Tuesday, December 6, 2016

गाँव अब पहले जैसा गाँव नहीं रहा ----शोभा मिश्रा

{ lamahi patrika me prakashit aalekh}


गाँव अब पहले जैसा गाँव नहीं रहा
------------------------------------------------



इस बार बहन (मामा जी की बेटी) की शादी में दो दिन के लिए ननिहाल जाना हुआ ! विवाह के बाद पारिवारिक आयोजन या अकस्मात किसी रिश्तेदार की बीमारी –हजारी की खबर मिलने पर ही गाँव जाना हो पाता है !
शादी के पहले हम सभी बहनें और माँ हर साल गर्मी की छुट्टीयो में पंद्रह दिन के लिए गाँव जाते थे ! मैं तो कभी-कभी गर्मी की पूरी छुट्टियां गाँव में नानीजी के घर ही बिताती थी ! दादी जी के गुजरने के बाद उनके घर कम ही मन लगता था ! हर बार की तरह इस बार भी गाँव में बिताया बचपन याद आने लगा ! खासकर गर्मी की छुट्टियां !

जेठ के तपते दिनों में खेल-खिलौनों और परिवार के साथ खूब सारी मस्ती दिल-दिमाग को ठंडक देती थी ! कोयल की कूक और चिड़ियों की चहचहाहट के साथ ब्रह्म मुहूर्त की पावन बेला दस्तक देती ! मैं तो नानी जी के साथ ही सोती थी ! मामाजी को छोड़कर छत पर पूरा परिवार एक साथ सोता था ! पूर्वोत्तर के प्रथम प्रहर का वो अद्भुत अनुभव आज भी मन को एक सात्विक भाव से भर देता है ! उनींदी से भरी पलकें खुलती तो नानी जी बिस्तर पर बैठी हुई शिव भजन और रामचरितमानस की पंक्तियों का धीमे स्वर में पाठ करती दिखती ! सर से आँचल ओढ़कर आँखें बंद करके भजन का जाप करती हुई मग्न नानी जी देवी जैसी लगती ! एक क्षण के लिए आँखें खोलकर धीरे से मैं उनका सूती आँचल अपने हाथ में लेकर फिर से सो जाती ! बिस्तर छोड़ने से पहले लगभग आधे घंटे रोज एकाग्रचित्त मन से नानीजी अपने आप में खोई रहती, साथ में शायद कोई और भी होता था, उनका कोई अपना बहुत करीबी या ईश्वर ! शायद दिवंगत नानाजी को याद करती हो ! नानीजी आज भी नानाजी को बहुत याद करती है ! उनके निस्वार्थ-समर्पित प्रेम के किस्से माँ से भी सुन चुकी थी ! नानाजी को जब पैरालाईसिस का अटैक आया था तब वे काफी चिडचिडे हो गए थे ! बात-बात पर नानीजी को डांट देते थे ! एक बार तो नानीजी से नाराज़ होकर घर के बाहर बने कुँए में कूद गए, नानीजी भी रोती-बिलखती किसी को मदद के लिए पुकारती कुँए में कूद गयी ! कुँए के सोत में उन्हें डूबते- उतराते जिन लोगों ने भी देखा सभी आश्चर्य चकित रह गए थे ! .. क्योकि नानीजी जीवन-मृत्यु से जूझती हुई भी नानाजी का सर अपनी गोद में संभाले हुई थी ! उन्हें सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया था ! आज भी गाँव में सभी बहुत आदर से नानीजी का नानाजी के प्रति प्रेम का उदाहरण देते है ! इसलिए शायद मैं ऐसा महसूस करती थी, कभी उनसे पूछने की हिम्मत नहीं हुई, और पूछने वाली तो शायद बात भी नही थी ! हाँ .. मैं ऐसा महसूस करती थी कि जब वो अध्यात्म में लीन रहती थी तब अकेली नहीं होती थी !
किसी निराकार रूप की मौन भक्ति के बाद उनकी दिनचर्या शुरू होती ! जैसे ही वे बिस्तर से उठती मैं भी उनके साथ उठ जाती, उन्होंने कई बार कहा भी कि अभी तुम कुछ देर और सो लो, मुझे घर के काम निपटाने में देर होगी लेकिन मैं नहीं मानती ! दरअसल गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त देखना मुझे बहुत भाता था , साथ ही नानी जी की पूजा की तैयारी करवाने में भी मेरा बहुत मन लगता ! खासतौर पर पूजा के लिए खूब सारे फूल इकठ्ठा करने के बहाने अपने घर के पीछे के अहाते की छोटी सी बगिया और शाही जी के अहाते की बगिया घूमने में खूब मजा आता था ! कनेर, गुलाब , गुड़हल के साथ-साथ शिव जी पर चढाने के लिए भांग की खूब सारी पत्तियाँ भी तोड़ती थी !
