाय स्वयं ही बनायीं , चाय बनाते समय वो अपनी मेड की बेटी छुटकनी का जिक्र करते हुए भावुक हो गयीं थी, छुटकनी की कहानी भी 'फर्गुदिया' की जैसी थी .



बालकनी में चाय की चुस्कियों का मज़ा लेते हुए वो अपनी शादी का जिक्र करते हुए बिलकुल छोटी बच्ची सी लग रहीं थी, शादी के पहले मनीषा ने अंशु जी से मजाक में जिक्र किया होगा कि 'मुझे तो बिना सास वाली ही ससुराल चाहिए थी' वो वाकया सुनाते हुए उनके चेहरे पर एक शरारती मुस्कान दौड़ गयी थी लेकिन दूसरे ही पल सासू माँ के ना होने पर शादी के बाद उन्होंने किन कठिनाइयों का सामना किया वो सब याद करके ... अपनी सासू माँ को याद करके उनकी आँखें भीग गयीं थीं.
अभी हाल ही में उनके उपन्यास 'शिगाफ' को 'गीतांजलि लिटरेरी' एवार्ड मिला .
उन्हें स्वयं लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली ... लेखन विधा सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण सुझाव गृहणियों के लिए .. और भी बहुत कुछ है उनसे हुई इस बातचीत में ...




१ . मैं - जब भी आपसे मिलती हूँ , आपकी आँखों को पढ़ती हूँ, आपकी आँखें हर किसी के चेहरे और आँखों की कहानी पढने को आतुर नज़र आतीं हैं. ऐसा है क्या ?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - थोडा मुस्कुराते हुए ..हाँ .. ऐसा है .. यहाँ सदर में मैंने कल एक समोसे वाले को देखा, उसे देखकर मुझे ये लगा कि वो पूरा का पूरा एक कहानी का पात्र है, क्योकि इतने बड़े दिल्ली शहर के छोटे मोहल्ले में हमारी पीढ़ी का होकर भी समोसे बना रहा है और बड़ी लगन से बना रहा है, और उसका लोगों को बड़े प्यार से खिलाना देखकर मुझे लगा कि उसके पीछे भी एक कहानी का पात्र है.
हाँ ..ऐसा है मैं हर व्यक्ति के पीछे की कहानी ढूँढने की कोशिश करती हूँ , मुझे मज़ा आता है, मुझे जो ऊपर दिखता है या दिखाया जाता है उसमें बहुत कम रूचि रहती है, मुझे बर्फ के नीचे के पानी में ज्यादा रूचि रहती है.



२. मैं- आस-पास की घटनाओं और संगी-साथियों से जुडी बातों को लेकर क्या सोते-उठते, खाते-बनाते हर समय कथा-कहानी-उपन्यास का एक खाका मन में तैयार होता रहता है ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - नहीं .. ऐसा तो नहीं है कि हर समय मन में एक खाका तैयार होता रहे .. हाँ एक प्रस्थान बिंदु जब सामने आता है तो जरुर वो प्रस्थान बिंदु मेरे अन्दर रहता है, और जब उसपर चलना होता है, रास्ता चुनना होता है ...तब मैं जरुर उसपर चलती हूँ . हाँ ... जब कुछ लिख रहीं होतीं हूँ तब सोते-उठते हर समय वो मेरे दिमाग में रहता है.



३.मैं- शादी के पहले से लिख रहीं हैं, शादी के बाद ( जाहिर सी बात है ) कुछ समय के लिए लिखना छूटा होगा, एक लम्बे अंतराल के बाद फिर लेखन शुरू करने में किस तरह की दिक्कतें आई ..?
परिवार वालों खासतौर पर अंशु जी ने किस तरह आपका साथ दिया ..? या फिर जैसा कि आमतौर पर होता है " छोडो न यार ये सब करके अब ..क्या करोगी " ऐसा कहकर समझाने की कोशिश की ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - शादी से पहले भी लिखती थी लेकिन पहचान एक छोटे स्तर पर ही मिली थी, आज जो इतनी बड़ी पहचान है वो नहीं बनी थी, हाँ ... शादी के बाद लम्बे अंतराल तक सब छूट गया था लेकिन मैंने मेरे नवजात बच्चों पर ..उनकी मुस्कान पर या प्रतीक्षा पर कविताएँ लिखकर अपनी उँगलियों को मैंने हरकत में रखा .. मैं डायरियां भी लिखती थी ..लेकिन लिखने को मैंने तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक बच्चे स्कूल नहीं जाने लगे, जब वो स्कूल जाने लगे तब मैंने वेबसाइट शुरू की .. वेबसाइट शुरू की तो संपादकीय हमेशा मुझे ही लिखना होता था ... संपादकीय के साथ दोबारा से लिखना शुरू हुआ .


