"चलो, लौट चलें.."
फिर बीता
एक, उदास, ऊंघता हुआ दिन
सदियों सी सरकती
.. घड़ी की सुई की एक टिक
वक़्त यूँ ठहरा
फिर बीता
एक, उदास, ऊंघता हुआ दिन
सदियों सी सरकती
.. घड़ी की सुई की एक टिक
वक़्त यूँ ठहरा
मकड़ी के जालों में फंसी
.. मजबूर मक्खी जैसे
थमीं साँसें एक याचक सी
धीरे से कहतीं हैं
चलो .. लौट चलें फिर
उसी पुराने अध्याय में
जहां .. अक्षर अक्षर
हम तुम
मुस्कुराते थे उजले पन्नों में
वक़्त को जैसे ...
पंख लग जाते थे ..
(शोभा)
११/८/१२
.. मजबूर मक्खी जैसे
थमीं साँसें एक याचक सी
धीरे से कहतीं हैं
चलो .. लौट चलें फिर
उसी पुराने अध्याय में
जहां .. अक्षर अक्षर
हम तुम
मुस्कुराते थे उजले पन्नों में
वक़्त को जैसे ...
पंख लग जाते थे ..
(शोभा)
११/८/१२
शोभा जी, आपकी इन पंक्तियों में जीने के आस्वाद का गहरा अहसास है | समय और संबधों को नया जीवन और ऊर्जा देने वाली आपकी इन काव्य-पंक्तियों में प्रकट हुई अभिव्यक्ति हमारी संवेदन सम्पदा में वृद्धि करती है |
ReplyDeletekhubsurat yaade jinme baar-baare dubne ko dil karta hai.....
ReplyDeleteबेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना
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