शाही जी गाँव के समृद्ध भूमिहार हैं ! उनका घर ७० के दशक की किसी गाँव की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों के जमींदार की हवेली जैसा है ! मुख्य द्वार के बाहरी हिस्से में पशुओं को बाँधने और लोगों के बैठने के लिए खूब खुली जगह है ! मुख्य द्वार से भीतर जाते ही दाहिनी तरफ बड़ा-सा ओसारा और बायीं तरफ बहुत बड़ा अहाता है, जिसमें आज भी खूब फूल और सब्जियां उगाई जाती हैं !
नानी जी जब तक घर में झाड़ू लगाकर नहाकर मंदिर जाने के लिए तैयार होती तब तक मैं घर के पीछे वाले अहाते और शाही जी के अहाते से फूल और भांग की पत्तियां तोड़कर ले आती थी ! मैं बेंत की बनी पूजा की टोकरी पूरी भरने की फिराक में रहती ! कभी-कभी मीरा दीदी ( शाही जी की छोटी बेटी ) टोक देती कि, "और कितने फूल तोडोगी ? इतने फूल में तो दस लोग पूजा कर लेंगें, फूल पौधों में लगे ही सुन्दर लगतें हैं, हमें जितनी जरुरत हो उतने ही फूल तोडना चाहिए!”
पूजा की तैयारी साढ़े चार बजे के पहले कर लेनी होती थीं क्योकि नानीजी को उजाला होने से पहले पहले गाँव के बाहर पश्चिम उत्तर के कोण पर स्थित मंदिर में पूजा करके वापस घर लौट आना होता था ! ऐसी उनकी कोशिश रहती थी लेकिन कभी-कभी उनके घर लौटने तक उजाला भी हो जाता था ! मैं कभी-कभी नहा लेती थी तो मंदिर के भीतर जाने दिया जाता था नहीं तो जब तक नानी जी पूजा करती मैं वही मंदिर के बाहर खेलती रहती थी ! मंदिर के बाहर कुआं था और एक बेल का पेड़ भी था ! आंवले , आम और बँसवारी से घिरे खूब घने बगीचे में एक किनारे कोने पर स्थित वो छोटा - सा मंदिर आज भी है ! मंदिर में पूजा के लिए पुजारी नहीं थे ! कुछ विशेष अवसर या किसी को कोई अनुष्ठान करवाना होता तो लोग पुजारी से पूजा करवाते थे ! कुछ संभ्रांत परिवारों के बुजुर्ग और महिलाएं-लडकियां ही वहाँ पूजा करने जाती थी ! गाँव में बहु- बेटियां बिना किसी प्रयोजन के घर से बाहर नहीं निकलती थी ! यूँ ही देहरी पर बैठना या गांव-खेत घूमना संभ्रांत परिवारों की बहु-बेटियों के लिए आज भी अच्छा नहीं माना जाता है ! बहुएं उम्रदराज़ हों तो भी पूजा -पाठ के लिए जल्दी भिन्सारे जाकर लौट आना होता है !
आज अगर गांव में महिलाओं की स्थिति कुछ बदली भी है तो बस इतनी कि उँगलियों पर गिने कुछ भूमिहार और ब्राह्मण परिवार की बेटियां गांव से बाहर शहर में जाकर उच्च शिक्षा ले पा रही हैं , घरेलू महिलाएं आज भी चारदीवारी में कैद रहती हैं !


मंदिर से मेला की याद आ गयी ! महाशिवरात्रि के दिन मंदिर पर मेला लगता था ! मेले का ख़ास आकर्षण बैलों की बिक्री होता था ! हम बच्चों को तो मेले में बिकने वाले खिलौने और मिठाइयाँ खूब भाती थी ! मिटटी के बर्तन, फिरकी और बांस की बनी एक गाडी हुआ करती थी जिसमें बंधा धागा खींचने पर टक -टक आवाज़ करती हुई चलती वो गाडी बहुत प्यारी लगती थी ! मिठाइयों में खुरमा,जलेबी,बताशे जो शायद आज पसंद ना आये लेकिन उन दिनों हम ये मिठाइयाँ बड़े चाव से खाते थे !

