Tuesday, December 6, 2016

-स्त्री -लेखन, स्त्री-विमर्श, सत्ता-विमर्श बनाम देह -विमर्श- शोभा मिश्र

{"यात्रा" साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित आलेख }


-स्त्री -लेखन, स्त्री-विमर्श, सत्ता-विमर्श बनाम देह -विमर्श

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रुढ़िवादी परम्पराओं और शारीरिक , मानसिक रूप से प्रताड़ित स्त्री की शोषण
मुक्ति के लिए ही शायद स्त्री आज़ादी की मांग के लिए कलम उठी होगी ...
लेकिन आज स्त्री हित की बातें शायद साहित्यिक मंचों,सामाजिक संगठनों के
बैनर और गोष्ठियों तक ही सिमित रह गयी हैं .... साहित्य जगत की बात करें
तो स्त्री विमर्श पुरुषसत्तात्मक मानसिकता से लडाई के बजाय स्त्रियों की
आपसी अहम् की लडाई बनकर रह गया है ! एक तरफ परुष आपने वर्चस्व को कायम
रखते हुए घर और बाहर स्त्री को मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह उस पर
अपना अंकुश कायम रखना चाहता है दूसरी तरफ स्त्रियों का एकजुट होकर
पुरुषसत्तात्मक समाज से आज़ादी की मांग न होकर आपसी विवाद भर बन जाना
स्थिति चिंताजक है .. स्त्रियों के इस तरह के आपसी विवाद कहीं न कहीं
पुरुषों की निगाह में उपहास है ! एक वरिष्ठ लेखिका की कलम अगर युवा
लेखिकाओं के विरोध में ही चलेगी तो इसका निष्कर्ष क्या निकलेगा ? और फिर
लेखन में उम्र को क्यों बीच में लाया जाये .. लेखिकाएं चाहे वो युवा हों
या वरिष्ठ अगर पार्टियां और नाच-गाना करतीं हैं तो इसमें बुराई क्या है ?
हाँ ... अगर स्त्री लेखन महज यांत्रिक मष्तिष्क से सिर्फ उपलब्धियों के
लिए लिखा जा रहा है तो वो गलत है ! सावित्री बाई फुले ..से लेकर अगर
मौजूदा समय में मलाला का नाम लें तो उन्होंने अपनी लेखिनी के माध्यम से
स्त्रियों को शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए अपनी जान तक को जोखिम
में डाला ... चन्द्रकिरण सौनरेक्सा , मन्नू भंडारी , सुधा अरोड़ा जी ने
अपनी लेखिनी के माध्यम से घरेलू हिंसा के प्रति निम्न वर्ग और मध्यमवर्ग
की स्त्रियों का ध्यान आकर्षित किया है !

