Tuesday, December 6, 2016

अन्हियारे तलछट में चमका- उपन्यास समीक्षा - शोभा मिश्र

अन्हियारे तलछट में चमका-अल्पना मिश्र

25 March 2014 at 12:02
"यह हेम मृग स्त्री की देह है ! स्वर्ण देह ! जिसका शिकार किया जाना है ! उसके मन को जीत न पाने की बारम्बार असफलता के बावजूद ! इसी देह की दुर्गति करनी है,चाहे सद्गति के नाम पर या किसी और के नाम पर ! वध के लिए कब्जायी गयी देह का मन अलग जा पड़ता है ! यह पाना सम्पूर्ण पाना नहीं रह जाता ! आत्मा से छिटकी देह किसी खाली बटुली सी, किसी खाली गगरे सी टनकती रहती है ! उसमें से जीवन संगीत नहीं फूटता ! असम्भव है कि उसमें जीवन के राग-रंग जीवन जैसे खनके !"

कुछ दिन पहले कथाकार अल्पना मिश्र जी का पहला उपन्यास "अन्हियारे तलछट में चमका" पढ़कर ख़त्म किया ! समाज में स्त्री की स्थिति को लेकर मन में बहुत सारे प्रश्न एक साथ उठे ! - क्या आज भी हमारे भारतीय समाज में पुरुष की नज़रों में स्त्री सिर्फ "देह" भर है ? - पुरुष के बिना स्त्री का अपना कोई अस्तित्व नहीं ? - निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की अधिकतर स्त्रियां आज भी पुरुष प्रताड़ना के जख्म अपने तक ही सीमित रखने के लिए मजबूर क्यों हैं ?
शिक्षित हो या अशिक्षित, स्त्रियों के अपने कुछ निजी संघर्षों का रूप आज भी हमारे समाज में एक जैसा ही है, चारदीवारी में मानसिक- शारीरिक हिंसा से जूझती स्त्रियों की यंत्रणा को उपन्यास में लेखिका ने बखूबी उकेरा है !निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की बिट्टो उन्यास की मुख्य पात्र है ! शिक्षित बिट्टो समाज की निगाह में एक शिक्षित और आधुनिक स्त्री है इसके विपरीत घर के भीतर अपनों से उसके संघर्ष को देखते हुए आधुनिक समाज का दोहरा व्यक्तित्व साफ़ नज़र आता है ! बिट्टो अपने जीवन में पहली बार रिश्तों की लड़ाई हार जाने के बाद दोबारा शचीन्द्र के साथ अपना जीवन शुरू करती है, लेकिन वहां भी अंततः एक पुरुष के अपनी पौरुष क्षमता के आंकलन का माध्यम मात्र भर बनकर रह जाती है ! अशिक्षित मुन्ना- बो (सुमन ) मौसी.. ननकी महिलापात्रों के निजी संघर्ष का मार्मिक चित्रण लेखिका ने जिस तरह किया है उसे पढ़ते हुए कभी-कभी पीड़ित पात्रो और पाठक के मध्य का अंतर ख़त्म होता हुआ सा महसूस हुआ !
शचीन्द्र, मुन्ना भैया, गिरधारी, दामोदर उपन्यास के मुख्य पुरुष पात्र हैं ! शिक्षित- आधुनिक शचीन्द्र हों या अशिक्षित मुन्ना भैया हो या अधेड़ गिरिधारी चाचा हों स्त्रियों को महज देह मात्र समझतें हैं, स्त्री  उनके लिए घर के भीतर महज आत्मिक संतुष्टि का माध्यम है तो दूसरी तरफ समाज में अपना वर्चस्व बनाये रखने और अपनी अहम् की रक्षा में मोहरे की तरह है !पात्रों के मध्य हुए संवाद पढ़ते-पढ़ते अचानक रूककर दोबारा पढ़ने-समझने पर मजबूर करतें हैं और कभी-कभी दुःख की अथाह पीड़ा और असमंजस की स्थिति में छोड़ जातें हैं, उपन्यास के कुछ मार्मिक अंश स्त्री की शारीरिक- मानसिक आघात का वर्णन करतें हैं -