उन दिनों गाँव में जांत और ढेका-ओखली पर अनाज कूटा-पीसा जाता था , अक्सर मामीजी और उनकी कोई जोड़ीदार जांत पर जतसार गाती हुई कुछ पीसती नज़र आती ! ....! 'ढेका' से कूटने का काम लिया जाता था ! शीशम, आम या यू.के लिप्टस के मोटे तने से बने ढेका का आगे का सिरा मोटा होता था ,जो अनाज कूटने के काम आता था ! पीछे का सिरा पतला होता था जिस पर एक महिला अपने एक पाँव से दवाब देती थी जिससे उसके आगे सिरा उठता-गिरता था ! गिरते-उठते सिरे वाले की जमीन पर किये छोटे गड्ढे में अनाज कुटता था और एक महिला उस अनाज को अपने हाथों से चलाती रहती थी ! अनाज चलाने वाली महिला और पाँव से दवाब देकर ढेका चलाने वाली महिला का आपसी मानसिक संतुलन बहुत सधा हुआ होता था ! हाथ से अनाज चलाने वाली महिला का अनाज चलाने से ध्यान केन्द्रित न होने की स्थिति में हाथ में चोट लगने का डर रहता था !
जांत पर अनाज पीसना बहुत मेहनत का काम होता था इसलिए कुछ पीसते हुए महिलाएं जतसार और दूसरे लोकगीत गाती थी !

पुरबा जे बहेले हना हनी हे देओरे
पछुआ जे बहल अनहार
अंगना मे कुईंया खनाय देहो हे देओरे
बाटी देहो रेशम के डोर् पुरबा
जे बहेले हना हनी हे देओरे
पछुआ जे बहल अनहार
चईत बैसाख के धुपवा बडी तेज
अंगना मे चंदोवा लागाय देहि हे देओरे
जरत नरमियो मोरे गोड
पुरबा जे बहेले हना हनी हे दियोरे
पछुआ जे बहल अनहार

इस गीत में भाभी अपने देवर से निहोरा कर रही है कि..पूर्व दिशा से हवा बहुत तेज बह रही है और पश्चिम की हवा से अँधेरा हो जाता है और दूर से पानी ले आने मे परेशानी होती है , इस साल आँगन में कुआँ खुदवा दो ,और चैत- बैसाख के महिना मे गर्मी बहुत तेज होती है हमारे पाँव जलते हैं, इस साल रेशम की डोरी ल़ा दो और अंगना छवा दो जिससे हम सब आराम से काम कर सके ..!

दैनिक जीवन और लोक गीतों की ये स्मृतियाँ अब गाँव के घरो के आँगन से विलुप्त हो गयी हैं !


जेठ की दोपहर लू और धूप से खूब तपाती थी, गाँव में 12 बजे तक भोजन हो जाता था! बड़े से आँगन में पश्चिम की दीवार से होती हुई धूप पूरे आँगन में बिखर जाती ! भोजन के बाद हम सभी बाहर ओसारे में बैठकर कुछ देर बतियाते ! नानीजी और मामीजी ओसारे के पास वाले बड़े से कमरे में ही बैठती थी ! ओसारे के बाहरी तरफ दो -दो के जोड़े वाली चार जोड़ी खम्हिया है, हम उन दिनों उसी खम्हिया के इर्द-गिर्द घुमरिया खेलते थे ! खम्हिया से ठीक आगे ओसारे से नीचे द्वार पर उतरने के लिए सीढ़ी थी ! सिर्फ दो पायदान की सीढ़ी ! उस पर बैठकर भी हम लोग पांच गोटी और दूसरे खेल खेलते थे !
मामाजी के घर के सामने का हिस्सा गाँव के अन्दर जाने के लिए सड़क का भी काम करती थी ! चौपहिया वाहन तो नहीं , आते-जाते इक्का दुक्का लोग कभी पैदल तो कभी साईकिल पर नज़र आ जाते ! द्वार से होकर आते-जाते राहगीर कभी-कभी रूककर सुस्ताते भी थे ! नानीजी के सामने से कोई भी राहगीर अगर वो सुस्ताने बैठा है तो प्यासा नहीं जाता था ! हालाँकि उनमें से कुछ अजनवी भी होते थे ! उन्हें पानी के साथ कुछ मीठा जरुर दिया जाता ! परिचय.. हालचाल.. किस गाँव से आये हैं .. यहाँ किसके घर जाना है ये सब कुछ बातचीत के दौरान पूछा जाता ! अजनबियों में भी आपस में कितना मेलमिलाप हुआ करता था उन दिनों ! अब तो वहाँ अपनों में भी वो पहले जैसा अपनत्व नहीं रहा !