ये कैसा विमर्श
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फेसबुक जैसी सोशल साईट्स पर महिला पत्रकार , कथाकार , सोशल वर्कर्स टीन
एज़ गर्ल्स या कॉलेज गोइंग , जॉब कर रही लड़कियों को आज़ादी का पाठ पढ़ाते
हुए देर रात बाहर घूमने ... पार्टियां करने और मनमाना वस्त्र पहनने की
सलाह देतीं हैं .. और अगर इसके लिए अभिवावक रोकतें हैं तो उनका भरपूर
विरोध करने की भी सलाह देती हैं ! मनचाहा वस्त्र पहनने में कोई बुराई
नहीं है ... आजकल जिन वस्त्रों का चलन है उनमें स्कर्ट-टॉप , जींस ,
सलवार-कुर्ता ( परिधानों के और भी नाम हो सकतें हैं जो मुझे नहीं मालूम )
उन्हें पहनने में कोई बुराई नहीं है .. लड़कियों का अपने लिए वस्त्रों का
चुनाव उनका एक बेहद निजी निर्णय है मानती हूँ उसमें अभिवावकों का
हस्तक्षेप ठीक नहीं है लेकिन लड़कियों और महिलाओं के लिए एक विशेष तरह के
डिज़ाईन किये हुए कपडे जो ब्रांडेड कंपनियों द्वारा डिज़ाईन किये जातें हैं
.. जिसमें उनका मकसद स्त्री-देह का इस्तेमाल करके सिर्फ बाजारवाद को
बढ़ावा देना होता है .. रैम्प पर वाक करती हुई चीथड़े वस्त्रों में लिपटी
लड़की विशेष सुरक्षा में वहाँ पर तो ठीक है लेकिन वैसे ही कपड़े कॉलेज जाने
वाली या जॉब पर जाने वाली लड़की पहने तो कुत्सित बुद्धि वालों की गन्दी
नज़रों को आप कहाँ तक रोक सकतें हैं .. आप ये कह सकतें हैं की बुराई देखने
वालों की नज़रों में होती है .. कपड़ों या स्त्री-देह में नहीं लेकिन
अभिवावक ये नहीं सोच सकतें .. ऐसा सोचकर मानसिकता बदलने के लिए अपनी
बच्ची की बलि चढ़ाने के लिए आधे-अधूरे कपड़ों में बाहर निकलने की इजाजत
नहीं दे सकते ... देर रात आधे-अधूरे कपड़ों में लड़कियों का बाहर होना और
पार्टियां अटेंड करना ऐसे हुआ जैसे आपने किसी नरभक्षी के सामने अपने जिगर
के टुकड़े को उसकी पसंद के मसाले लगाकर फेंक दिया हो ... और ऐसे में
बच्चों के साथ कोई दुर्घटना घटती है ... किसी वहशी की कुत्सित मानसिकता
का शिकार आपकी बेटी होती है तो आप तो अपनी संतान से हाथ धो बैठेंगें ..
हाँ .. आपकी दिवंगत संतान को इन्साफ दिलाने में कुछ स्त्री-संगठनों और
उससे जुड़े लोगों के चेहरे जरुर हाईलाइट होंगें !
इसी तरह कॉलेज या ऑफिस खुलने या बंद होने का समय निश्चित होता है .. लड़की
हो या लड़का कॉलेज या ऑफिस बंद होने के बाद तय समय पर घर नहीं लौटते है तो
अभिवावकों का चिंतित होना स्वाभाविक है ... बेटी हो या बेटा उसके कितने
मित्र हैं .. उनका कैसा आचरण है उसकी जानकारी रखने का पूरा हक अभिवावकों
को है ... वो ऐसा बच्चों पर पाबन्दी लगाने या नज़र रखने के लिए नहीं करते
.. अपने जिगर के टुकड़ों की सुरक्षा के लिए करतें हैं !
मैं ऐसे स्त्री-विमर्श का भरपूर विरोध करती हूँ जिसकी वजह से बच्चों के
मन में अभिवावकों के प्रति द्वेष भावना आती हो ! अभिवावक अपनी संतान के
दुश्मन नहीं हैं .. जीवन अमूल्य है उसकी सुरक्षा बहुत जरुरी है !
( हरियाणा , राजस्थान जैसे राज्यों में गोत्र-विवाद और प्रेम संबंधों को
