Sunday, May 12, 2013

'अहा ! ज़िन्दगी ' में प्रकाशित आलेख











रानी बनी भिक्षुणी                                                                                                                      





एक निर्धन,एक रोगी और जीवन का कटु सत्य साक्षात् मृत्यु देखने के बाद सिद्धार्थ को जीवन से विरक्ति हो गयी, पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को निद्रा में छोड़ आत्मज्ञान के लिए गृह त्याग कर दिया, पत्नी और पुत्र से अगाध प्रेम होते हुए भी सिद्धार्थ ने उनका त्याग किया, मन में कई प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है , प्राणी मात्र से प्रेम करने की भावना रखने वाले सिद्धार्थ को घर त्यागते समय अपनी प्राण प्रिय पत्नी और सुकोमल नन्हें पुत्र राहुल से क्या स्नेह नहीं रहा होगा ..? लेकिन अगर दूसरे पक्ष की ओर ध्यान दें तो घर-गृहस्थी और राज-पाट में बंधे सिद्धार्थ का प्रेम एक सीमा में बंधकर रह जाता , सिद्धार्थ के आत्मज्ञान के पश्चात् पूरे भारत वर्ष और विश्व में उनके जिन अनमोल वचनों और उपदेश से जन -समूह को जो ज्ञान प्राप्त हुआ हुआ उससे समाज वंचित रह जाता , सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण की कहानी में यशोधरा का तप और त्याग है, प्रातः काल पति को घर में न पाकर निश्चित रूप से यशोधरा को जो अपार दुःख हुआ होगा उसकी केवल कल्पना की जा सकती है |


"सखि, वे मुझसे कहकर जाते
कह, तो क्या मुझको वे अपनी
पथ-बाधा ही पाते ?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?"


मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपनी कविता के माध्यम से यशोधरा की व्यथा को उजागर किया है , इसे व्यथा कहना उचित न होगा , ये तो उनकी अपने प्रिय से विरह वेदना है , उलाहना है , प्रतिरोध कहीं भी नहीं है , यशोधरा को मलाल ये है कि सिद्धार्थ अगर उन्हें अपनी अर्धांग्नी मानते तो उनसे छिप कर न जाते जाते , वो उनके अध्यात्म और आत्मज्ञान ग्रहण करने का स्वागत करतीं , उन्हें आदरपूर्वक विदा करतीं |


यशोधरा ने स्वयंबर में असंख्य तरुणों में से सिद्धार्थ को ही वर रूप में चुना था, पिता दंडपाणी जानते थे कि सिद्धार्थ को साधू -संतों की संगत प्रिय है , एकांत प्रिय है , उन्हेंयशोधरा का निर्णय स्वीकार नहीं था , दोनों का दांपत्य जीवन सुखी होगा होगा इस बात पर दंडपाणी को संदेह था लेकिन यशोधरा अपने निर्णय पर अटल रहीं |


सिद्धार्थ भी यशोधरा के लिए लक्ष्यभेद प्रतियोगिता में शामिल हुए और सफल भी हुए ,यशोधरा को अपनी जीवन संगिनी के रूप में पाकर आनंदित भी हुए , यशोधरा की मधुर आवाज़, उनकी धीमी हँसी, उनके गहनों की मीठी रुनझुन सिद्धार्थ को सुखद लगती थी |


राहुल के पैदा होने के बाद वो पुत्र मोह में भी थे, अपनी मासी से ये सुनकर बहुत खुश होते थे कि वो भी बचपन में राहुल के जैसे दिखते थे |


लेकिन एक समय ऐसा आया जब सिद्धार्थ ने विश्व -कल्याण का निर्णय लिया , सत्य को तलाशना चाहा , इसके लिए उन्होंने सांसारिक -सुख और भौतिक सुख-शांति का परित्याग करने का निर्णय लिया , उनकी आत्मा विश्व कल्याण के नूतन आनंद के लिए तड़प रही थी, वे विश्व के रहस्यमय संगीत से अपने हृदय को सराबोर कर देना चाहते थे, वे किसी सीमा में बंधकर नहीं रहना चाहते थे, जीवन में निरंतर गति के लिए उन्होंने आत्मदान कर दिया |