घर की देहरी के आगे ही कपूरी आम के चार बड़े -घने पेड़ हुआ करते थे जो अब नहीं है ! आस-पास बँसवारी और महुआ के भी पेड़ थे ! हमारा जब भी मन होता उस छोटे से बगीचे में भी खेलते ! कपूरी आम आकार में दूसरे आमो से कुछ बड़े होतें हैं ! कभी-कभी हवा न चलने पर भी पके आम अपने आप टूटकर गिर जाते थे ! सन्नाटे में आम गिरने की आवाज़ की दिशा में हम सभी बच्चे दौड़ पड़ते ! जिसके हाथ आम लगता था वही उस पर अपना अधिकार ज़माने की कोशिश करता लेकिन आखिर में सभी बच्चे मिल -बांटकर आम खाते थे ! घर में आम की कमी नहीं थी लेकिन पेड़ से गिरे आम के लिए हम सभी खूब झगड़ते ! जून के पहले या दूसरे हफ्ते तक पहली बारिश हो जाती थी ! पेड़ पर एक भी आम पक जाए तो मामाजी और नानीजी कहते कि, “अब आम लग गया है !” 'आम लग जाना ' का मतलब होता था कि आम पकने की शुरुआत हो चुकी है ! उसके बाद तो हम सभी आम तोड़कर अलग- अलग बोखारों में अनाज में दबाकर रख देते थे ! एक -दो दिन में आम पक जाते, अपने-अपने हिस्से के आम लेकर हम सभी खूब चाव से खाते थे ! शरारत में हम सभी एक दूसरे का आम चुरा भी लेते ! इस बात को लेकर आपस में खूब झगड़ा होता ! रोना- धोना भी ! बड़ो के बीच-बचाव करने और समझाने पर मामला शांत होता था !

दोपहर में हमें डांट कर सुलाया जाता , खेलने की धुन में हमें नींद नहीं आती थी ! लू लगने का डर और बीमार पड़ने का डर देकर हमें सुलाया जाता ! ओसारे के दोनों छोर पर छोटे -छोटे कमरे थे , उन्ही में हमे सुलाया जाता ! नानीजी थोड़ी-थोड़ी देर में हमें पंखा झलकर हवा करती रहती !


सूर्यास्त के बाद शाम को छत पर हम सभी खूब धमाचौकड़ी करते ! रात को नीचे हैण्डपंप से पानी लाकर छत पर सोने वाली जगह को ठंडा करने के लिए खूब भिगोते ! कभी-कभी नानीजी भी हमारा साथ देती थी ! .. हाँ .. इससे पहले मैं छत के पश्चिमी किनारे पर बैठकर डूबता हुआ सूरज जरुर देखती थी ! अपने छोटे से गाँव के बाहर दूर तक नज़र आते खेतों के उस पार नज़र आते बगीचे से ढंके गाँव के पीछे दिन को विदाई देता सूरज बेहद खूबसूरत नज़र आता था ! नूरानी आभा से नहाया क्षितिज़.. अपने घोंसलों में लौटते पंक्षीयों से सजे क्षितिज की रौनक देखते ही बनती !
पश्चिम-घर की दीवार से और आँगन के बाद पूरब-घर की दीवार से होती हुई धूप पूरब की दिशा की ओर जाती हुई हमसे विदा ले लेती थी और सूरज पश्चिम की ओर दूर गाँव की ओट में धरा की गोद में समां जाता था ! शाम होते ही नानीजी और मामीजी कितने इत्मिनान से दिया-बाती की तैयारी करती थी ! आराम से पीढ़े पर बैठकर लालटेन का शीशा साफ़ करती थी और ढिबरी में तेल भरकर उसकी बाती ठीक करती थी ! लालटेन जलाने के बाद पूरे घर के कमरों में दिया दिखाना होता था ! ये काम करने में मैं आगे रहती थी ! घारी और गोहरा-घर में बहुत अँधेरा होता था .. दिया दिखाने में डर लगता था लेकिन एक किनारे से लालटेन लहराकर दिया दिखाकर भाग आती थी ।
रात में आँगन में नानीजी और मामीजी जब काम करती थी तब ढिबरी या लालटेन की रौशनी में दीवार पर उनकी कभी बड़ी कभी छोटी कभी टेढ़ी-मेढ़ी छाया देखकर मुझे बहुत मज़ा आता था .. रात को सोने से पहले हम सभी रामवृक्ष से कहानी जरुर सुनते थे ! बेलवती-कन्या, सूत का घोडा और राजा -रानी की कहानियाँ हमें उनींदी के उड़नखटोले में बैठाकर किसी दूसरे लोक ले जाती थी !