लेकर जिन युवा लड़के-लड़कियों की हत्या कर दी जाती है वो बहुत घृणित कृत्य
है .. उसकी जितनी निंदा की जाए कम है )

कथनी-करनी का फर्क
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रेप, एसिड-अटैक और भी स्त्री सम्बन्धी जघन्य अपराधों के खिलाफ आवाज़ उठाने
वाले संगठन से जुड़े लोग .. पत्रकार .. राजनैतिक नेता जिनमें महिलाएं
पुरुष सभी शामिल हैं उन स्त्रियों को क्यों अनदेखा करतें हैं जो किसी न
किसी तरह अपने घर-परिवार , रिश्तेदारों द्वारा सताई गयी हैं ...
घरलू -हिंसा के तहत आने वाले ऐसे अपराधों के लिए कोई कठोर कानून अभी तक
नहीं बना है ... ज्यादातर ऐसी महिलाओं की समस्या से सम्बंधित पीड़ित और
दोषी की काउंसलिंग की जाती है .. लेकिन अगर पीड़ित महिला इससे आगे की लडाई
लड़ना चाहे और वो बेरोजगार हो तो उसके लिए अपने लिए न्याय की ये लडाई
बहुत कठिन हो जाती है ... ऐसे में उनकी आर्थिक रूप से मदद करने के लिए न
तो कोई संस्थान हैं न स्त्री-विमर्श से जुड़े लोग ही उनकी कोई मदद करने
आगे आतें हैं !
संस्थानों की महिलाएं तो दूर लेखिकाओं की सहानुभूति भी ऐसी महिलाओं
के लिए सिर्फ उनकी लेखिनी तक ही सीमित है ... अगर वो प्रत्यक्ष रूप से
किसी महिला को अपने अधिकार की लड़ाई लड़ते हुए आगे बढ़ता देखती हैं तो
उन्हें उनकी छोटी से छोटी उपलब्धि भी हजम नहीं होती ... वर्चुअल साइट्स
में फेसबुक जैसी आभासी दुनिया को ही लें ... जिसके माध्यम से गृहिणियां
घर बैठे बहुत कुछ सीख रही हैं तथा अपनी लेखिनी को फलता-फूलता देख रही हैं
... फेसबुक पेज पर उनकी रचनाओं पर आये लाईक- कमेंट्स भी स्थापित लेखिकाओं
को विचलित कर रहें हैं ... वो डायरेक्ट या इनडायरेक्ट किसी न किसी तरह
से उन्हें हतोउत्साहित करने की कोशिश कर रहीं हैं ... जबकि घर-गृहस्थी
की जिम्मेदारियों में एक लम्बा समय व्यतीत कर चुकी गृहिणियां बहुत ही
मुश्किल से अपनी रचनात्मक रुचियों को सुचारू रख पा रही हैं .... घर के
सदस्य उनके हाथ में कलम और नोटबुक देखते ही तनाव में आ जातें हैं ..
कम्प्यूटर पर ब्लॉग के माध्यम से साहित्य या कोई दूसरी रुचिपूर्ण गतिविधि
में रूचि लेते हुए देखतें हैं तो उन्हें नागवार गुजरता है ... ऐसे में
घरलू महिलाएं अपने घर वालों से संघर्ष करे या बाहर की विशाल समुद्र
रुपी दुनिया में स्थापित बड़ी मछलियों से डरे ?
कुछ बातों के हमारे पास प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई सुबूत
नहीं होते ... लेकिन ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जहां अपने लिए टुकड़े भर
आसमान के लिए संघर्ष कर रही स्त्री को एक वस्तृत आसमान की स्वामिनी
स्त्री उसका छोटा सा आसमान भी हथिया लेना चाहती है ...और वापस उसे
चारदीवारी में बंद रहने के लिए मजबूर कर देती है ! लगभग चालीस वर्षीय एक
अविवाहित महिला अक्सर अपने अनुभवों को साझा करते हुए साहित्य-जगत या
पत्रकारिता में सक्रिय महिलाओं को कोसतीं है और अपना दुखड़ा सुनाते हुए
रोती हैं कि कैसे वरिष्ठ महिला पत्रकारों और लेखिकाओं ने ही उन्हें लेखन
के क्षेत्र में पीछे धकेलने की कोशिश की !

