अंखियों को मेरी तुम ज्योति कहते थे ..
अश्कों को मेरे तुम मोती कहते थे ..
ढलकने से पहले गालों पर ....
हथेली में इन्हें छिपा लेते थे !
अधरों को,गुलाब की पंखुड़ियां कहते थे ...
जुल्फों को मेरी तुम काली घटायें कहते थे !
कहाँ हो तुम ?
बुझ रही इन् अंखियों की ज्योति ...
लुट रहे इन् अश्कों के मोती ....
गालों से ढलक कर "ये" ...
भिगो रहे तकिये को !
खो गयी इन् अधरों की लाली ....
नहीं घिर रही अब घटा ये काली !
कहाँ हो तुम ?
***** शोभा *****
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