उन दिनों अपने कीमती गहनों को चोरो से छिपाने की नानीजी की तरकीब और उनकी मासूमियत भरी सूझ-बूझ याद करके आज भी मुस्कुरा उठती हूँ ! छत के ऊपर बनी एक कोठरी की दीवारों पर प्लास्टर नहीं हुआ था, उन्ही दीवारों की कुछ ईंटें निकालकर नानीजी उसमें नर्म सूती कपड़ों में लपेटकर अपने गहने रखकर उस पर दोबारा ईंट फिट कर देती थी !


उन दिनों आँगन और ओसारे में दीवारों के झरोखों में गौरैया घोसले बनाती थी ! आँगन में गौरैया और उनकी चहक से खूब रौनक रहती थी ! उनके घोसलों से उनके चूजों की भी धीमी चहक सुनाई देती थी ! मैं कभी-कभी गौरैया को पकड़ लेती और उसे रंगकर उड़ा देती थी ! आँगन में अपने हाथों से रंगी रंगीन चिरईया फुदकते देख बहुत अच्छा लगता !



गाँव के कुछ समृद्ध घरो में उन दिनों वाहन के नाम पर ट्रैक्टर , जीप और मोटर साईकिल हुआ करती थी ! अनाज और बोझा ढोने के अलावा बैलगाड़ी का इस्तेमाल एक गाँव से दूसरे गाँव आने-जाने के लिए वाहन के रूप में किया जाता था !
मुझे आज भी याद है, बैलगाड़ी में विदा होती दुल्हन का विलाप ! तिरपाल से पूरी ढंकी हुई बैलगाड़ी से रोती-बिलखती दुल्हन की आवाज़ आ रही थी ! नानीजी ने ही बताया कि इसमें दुल्हन विदा होकर जा रही है !





उन दिनों मेरी उम्र शायद आठ नौ वर्ष की रही होगी ! गाँव भर के पशुओं को (जिनमें गाय अधिक होती थी ) चराने के लिए चरवाहे गाँव के बाहर खेत-खलिहानों में ले जाते थे ! नानीजी मेरी रूचि के अनुसार छत पर खड़े होकर उत्तर दिशा की ओर से पशुओं के आता देखने की जिम्मेदारी देती थी ! हमारे घर के पीछे से उत्तर दिशा की ओर फूस और खपरैल से छाये कच्चे घरों के सामने से होती हुई गाँव के भीतर जाती एक कच्ची पगडण्डी भूमिहार परिवार के एक बड़े हवेलीनुमा घर के कोने की ओट से दिखना बंद हो जाती थी ! सुबह जब चरवाहे पशुओं को चराने के लिए गाँव से बाहर ले जाते थे तो उसी ओट से पहले धूल उड़ती नज़र आती , उसके बाद जैसे ही एक - दो गाय आती हुई नज़र आती तो मैं भागकर नानीजी को आवाज़ लगाती, "ए नानी ! गइया आ गईं !" नानीजी कभी रामवृक्ष को आस-पास देखती तो उन्हें गाय खोलने के लिए कहती , अगर रामवृक्ष नज़र नहीं आते तब मुझे कहती कि "देखो रामवृक्ष कहाँ हैं .. उनसे गइया खोलने के लिए कहो !"
गाँव भर के लगभग दो-तीन सौ पशु जिनमें गाय-भैंस-बकरी शामिल होती थी , रंभाती झूमती गाँव से बाहर चरने के लिए जाती थीं ! उनकी आवाज़ सुनकर ही उत्साह से हमारी गाय उछाड़ भरने लगती ! अगर थोड़ी सी भी देर हो जाए पगहा खोलने में तो जोर-जोर से रंभाकर हम सभी को पुकारने लगती ! पगहा खोलते ही रोज की तरह दक्खिन दिशा की तरफ चरने जाने वाले पशुओं की भीड़ में भागकर शामिल हो जाती ! छत के एक कोने से मैं तब तक उन्हें जाता हुआ देखती रहती जब तक वो सारे पशु मेरी आँखों से ओझल नहीं हो जाते ! शाम को मैं छत से दक्खिन दिशा की ओर देखती अपनी गईया का इंतज़ार करती ! जैसे ही दूर से सारे पशु गाँव की तरफ आते नज़र आते ,मैं भागकर घर के पीछे कच्ची पगडण्डी पर खड़ी होकर पशुओं में अपनी गाय को ढूंढती, ढूंढना क्या .. वो तो अपना घर पहचानती थी और मुझे देखकर तो महारानी मटकती हुई (ऐसा मुझे लगता था) मेरी तरफ ही चली आती थी ! धीमी गति से दौड़ती हुई हमारी गइया घर की तरफ चल पड़ती और मैं उसके पीछे-पीछे !