एक साक्षात्कार में सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका जी ने हिंदी लेखन के
माहौल में स्त्री की मुश्किलों के बारे में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए
कहा कि " स्त्री का शरीर उसके गले का ढोल तो है ही उसके शोषण का प्राइम
साईट भी है !" स्त्री लेखन के क्षेत्र में आने वाली महिलाओं के लिए उनका
शरीर पुरुष संपादकों या साहित्यकारों के लिए है ये तो सभी जानतें हैं
लेकिन लेखन के क्षेत्र को अपनाने वाली महिलाओं को वरिष्ठ , स्थापित
लेखिकाएं ही असुरक्षा के चलते उनपर घृणित आरोप और दूसरे अन्य तरीकों से
हतोउत्साहित करेंगी तो नयी रचनाकार कहाँ जायेंगी ? कहने का तात्पर्य ये
है कि नयी आने वाली लेखिकाओं के संघर्ष को बढ़ाने में कम से कम वरिष्ठ ,
स्थापित लेखिकाएं तो ना आयें ... प्रोत्साहित करें या न करें .. उन्हें
हतोउत्साहित तो ना करें !

विकृत मानसिकता वाले साहित्यकारों/ संपादकों के आगे घुटने टेकती अति
महत्वाकांक्षी युवा लेखिकाएं
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हाल ही में एक सम्मानित पत्रिका के संपादक और युवा लेखिका का विवाद सामने
आया ... वर्चुअल साईट्स पर ये विवाद पढ़कर तथाकथित संपादक के प्रति मन
घृणा से भर उठा ! हाँ ... यहाँ युवा लेखिका भी कम दोषी नहीं है ...
हमेशा विवादों में घिरे रहने वाले बुजुर्ग संपादक महोदय की इस बात पर
विश्वास किया जा सकता है कि उन्हें युवा महिलाओं को स्पर्श भर कर लेने से
उनका मन तृप्त हो जाता है ... फिर ऐसी विकृत मानसिकता वाले संपादक से
युवा लेखिका ने इतनी घनिष्ठता क्यों बढाई ? वो कहतें हैं न कि बिना आग के
धुंआ नहीं होता ... बुजुर्ग , लम्पट संपादक महोदय के संपर्क में बहुत
सारी सम्मानीय लेखिकाएं भी हैं .. उनके लिए संपादक महोदय ने तो कभी ऐसे
घिनौने विचार नहीं रखे ... कुछ लेखिकाओं में से इस युवा लेखिका के बारे
में ही क्यों रखे ? रातों-रात बहुत बड़ी कहानीकार बनने की इतनी ललक ??
प्रसिद्धि पाने के लिए ऐसा सॉर्ट कट ?? बहुत उत्कृष्ट लेखन बेशक कम लिखा
हो लोगों की निगाहों में आता ही है ... अपनी गति और समय अनुसार लिखते
रहना .. आत्मिक सुख के लिए लिखना क्या लेखन की श्रेणी में नहीं आता है ?
यहाँ सिर्फ महत्वाकांक्षी लेखिका को ही दोष नहीं दिया जा सकता .. सनकी
संपादक महोदय ने जिस बेबाकी से अपने मनचले स्वभाव का बखान किया .. उस पर
कोई प्रश्न क्यों नहीं उठाता ? लेखिका अतिमहत्वाकांक्षी जरुर कही जा सकती
है लेकिन इस तरह खुलेआम अपनी विकृत मनोवृति का बखान करते बुजुर्ग संपादक
साहब का किसी लेखिका ने विरोध क्यों नहीं किया ?? सम्मानित पत्रिका के
संपादक साहब अतिमहत्वाकांक्षी लेखिकाओं की कैसी भी रचना या कहानी को
पत्रिका में जगह दे देंगें जिनसे उनका निजी , शारीरिक मतलब सिद्ध होता हो
?? क्या संपादक साहब की मानसिक विकृति के लिए उन्हें किसी मनोचिकित्सक
की जरुरत नहीं है ??
ये सभी प्रश्न किसी इमानदार लेखिनी की स्वामिनी लेखिका के माध्यम से
क्यों नहीं उठाये गए ?? यहाँ इस विवाद पर विमर्श क्यों नहीं हुए ??
गोष्ठियां क्यों नहीं हुई ?? यहाँ सिर्फ विकृत मानसिकता और
अतिमहत्वाकांक्षा में आपसी सामंजस्य से प्रसिद्धि और निज सुख में
निर्लिप्तता की बात नहीं थी .. यहाँ संपादक और लेखिका के बीच में एक
सम्मानित पत्रिका की भी बात थी !

एक सार्थक स्त्री-विमर्श में लेखिनी और व्यावहारिकता , उदारता जरुरी है
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स्त्री-विमर्श में सिर्फ यहाँ सिर्फ महिलाओं और लेखिकाओं से उम्मीद रखने
पर प्रश्न उठाया जा सकता है लेकिन महिलाओं और लेखिकाओं से ज्यादा उम्मीद
यहाँ इस मंशा से रखी जा रही है क्योकि ये स्त्री-विमर्श की बात है जो कि
हर वर्ग की स्त्रियों से जुड़ी समस्याओं की बात है .. और लेखिकाएं हों या
महिलाओं से सम्बंधित संस्थान में सक्रिय महिलाएं .. उनमें जब तक
स्त्रियों के प्रति उदारता और बहनापन नहीं होगा तब तक स्त्रियों के हित
में किये गए विमर्श सार्थक नहीं होंगें !
स्त्रियों पर होने वाले अपराध वो छोटे हो या बड़े घटित होते ही मंचों पर
और इलेक्ट्रोनिक - प्रिंट मीडिया और लेखन के माध्यम से उस पर विमर्श और
परिचर्चाएं शुरू हो जातीं हैं ... लेकिन क्या शहरी क्षेत्र से दूर
गाँव-देहातों की स्त्रियों तक उनके हित में किये गए विमर्श का सार पहुँच
पाता है ... ? शहरों में भी जो स्लम एरिया है उन महिलाओं तक उनके लिए ही
जागरूकता फैलाने वाले वक्तव्यों का विवरण पहुँच पाता है ?
जब तक स्त्री-हित में लेखिकाओं द्वारा सार्थक लेखन नहीं होगा ... जब तक
स्त्रियों के बीच में मानसिक रूप से .. शैक्षिक रूप से .. आर्थिक रूप से
उच्च वर्ग और निम्न वर्ग की खायी नहीं पाटी जायेगी तब तक स्त्री हित में
लेखन और विमर्श की कोई सार्थकता नहीं होगी !
विदित हो कि पुरुषों को पूजने और उनका वर्चस्व कायम रखने के लिए जो
रुढ़िवादी परम्पराएँ बनायीं गयी हैं ... महानगरों में महिला जागरूकता
अभियान के बाद भी महिलाओं में वो परंपरा पोषित हो रही है !
अगर आप जागरूक लेखिका हैं .. स्त्री विमर्श की सार्थकता को फलता हुआ
देखना चाहतीं हैं तो आत्ममंथन बहुत जरुरी है !

"पाँव भर जमीं की उम्मीद रखो
सर पर आसमां की
चूमेंगी मंजिलें कदम
राहें होंगी आसां ज़िन्दगी की "


प्रस्तुति - शोभा मिश्रा

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