जहां तक अंशु की बात है तो हिंदी की पहली वेबसाइट बनाने में ही जिस व्यक्ति ने मेरा साथ दिया हो .. मुझे कप्यूटर में हिंदी की संभावनाओं की खिड़की ही जिस व्यक्ति ने खोली हो तो वो पीछे कैसे हट सकता है ... उन्होंने मुझसे कभी नहीं ये कहा कि "छोडो न यार" बल्कि वो हमेशा मेरे साथ रहे .



४. मैं- अब तक जितना भी मैंने आपको पढ़ा है उसके अनुसार कह सकतीं हूँ कि आप अपनी कहानियों में महिलापात्र को मर्यादित,संस्कारिक ढंग से पेश करती हैं , कुछ समकालीन लेखिकाएँ संस्कारों और परम्पराओं को तोड़ते हुए बहुत ज्यादा आधुनिक लिख रहीं हैं, पाश्चात्य संस्कृति को फ़ॉलो करती लिव-इन-रिलेशनशिप को कहानियों और फिल्मों में जायज ठहराना कहाँ तक उचित है , परिवार जैसी संस्थाएं वैसे ही टूट रहीं हैं, आने वाली पीढ़ी को ऐसी कहानियों और फिल्मों से क्या संदेश जा रहा है ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - जहां तक मेरी नायिकाओं की बात है .. मर्यादित .. मतलब उन्होंने मर्यादा ओढ़ी हुई नहीं है .. जैसे मेरे मन में एक स्त्री की छवि है या मैं एक सम्पूर्ण स्त्री को देख पाती हूँ ज्यादातर वो नायिकाएँ हैं .. दरअसल नैतिकता और मर्यादा , गरिमा .. इन तीनों चीज़ों को अलग तौर पर देखतीं हूँ .. मर्यादा मेरे लिए ओढ़ी हुई चीज़ नहीं है .. गरिमा मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है ..एक स्त्री की गरिमा क्या है ... नैतिकता के अनैतिक होकर भी एक गरिमा होती है .. संबंधों की अपने आप में एक गरिमा होती है ... तो मेरी नायिकाएँ ओढ़ी हुई मर्यादाएं , नैतिकता नहीं लिए हुए हैं ... लेकिन हाँ .... परिवार संस्था में उनका विश्वास है ... क्योकि मेरा विश्वास है .. मुझे लगता है कि हम इतनी सभ्यताओं और केव्स को पार करके परिवार की इकाई तक पहुंचे हैं तो इस परिवार के होने में कितनी सारी सुरक्षाएं जुडी हैं स्त्री और बच्चों की और स्वयं पुरुष की भी ... मैं इस परिवार की सुरक्षा में पुरुष को अलग नहीं कर सकती ....मैं पाती हूँ कि पुरुष भी घर में आकर परिवार की तरफ लौटकर स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस करता है .



लिव-इन-रिलेशनशिप के बारे में कहना चाहूंगी कि लिव-इन-रिलेशनशिप वापस जंगल में लौटता है , जहां पर एक बाघिन या एक चिड़िया अकेले बच्चे पालती है ... और उसकी मज़बूरी होती है अकेले बच्चे पालना ... आपने देखा होगा कि मादा को अकेले बच्चे पालने होतें हैं और या फिर बंदरों के झुण्ड को भी देखा जाए तो हमेशा उसमें मादाओं के साथ ज्यादती होती है ...उनके बच्चों के साथ ज्यादती होती है .. तो जब हम इतनी जगली सभ्यताएँ पाते थे ... आज हम समाज की अवधारणा तक पहुंचे हैं घर की अवधारणा तक पहुंचे हैं कि एक पुरुष एक स्त्री के लिए है .... तो वापस से हम अकेली क्यों हो जाएँ ...? और हम क्यों अकेले बच्चे पालें .. जब बच्चा पुरुष का और स्त्री दोनों का है ... तो स्त्री अकेले बच्चे क्यों पाले ... ? तो मेरे ख़याल से लिव-इन-रिलेशनशिप में स्त्री की ही हानि है ... स्त्री की गरिमा की हानि है ... कोई लाभ नहीं है .