आज उन दिनों को याद करती हूँ तो सोचती हूँ उन दिनों पत्र-व्यवहार के माध्यम से घर-परिवार की बातें होती थी तब पत्रों में घर में पाले गए पशुओं का भी जिक्र होता था ! जैसे - आजकल गईया गाभिन है, बैल बीमार हैं, गइया को बछिया या बछड़ा हुआ है .. इत्यादि ! बछड़े के जन्म पर घर में सभी ज्यादा खुश होते थे क्योकि बछड़े बड़े होकर बैल के रूप में खेत जोतने के काम आते थे ! मुझे आज भी याद है, मामाजी ने किसी पत्र में ही हमारी गइया को बछड़ा होने की खबर दी थी ! उस खबर से मैं कितनी खुश हुई थी ! कैसे कहूँ ! मैं बेसब्री से गर्मियों की छुट्टी का इंतज़ार करने लगी ! .. और जब गर्मी की छुट्टियों में गाँव गई तब नन्हे बछड़े को देखकर मैं निहाल हो उठी और बछड़े के प्रति मेरा ऐसा निश्छल स्नेह देखकर मामाजी-मामीजी - नानीजी मेरी माँ सभी मुझे देखकर निहाल होते रहते ! अपने हाथ से खुरपी से घर के सामने के बगीचे से घास काटकर बछड़े को खिलाती थी, बार-बार बछड़े का चेहरा अंकवार में भरकर चूमती थी ! कभी-कभी बछड़े की आँखों से पानी जैसा कुछ बहता हुआ देखकर नानीजी से बार-बार यही पूछती कि, "ये रो क्यों रहा है?? इसे कोई परेशानी होगी, इसे कहीं दर्द तो नहीं हो रहा ? “



स्त्री संघर्ष की कहानी कहता एक भूमिहार परिवार
--------------------------------------------------------------

इस बार जब बहन (मामाजी की बेटी)की शादी में गाँव गई तो शाही जी के घर जाने का मन नहीं हुआ क्योकि माँ से शाही जी की पहली पत्नी के देहांत की दुखद खबर सुन चुकी थी ! शादी-ब्याह वाले घर में व्यस्तता तो थी ही लेकिन उनके घर जाने की इक्षा होने के बाद भी मन का एक कोना बार-बार हाथ पकड़कर रोक ले रहा था !
पिछली बार उनके घर गई थी तो घर के बाहर वाले कमरे में वे शाही जी के पीठ की मालिश कर रही थी ! उन्हें ऐसी हालत में देखना बहुत अजीब लगा था ! लगभग चौरासी वर्ष के शाही जी तख़्त पर बैठे थे और मामीजी अपनी झुकी हुई कमर सँभालते हुए उनकी सेवा में लीन थी ! माँ से और नानी जी से पहले ही सुन चुकी थी कि मामी जी ( शाही जी की पत्नी ) उम्र में उनसे बड़ी हैं ! फिर कैसे उनकी सेवा कर रही हैं? क्या वे शारीरिक रूप से क्षीण नहीं हुई हैं ? बहुत सारे प्रश्न एक साथ मन में उठे लेकिन मैं चुप ही रही !
शाही जी ने मुझे पहचान लिया था और मामीजी से भी मेरा परिचय करवा दिया था लेकिन उम्र के उस पड़ाव पर कम सुनाई देने की वजह से और नज़र कमजोर होने की वजह से वे शायद न तो शाही जी की बात सुन पाई न ही मुझे ठीक से पहचान पाई ! लगभग दो घंटे मैं उनके घर रुकी थी ! बाहर के कमरे से आकर मैं घर के भीतर छोटी भाभी के कमरे में बैठ गई ! भाभियों और उनके बच्चों के साथ बहुत देर तक खूब सारी बातें हुई ! कुछ देर बाद मामीजी भी भीतर आ गई, उनके साथ-साथ मामीजी जी भी मुझसे ना जाने क्या-क्या बतियाती रही ! उनका कहा कुछ समझ आ रहा था कुछ नहीं भी !... लेकिन अपने हाव-भाव से उन्हें मैं यही जता रही थी कि मैं उन्हें बहुत ध्यान से सुन रही हूँ ! उनकी ज्यादातर बातें उनके अपने ख़राब स्वास्थ्य के सन्दर्भ में थी ! भाभियाँ भरसक प्रयास कर रही थी कि मामीजी चुप हो जाएँ या बाहर चली जाएँ लेकिन मैं उनकी ढेर सारी बातें उत्सुकता से सुन रही थी और समझने की कोशिश भी कर रही थी !
मामीजी के व्यवहार में मैं अपने लिए कुछ अधूरा महसूस कर रही थी, इतने साल बाद मिलने पर भी उनके व्यवहार-बातों में मेरे लिए पहले जैसा स्नेह नहीं था !.. लेकिन मैं यही सोचकर खुद को तसल्ली देती रही कि उम्र के आखिरी पड़ाव में जब वो अपने स्वास्थ्य से ही इतनी दुखी हैं तो अपनों के प्रति प्रेम कहाँ तक संभालकर रख पाएंगी !
जब मैं उनके घर से लौटने लगी तब तक बड़े भैया ( शाही जी के बड़े बेटे) भी आ चुके थे !
मामीजी किसी तरह द्वार तक मुझे विदा करने आई ! ना जाने क्यों भैया ने मामीजी से पूछ लिया ..
" चिन्हताड़ू , के हई ?" ( पहचान रही हो, ये कौन है?") "नाही ए बाबू, गाँव -टोला में केहू की रिश्तेदारी में आईल होइहें!"
"बड़की बुआ के माझिल हई, मणि बाबा के घरे से!" भैया मामीजी के कान के नजदीक जाकर थोडा ऊँची आवाज़ में बोले ! ये सुनते ही उन्होंने मेरे दोनों हाथों को पकड़कर अपने पास खींच लिया ! मेरे चेहरे को अपने कांपते हाथों से सहलाने लगी और सबसे शिकायत करने लगी कि किसी ने उन्हें बताया क्यों नहीं ! मुझे गले से लगाकर बबुनी बबुनी कहकर रो पड़ी ! भारी मन से मैं उन्हें रोता हुआ छोड़कर लौट आई थी !