"नहीं, मेरी आँखों से एक भी मोती नहीं टपकेगा ! नहीं रोउंगी मैं ! नहीं ! जीऊँगी मैं ! नहीं करुँगी, जो मैं नहीं चाहती ! मैं उठकर बैठ गयी हूँ !"मुझसे नहीं हो सकेगा !" मैंने अपनी तरह की निरीहता में कहा है ! आखिरी प्रार्थना की तरह !"शचीन्द्र के वहशीपन से बचने के लिए रात में ही बिट्टो अपनी सहेली सुरभि के घर चली जाती है ! लेकिन शचीन्द्र वहाँ जाकर जिस तरह भावुक होकर बिट्टो के आगे मान-मनुहार करतें हैं उसे देखकर सुरभि बिट्टो को ही समझाती है और वापस उसके साथ जाने को कहती है ! वापस घर आकर शचीन्द्र फिर वही फ्रस्टेशन उग्र रूप में बिट्टो पर निकालते हैं !  "क्या समझ रही हो अपने को ? हाँ ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्ज़ी बोलोगी ? हाँ ! मैं कुछ नहीं हूँ न ! यही साबित करना चाहती हो !" तुम तैश में खुद को भूल गए हो ! एक साथ मुझे हिलाते हुए, ना जाने कितने झापड़ - घूंसे- लात जमा रहे हो ! मैं बैठी हूँ ,गिरती हुई, रोकती हुई ..."
स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में देह से परे बिट्टो अपने पति से एक दोस्ताना व्यवहार की कामना रखती है ! पति द्वारा शारीरिक- मानसिक-शाब्दिक हिंसा की शिकार बिट्टो का एकांत में खुद से संवाद उसकी मनः स्थिति का मार्मिक वर्णन है !
" यही, इतना भर तो जीवन नहीं होता ! तुम्हें समझा नहीं पाती हूँ ! ठीक है मैंने कहा था कि तुम मुझे संपूर्णता में चाहिए ! पर यही इतना भर छूट जाए तो ..... देह के पार भी चाह लेती तुम्हें ! पर तुम ! तुम हो कि इस देह के पार जाना ही नहीं चाहते ! यहीं अटक गए हो ! यहीं साबित करना है तुम्हें अपने आप को !"
 किसी भी तरह की प्रताड़ना जब बर्दाश्त की सीमा से बाहर होती है तब विरोध तो स्वाभाविक ही है ! बिट्टो,मुन्ना-बो, मौसी, ननकी अपने निजी संघर्षों की लड़ाई स्वयं लड़ती हैं और अंततः ननकी को छोड़कर  सभी के जीवन का एक बुरा अध्याय ख़त्म होता है ! CHAPTER CLOSED होने के साथ ही उनके जीवन को एक नयी दिशा मिलती है जिसमें सिर्फ 'वो' हैं और 'उनके' सपने !
"भोर का हल्का सा फूटता उजास कैसे मेरी खिड़की को बेधता चला आया है मेरे कमरे के फर्श तक ! कितने अर्से बाद देख रही हूँ भोर का होना, भोर का आना, भोर का छू जाना .......सचमुच एक नया दिन ! बिलकुल नया दिन देख रही हूँ ! उगता, बनता, फैलता नया दिन !"उपन्यास में घर-परिवार में घुटती स्त्रियों के संघर्षमय जीवन की व्यथा का सजीव,मार्मिक चित्रण है ! राजनीती हो या शिक्षा तंत्र की लचर व्यवस्था सभी पहलुओं का लेखिका ने उपन्यास में बखूबी चित्रण किया है ! "विद्या का मंदिर उर्फ़ लिखा जाना एक निबंध का" शीर्षक से सम्बंधित उपन्यास के इस खंड में पूर्वी उत्तरप्रदेश में शिक्षा व्यवस्था की गम्भीर खामियों का उल्लेख है !
सबसे अधिक प्रभाविक करतें हैं उपन्यास के स्त्री पात्रों के पुरुषों से संघर्ष और बिना किसी शोर - शराबे के खुद उससे लड़कर बाहर आने की प्रक्रिया ! आज के मंचीय और लेखकीय स्त्री-विमर्श के नारेवाजी वाले रूप को देखते हुए सही मायने में अपने लिए स्वतंत्रता का मार्ग चुनने वाली इन स्त्रियों के प्रतिकार का लेखिका ने बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है !
- शोभा मिश्रा      

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