और इस तरह की कहानियों और फिल्मों का आने वाली पीढ़ी के ऊपर प्रभाव पड़ने से पहले हमें ये देखना होगा कि आने वाली पीढ़ी कितना इन कहानियों को पढ़ती हैं ... और हर बच्चे के पास अपने एक पारिवारिक संस्कार होतें हैं ... अगर वो संस्कार अच्छे हैं तो कहानी और फिल्मों का बच्चों पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है .

मेरे घर में ही बहुत सारी बातों पर हम खुलकर बात करतें हैं ..जैसे मेरे घर में बार या शराब इस तरह खुलेआम होती है ... लेकिन मेरे बच्चों की इसमें कोई रूचि नहीं है .. उनको पता है कि मम्मी पापा सोशियली ड्रिंक करतें हैं .. कहने का मतलब ... सब कुछ संस्कारों पर डिपेंड करता है .

पर हाँ ... इसे एक कहानी की तरह प्रस्तुत करना ठीक है ... कहानी एक वस्तुनिष्ठ चीज़ है ... कि आपने एक ऐसा रख दिया कि ऐसा होता है ... कहानियों में समाधान और संदेश नहीं होते ... कहानियाँ वहाँ पर ख़त्म हो जातीं हैं ... जहां से संदेश शुरू होतें हैं ..जिन कहानियों में संदेश हों .. वो कहानियाँ कहानी नहीं होती .. कहानी को बस कहानी की तरह ही पढ़ा जाना चाहिए .



५. मैं - अक्सर शीर्ष पर बैठे लेखकों की उपलब्धियों के पीछे उनकी मेहनत,लगन और त्याग का जिक्र होता है ... वहीँ लेखिकाओं की उपलब्धियों के बारे में उन्ही शीर्ष पर बैठे लेखकों के कंधों की सीढ़ी का जिक्र किया जाता है ... आज आप स्वयं शीर्ष प़र बैठी लेखिकाओं में से हैं .. कैसा लगता है ऐसा सुनकर ... ?



मनीषा कुलश्रेष्ठ - नहीं ... मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ ..दरअसल जब आपको लोग बार-बार पढतें हैं .. और आपका एक सिग्नेचर स्टाईल होता है और आपकी एक वैचारिकी होती है ... और आप लोगों से बात करतें हैं ...मंच पर बोलतें हैं ... और वैचारिक लेखन करतें हैं .. जब आप वैचारिक लेखन कर रहें होतें हैं ... तो कहीं न कहीं आपने अन्दर की बुद्धिमत्ता को सत्यापित कर रहें होतें हैं ...इसलिए मैं जितनी मेरी लेखिका मित्र हैं .. हम आपस में बात करतें हैं कि स्त्री को वैचारिक लेखन जरुर करना चाहिए ... वैचारिक लेखन के बहाने हमारी बौद्धिकता सामने आती है ...तो फिर हमारे लेखन को कोई ख़ारिज नहीं कर सकता .. मेरे लेखन को किसी ने खारिज नहीं किया ... एक दो बार लोगों ने कोशिश की भी है तो सबको समझ आ गया कि ये झूठ है ... तो ऐसा होता नहीं है कि किसी के लेखन को ख़ारिज किया जाता हो .. अंततः सामने आता ही है ... कोई भी ऐसे ही शीर्ष पर नहीं पहुँच जाता है ... कहीं न कहीं कंसंत्रेंति की जरुरत है .. और जिन लेखिकाओं पर ये आरोप लगता है तो मेरी उनको ये सलाह है कि वो वैचारिक लेखन करें ... मंच पर बोले ... शाश्त्रार्थ करें ... बात करें लोगों से ... लोगों से मिलें ... तो एक सच्चाई सामने आती है .

६.मैं- अक्सर आपसे बात होती है तो आप परिवार,बच्चों और रसोई का जिक्र जरुर करतीं हैं , खाना अब भी स्वयं ही बनातीं हैं..? इतनी व्यस्तता के बाद परिवार के लिए समय कैसे निकाल पातीं हैं ..?