Top of Form




Bottom of Form

कैसे जाती उस घर में जहाँ मामीजी से जुड़ी इतनी सारी यादें थी और वही नहीं रही ! माँ से उनके निजी जीवन के बारे में कितना कुछ सुन चुकी थी, पति से मिली मानसिक और शारीरिक पीड़ा वो सबसे छुपाती थी ! लेकिन गाँव की कुछ अपनी बहुत करीबी महिलाओं से अपनी व्यथा कभी कभी कह देती थी !
मेरी माँ उन्हें भाभी कहती थी, ननद - भौजाई का रिश्ता तो वैसे भी सहेलियों या माँ-बेटी की तरह ही होता है ! माँ से वो अपना सारा दुःख साझा करती थी ! माँ बताती हैं कि शाही जी की दो पत्नियां थी और दोनों सगी बहने थी ! भूमिहार परिवार के मुखिया अपने घर की बहु-बेटियों को तो सात परदे में छिपाकर रखते थे लेकिन उनका अपना चरित्र बहुत ही गन्दा था ! धर्म की कट्टरता, उंच-नीच का भेदभाव सब कुछ उनके लिए दिखावे की बातें थी ! रात के अँधेरे में उनका मनचला मन सारे भेदभाव भूल जाता था !
गाँव के एक किनारे रहने वाले नट जाती की एक लड़की नाजिबिया पर वो रीझ गए थे ! कोई भी पत्नी ये कभी सहन नहीं करेगी कि उसका पति किसी और महिला के प्रति आकर्षित हो ! नजिबिया से मिलने से मना करने पर शाही जी मामी जी से खूब झगड़ते थे ! एक बार तो खाना खाते समय ही मामीजी ने उनसे नजिबिया से दूर रहने के लिए समझाया, इससे परिवार और समाज में उनका सम्मान घटेगा, इसका हवाला भी दिया !... लेकिन अपने खिलाफ ऐसी बातें सुनकर वे आगबबूला हो गए और बैठने वाले पाटे से मामीजी को मारा ! ये बातें तो मामीजी ने माँ से साझा की थी , उन्होंने ना जाने कितनी विपदा अपने भीतर दबाये रखी होंगी ! माँ कहती हैं उस घटना के बाद शाही जी मामीजी से अलग रहने लगे ! एक ही घर में रहते हुए मामीजी से कभी बात नहीं करते थे !
इतना ही नहीं उन्होंने दूसरी शादी का फैसला भी कर लिया और अपना फैसला अपने पिता को भी सुना दिया ! उन दिनों मामीजी की मनः स्थिति क्या रही होगी उसकी कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं ! घर के सदस्यों और रिश्तेदारों ने शाही जी को खूब समझाया लेकिन वे जिद पर अड़े रहे ! अंततः दूसरा कोई विकल्प न पाकर मामीजी के पिता जी ने शाही जी के सामने अपनी ही दूसरी बेटी से शादी करने के लिए निवेदन किया ! उन्होंने सोचा होगा कि अपनी ही दूसरी बेटी से शादी होने से उनकी बड़ी बेटी का घर उजड़ने से बच जायेगा ! मामीजी की छोटी बहन भी सुन्दर थी इसलिए किसी तरह बहुत मान-मनुहार के बाद वे मान गए ! .. लेकिन सगी बहन होते हुए भी मामीजी की छोटी बहन उन से डाह रखे लगी ! दूसरी शादी के कुछ सालों बाद परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि शाही जी का व्यवहार बड़ी मामीजी के प्रति कुछ विनम्र रहने लगा लेकिन छोटी मामी भरसक प्रयास करती कि शाही जी बड़ी मामीजी से दूर रहें ! कुल मिलाकर मामीजी का जीवन बहुत संघर्ष भरा रहा ! छोटी मामी के सर में चोट लगने के वजह से उनकी अकस्मात् मृत्यु हो गयी ! अपने जीवनकाल के अंत समय तक जब तक बड़ी मामी जीवित रही शाही जी की सेवा करती रही !

