Saturday, February 23, 2013

तुम्हारी उम्र का एक मेजपोश













मैंने सहेजकर दिया






वो उजले धागे वाला मेजपोश






जिसमें बुनी थी , सुलझाई थी






गर्भ में तुम्हारी अनुभूति की पहेलियाँ










माँ पालथी मार


ठेहुन में लपेट


ममता की गोद बना


सुलझा रही थी


उजले धागों की लच्छियाँ


और मुझे सुना रही थी


मईया यशोदा की वात्सल्य कहानियाँ










वो सांध्य-बेला


मुझे आज भी याद है


मैं चौखट पर बैठी


बुन रही थी क्रोशिये से


मेजपोश की फूल-पत्तियाँ


अपनी अनामिका में लपेट


अपने भीतर तुम्हारे होने की अनुभूति के साथ


बुनती जाती तुम्हारी मनमोहक आकृतियाँ










मैंने बुना था तुम्हारा प्रथम संकेत


तुम्हारा करवटें लेना मेरे भीतर


बुनी थी वो सुखद गुदगुदियां










मैंने बुनी थी तुम्हारी प्रतीक्षा की घड़ियाँ


बुनते-बुनते प्रसव-पीड़ा की पहली कड़ी


मैं मुस्करा रही थी


तुम्हें प्रत्यक्ष देखने की व्याकुलता


बुनती जा रही थी










एक दिन तुम्हारे आगमन की


सुखद ,साक्षात् घड़ी सामने थी


मैं मेजपोश की बुनावट से


कुछ समय के लिए दूर थी






और






प्रकृति बुन रही थी मुझमें धैर्य


स्त्री देह से जीवन देने की


असह, सुखद वेदना






वो वेदना थी


इन्द्र के नृत्य-कक्ष में


बजने वाले मृदंग जैसे मधुर स्वर की


अप्सराओं के घुंघरुओं की रुनझुनी सी






अचानक !!


उजले पुष्पों की बारिश सी हुई


वेदना की सारी झंकारें थम गयीं


तुम्हारे वीणा के तारों से उद्दृत स्वर मैंने सुने


तुम साक्षात् मेरे सन्मुख थी


तुम्हें देख


मैं वसंत सी पियराई धरा हो गयी थी










वो अधूरा मेजपोश फिर बुनने लगी थी


कभी तुम्हें अंकवार में भरने की अनुभूति के साथ ...


कभी तुम्हारी तृष्णा तृप्त करती


स्वयं के यशोदा मईया होने की अनुभूति के साथ ....










कभी तुम्हारी पलकों पर निंदिया रानी बिठाने


चन्द-मामा वाली लोरी सुनाने की अनुभूति के साथ ....


कभी तुम्हारे नन्हें कदम साधने की अनुभूति के साथ ..










कभी तुम्हारी चोटियाँ बनाती ...


माँ-पापा के उच्चारण सीखाती..










अपनी अनामिका में उजला धागा लपेट


बुनती जा रही थी तुम्हारे भविष्य की स्मृतियाँ










जब तक तुमने जीवन के चार वसंत बुने


मैंने बुन लिया तुम्हारी उम्र का एक मेजपोश






तुम्हारे साथ -साथ


मेज पर सजे मेजपोश ने


पूरे कर लिए सोलह वसंत






तुम्हारे सोलह वसंत की


जन्मदिन की स्मृतियों का


उजलापन कम न हो जाए ...


तुम्हारे लड़कपन के बुने फंदे


कहीं कमजोर न हो जाएँ


इसलिए


आज


सहेजकर रख दिया मैंने


उजले धागों वाला


वो मेजपोश ..................






शोभा मिश्रा
24/2/2013

2 comments:

  1. बहुत सुखद सहज अनुभूति एक माँ की ......बहुत सुन्दरता से बुने हुए मेजपोश की तरह

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