मनीषा कुलश्रेष्ठ - खाना मैं खुद ही बनाती हूँ, हाँ मेड से हेल्प जरुर लेतीं हूँ क्योकि अक्सर मुझे बाहर जाना होता है तो थोड़ी सी हेल्प तो चाहिए ही होती है, खाने में मैं बहुत सारी चीज़ें बनाती हूँ , मुझे रूटीन की सब्जी-रोटी बनाकर खाने का काम निपटाना पसंद नहीं है, मैं बहुत तरह की चीज़ें बनातीं हूँ , और बच्चों की और अंशु की रूचि का बहुत ख़याल रखतीं हूँ , और दाल-बाटी-चूरमा हमारे यहाँ हर संडे को बनता है, शनिवार और रविवार को मैं अंशु और बच्चों के लिए कुछ स्पेशल बनातीं हूँ , मुझे ऐसा करना बहुत अच्छा लगता है .



७.मैं- मुझे आज भी याद है अपने खुद को चैट पर एक "निशाचर लेखिका" कहा था , लिखने का इतना जूनून कहाँ से लातीं हैं.


मनीषा कुलुश्रेष्ठ - निशाचर लेखिका मैंने खुद को इसलिए कहा था कि दिन भर मेरे पास बहुत फोन्स कॉल आतें हैं , दिन भर बच्चों और परिवार में भी व्यस्त रहती हूँ और दिन का समय मैं किताबें पढ़कर बितातीं हूँ और मुझे लगता है कि मैं रात के सन्नाटे में ही लिख सकती हूँ , दूध वाले की घंटी या किसी भी तरह के डिस्टरबेंस में मैं नहीं लिख सकती , मुझे लिखने में एकाग्रता चाहिए वो मुझे रात में ही मिलता है इसलिए मैं रात में जागकर लिखती हूँ ... इसलिए मैंने खुद को "निशाचर लेखिका" कहा .. तो जूनून नहीं है इसमें .. जब मैं लिखती हूँ तो मुझे जूनून आता है तो फिर मैं रात भर जागती हूँ , फिर मेरी बॉडी की क्लॉक है वो बदल जाती है .. दिन में सोती हूँ .. रात में लिखती हूँ ... तो ये जूनून नहीं है .. मेरी मज़बूरी है .. रात में जागकर लिखना.

८.मैं- अभी हाल ही में आपके उपन्यास 'शिगाफ' को 'गीतांजलि लिटरेरी' एवार्ड मिला .. पुरस्कार लेते समय कैसा महसूस करतीं हैं ..?



मनीषा कुलश्रेष्ठ - तात्कालिक तौर पर बहुत अच्छा लगता है पर मैं उस फीलिंग को अपने कन्धों पर ढोकर नहीं चलती , मैं ये नहीं मानकर चलती कि शिगाफ़ अल्टीमेट है या मैंने कोई महान कृति रच दी .. मुझे अगर कभी ऐसा लगेगा तो खुद ही मुझे बहुत दुःख होगा और मैं अपने अन्तरंग साथी अंशु से कहूँगी कि मुझे इस घमंड से नीचे लेकर आओ ताकि मैं आगे बढ़ सकूँ , मैं अपने दोस्तों से भी कहतीं हूँ कि कृति लिख ली .. उसे एवार्ड मिल गए .. उस पर बात हो गयी .. उसे छोड़ दें .. फिर वो बाद में लोगों की हो जाती है .. इसलिए शायद अब मेरे कान शिगाफ़ सुनकर बहुत खुश नहीं होते .. मैं और आगे बढ़ना चाहती हूँ .. क्योकि मैं लेखन में सिर्फ उपलब्धियों के लिए ही नहीं आयीं हूँ .. आत्मसंतुष्टि के लिए भी आयीं हूँ .