माँ एक बार की घटना याद करते हुए बताती है कि एक बार वे शाही जी के घर गई तो वे आँगन में नहा रहे थे और मामीजी नहाने में उनकी मदद कर रही थी ! अकेले में माँ ने उनसे ऐसे ही पहले की बातों को याद करतेहुए कहा, भाभी, 'आखिर पुरनके चौरा पंथ पड़ल !' ( आखिर आप ही उनके काम आई ) मामीजी बोली, ' हमके उजाड़ के.. ए बाबू !'




यही सब वजह थी शाही जी के घर ना जाने की ! इस बार बड़ी मामीजी बहुत याद आई !.. गर्मी की छुट्टियों में गाँव जाने पर जब हम सभी उनके घर जाते तो हमें उनका कितना स्नेह मिलता था ! गोइंठे पर मिट्टी की बटुली में खूब औटाये हुए दूध की दही हमें खिलाती थी ! मिठाई , अपने पेड़ों के आम हमें खिलाती थी ! खाने से मना करने पर बहुत स्नेह से दुलार कर खाने के लिए आग्रह करती ! इस बार गाँव जाने पर वो बहुत याद आई !



उन दिनों के गाँव की छवि की यादों के धागे में शब्द रुपी भाव पिरोना संभव नहीं है ! अब मेरा गाँव पहले जैसा गाँव नहीं रहा ! घरों में अब दुधारू पशु नहीं हैं ! उन दिनों हफ्ते में दो दिन गोसाई में चूल्हा जलता था, पूरे गाँव की महिलाएं और बच्चे वहाँ भूजा भुजवाने के लिए इकट्ठे होते थे, गोसाई में भूजे की खुशबू के साथ मेले जैसा माहौल रहता था ! घर के सामने के कपूरी आम के पेड़ कुछ तो आंधी में गिर गए कुछ काट दिए गए !
हाँ वहाँ जाने पर नानीजी मेरे बचपन के किस्से सुनाकर मुझे मेरे बचपन में ले जाती हैं !
कैसे मैं उनकी पूजा की तैयारी करवाती थी ......! मुझे खाने में क्या-क्या पसंद था ..! छोटी-छोटी बातों पर मैं कैसे रूठ जाया करती थी ...!
क्या-क्या याद करें ? अब तो अपने गाँव के लिए यही दुआ करती हूँ कि मेरा गाँव खूब समृद्ध हो ..! खुशहाल हो ! आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ गाँव .. गाँव ही बना रहे ..! वहाँ मनुष्यता बची रहे ...! दुधारू पशुओं और पंक्षियों के कलरव से वहाँ की रौनक बनी रहे ..!
... मेरा प्यारा गाँव !

- शोभा मिश्रा , ०४.०६.२०१४

परिचय
---------
नाम - शोभा मिश्रा
जन्म ,शिक्षा - कानपुर यूनिवर्सिटी से स्नातक
व्यवसाय- गृहिणी, ब्लॉगर, लेखिका
प्रकाशित- जनसत्ता, अहा ! ज़िन्दगी, हंस, दूसरी परंपरा,सृजनलोक -गाथा, जागोरी, और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लोग्स पर कवितायेँ , आलेख और विचार प्रकाशित , आकाशवाणी के आल इण्डिया रेडिओ पर एकल कहानी-पाठ
निवास- दिल्ली
संस्थापक और संचालिका फरगुदिया समूह







No comments:

Post a Comment