सिद्धार्थ को यशोधरा पर विश्वास था कि उनकी अनुपस्थिति में वो पुत्र राहुल और घर -गृहस्थी को संभाल लेगी, और हुआ भी ऐसा ही , यशोधरा को सिद्धार्थ के जाने का दुःख कम नहीं था , उन्होंने उनके विरह और याद में आंसू बहाते हुए पूरे बारह वर्ष गुजार दिए ,लेकिन पुत्र राहुल के पालन-पोषण में कोई कमीं नहीं रखी, उन्हें लोरी गाकर सुलाती, कभी -कभी अबोध राहुल जब माता यशोधरा से पिता के बारे में पूछते तो वो उन्हें दुलार कर समझाती कि वो सत्य की खोज में गएँ हैं , कभी - कभी जब यशोधरा के मन में सिद्धार्थ के लिए असह्य विरह वेदना उठती तो वे क्षुब्ध होकर राहुल के प्रश्नों के उत्तर कुछ इस तरह देती कि - " पुत्र ! जो अपने आपको छोटा समझतें हैं .. जिनके मन में अपनी सत्ता के अस्तित्व के बारे में लघुत्व और हीनत्व बस जाता है ..वे महान की तृष्णा में निकल पडतें हैं .." | पति के विरह में पत्नी की ये पीड़ा स्वाभाविक थी |


सिद्धार्थ के जाने के बाद यशोधरा ने राजमहल में रहकर भी उन्ही की तरह सन्यासी जीवन व्यतीत किया , यशोधरा के पीहर से बार- बार निमंत्रण आया लेकिन यशोधरा नहीं गयी और राजमहल में ही रहकर सिद्धार्थ की बाट जोहती रही |

पति को सन्मुख पाकर पत्नी की स्वाभाविक पीड़ा
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वटवृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुए और वे बोधिसत्व कहलाये , पूरी दुनिया में उनका नाम हुआ , बारह वर्ष उपरांत जब वे कपिलवस्तु लौटे तो उन्हें सामने देखकरयशोधरा के मन में प्रेम का जो सोता दबा हुआ था वो उलाहना और क्रोध बनकर फूट पड़ा ..


स्वागत, स्वागत, हे आर्यपुत्र !
वंदन तेरा! अभिनन्दन तेरा!!
कैसे करूँ मैं तेरी आरती?
रह गयी कहाँ पूजा की थाली?
पधारो ! पधारो ! हे भगवान् !
सबरी की कुटिया के श्रीराम.
मैंने त्याग दिया है वैभव सारा,
हुआ जब से ओझल राम हमारा.


वो रोती रहीं और शिकायतें करती रही, यशोधरा को सिद्धार्थ के घर त्यागने से ज्यादा इस बात का दुःख था कि उन्होंने एक पत्नी होने के नाते उनपर विश्वास नहीं किया और बिना बताये घर छोड़कर चले गए , सिद्धार्थ के सत्य कि खोज में वो बाधक कभी नहीं बनती , वो क्षत्राणी थी , युद्ध के लिए विदा करते समय टीका और तिलक करके भेज सकती थी तो सत्य की खोज के मार्ग में बाधक कैसे बन सकती थी , यशोधरा ने क्षोभ और क्रोध में बहुत सिद्धार्थ से बहुत सवाल किये किन्तु उनके सभी सवाल पर सिद्धार्थ चुप ही रहे, क्रोधित यशोद्धरा ने उनसे ये भी प्रश्न किया कि "जो ज्ञान उन्हें जंगल में जाकर मिला क्या वो यहाँ राजमहल में रहकर प्राप्त नहीं होता .."
सिद्धार्थ उनके प्रश्नों का क्या जवाब देते बस आँखें झुकाकर उनके सभी प्रश्न सुनते रहे, जब उन्होंने यशोधरा के सामने अपना भिक्षा पात्र बढाया तब यशोधरा ने पुत्र राहुल को उनके समक्ष कर दिया और स्वयं भी उनका अनुसरण करते हुए भिक्षुणी बन गयीं |


शोभा मिश्रा





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