९.मैं- कहानी और कथा लेखन के बारे में युवा लेखिकाओं खासतौर पर गृहणियों को कुछ टिप्स दीजिये , गृहिणियां परिवार और अपनी क्रियेटिविटी में कैसे सामंजस्य बैठाये रखें ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - मैं खुद एक गृहिणी हूँ .. मेरी माँ,बहन,ताई सभी वर्किंग और गृहिणियां भी थी .. सभी ने बच्चे भी पाले और अपने पति के घरेलू काम भी अपने कन्धों पर उठाया ...तो जब मैं शादी होकर आई तो मेरे और अंशु दोनों के ही सहमती से हमने ये तय किया कि मुझे नौकरी नहीं करनी है और मुझे ज़िन्दगी का पूरा मज़ा लेना चाहिए .. ऐसा नहीं है कि अंशु ने अकेले घर सँभालने के लिए कभी बाध्य किया .. ये हम दोनों की सहमती से था ... हम नहीं चाहते थे कि बच्चे स्कूल से घर वापस आयें तो उन्हें दरवाजे पर ताला लगा लगा मिले ..क्योकि मुझे हमेशा घर लौटने पर ताला लगा मिला ... मैंने अपने संस्मरण में भी लिखा है कि स्कूल से लौटने के बाद बैग पटककर मैं पूरे चित्तौड़ में नंगे पाँव टहलती थी ... तो बच्चे के साइड पर बहुत असर पड़ता है ... मैं चाहती तो नौकरी कर सकती थी ... दूरदर्शन और आकाशवाणी में मेरे लिए बहुत आप्शन था .. लेकिन बच्चों के लिए मेरा और अंशु दोनों का साझा निर्णय था कि मैं नौकरी नहीं करुँगी.



गृहिणियों के लिए यही कहूँगी कि उनके पास बहुत संवेदनाएं होती हैं ... वो अपने आस-पास के समाज को और उनके अँधेरे कोनो को देख पाती हैं .. वो अपनी नज़र खुली रखें और बहुत सारा समकालीन लेखन पढ़ें ... क्योकि मेरा ये मानना है कि बिना पढ़े तो आप महादेवी से आगे नहीं बढेंगी अगर आप लिखेंगी भी तो कॉलेज का पढ़ा छायावादी ही लिखेंगी .... मैंने देखा है कि बहुत सारी गृहणियां आज भी प्रीतम प्यारे या मैं तुम्हारी मीरा या तू मेरा सूरज .. ऐसा ही लिखती हैं .. तो इसके लिए सबसे पहले उन्हें समकालीन लेखन जरुर पढना चाहिए .

मैं भी शुरू में बहुत घर-गृहस्थी की कहानियाँ ही लिखती थी , मेरा एक सबसे पहला कहानी संग्रह है 'बौनी होती परछाई' .. वो मुझे इसलिए ही ज्यादा पसंद नहीं है क्योकि उसमें बहुत सारी कहानियाँ घरेलू लिखी हैं ... तो जब तक हम समकालीन लेखन नहीं पढेंगें तब तक हम समकालीन लेखन जान नहीं पायेंगें और हम उसकी नब्ज़ नहीं पकड़ पायेंगें .. और हम वही लिखतें रहेंगें जो हमारी कल्पनाओं में है और जो हमने साहित्य के नाम पर कॉलेज में पढ़ा है ... अपने स्टाईल में कुछ नया लिखे .. अपने लेखन में अपनी मौलिकता बनाये रखें .

मनीषा मेरे लिए कहतीं हैं ----जैसा कि शोभा मैंने तुममे ही देखा कि तुम्हारे लेखन में मौलिकता है .. मैं नहीं मानती कि तुमने 'फर्गुदिया' शुरू करने से पहले समकालीन लेखन में कुछ पढ़ा होगा ...? मैंने नहीं में गर्दन हिलाकर जवाब दिया .. उन्होंने कहा " मैंने भी नहीं पढ़ा था .. पर मेरा अपना एक मौलिक लेखन था ... तुम्हारे पास भी एक मौलिकता है .. " तो उस मौलिकता और समकालीन ट्रेंड दोनों को मिलाकर चलतें हैं तो एक अच्छी चीज़ सामने आती है .



१०.मैं- आजकल उपन्यास और आत्मकथाओं पर आधारित किताब प्रकाशित होने से पहले लेखकों की मिलीभगत से किताब पापुलर करने के लिए कंट्रोवर्सी खड़ी की जाती है , उसके बारे में क्या कहेंगी ...?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - मैं उसके विरोध में हूँ ... मैंने देखा है कि किताब अभी आई नहीं होती है और उसकी तीन-तीन समीक्षाएं आ जातीं हैं लोगों की .. तो ये घनेबाजी है ... और मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती ..पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता .. 'शिगाफ़' एक साल तक बक्से में बंद रहा ... लोगों ने पढ़ा भी नहीं .. ना मेरे प्रकाशक ने कुछ किया ... लेकिन धीरे- धीरे शब्द बाहर आये ... नावेल बाहर नहीं आया .. किताब बाहर नहीं आई .. शब्द अपने आप निकलकर बाहर आतें हैं .. तो जो ये किताबें छपने से पहले चर्चाएँ शुरू हो जातीं हैं ... उससे कोई फर्क नहीं पड़ता ... असल कसौटी जो है वो पाठक हैं .. और जब पाठक पढतें हैं तो अपने आप उस किताब का नीर-छीर हो जाता है .. फिर पता चल जाता है कि कौन कितने पानी में है .



११.मैं- लिखने की प्रेरणा कब और किससे मिली ....?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - लिखने की प्रेरणा दो-तीन जगह से मिली .. सबसे पहले तो माँ से ही प्रेरणा मिली .. शिक्षा विभाग राजस्थान की एक पत्रिका निकलती थी 'शिमिरा' .. उसमें मेरी माँ कविताएँ लिखती थी .. वो और भी बहुत कुछ लिखती थी .. मैं छिप-छिपकर उनकी डायरी पढ़ती थी ... उसके बाद बचपन के एक दोस्त से प्रेरणा मिली .. वो बहुत अच्छी कविताएँ लिखता था ... आज वो फिल्मों के लिए लिखता है ..उससे सीखा .
जब मैंने बी.एस सी किया तब भी मैं लिखती रही .. लेकिन जब मैंने हिंदी में एम्.ए करने का निर्णय लिया तब मैं साहित्य से सीधे-सीधे जुड़ गयी .. फिर मैंने दोबारा लिखना शुरू किया ... फिर राजस्थान साहित्य अकादिमी से एक प्रतियोगिता 'नवोदित प्रतिभा' का आयोजन किया गया उसमें मैंने छोटी सी उम्र में देवदासी प्रथा पर एक एकांकी नाटक लिखा .. उसको राजस्थान साहित्य अकादिमी एवार्ड मिला ... उसके बाद चार-पांच साल तक के लिए लेखन छूट गया .


उसके बाद कारगिल युद्ध चल रहा था .. उसके लिए मैंने राजेंद्र जी को एक चिट्ठी लिखी थी कि इधर कारगिल का युद्ध चल रहा है और उधर लोग वर्ल्ड कप को चीयर -अप कर रहें हैं .. कारगिल की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है .. मुफ्त में पेप्सी - कोला बांटे जा रहें हैं ... राजस्थानी दूध वालों ने एक ट्रक भरकर कारगिल भेजा था . .. तो 'किसकी रक्षा के लिए' ये फौजी जान गँवा रहें हैं ...
वो चिट्ठी बीच-बहस में छपी ... उस चिट्ठी को लेकर रोज सौ चिट्ठी मेरे पास आती थी ... तब मुझे लगा की लोगों के ऊपर मेरे शब्द असर करतें हैं ... तब मैंने हिंदी नेस्ट साईट शुरू की .. और लिखना शुरू किया .




१२.मैं- लेखन की दोनों विधाएँ कविता और कहानी में आपको महारथ हासिल है .. कविताएँ छिपाकर क्यों रखती हैं ..? भविष्य में कोई कविता-संग्रह निकलने का भी इरादा है ..?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - जब मैंने शुरू में जब कविताएँ लिखी तो मुझे लगा कि ये मेरी बिलकुल निजी अभिव्यक्ति है .. मेरी व्यक्तिकता से जुडी हुई .. मैंने अपनी कविताओं को छिपाकर तो नहीं रखा .. पर मैंने उनको छपवाया नहीं .. मेरा मानना है कि दो विधाओं का होकर रहने में कहीं कोई कमीं आती है ... जैसे उदय प्रकाश जी दोनों विधाओ में लिखतें हैं ... पर मैं सिर्फ उनकी कहानियाँ ही पढ़ती हूँ.

***********************************************************************************

प्रस्तुति
शोभा मिश्रा

1 comment:

  1. शुरु किया तो पढ़ता ही चला गया
    बहुत सुंदर प्रस्तुति

    ReplyDelete