Monday, June 4, 2012

गुलमोहर

गुलमोहर!
तुम प्राणवायु हो
शीतल छाया हो
लाल फूलों से सजे
तुम बहुत लुभावने हो

और 'मैं'
मर्यादा से बंधी
वो पवित्र धागा हूँ
जो किस्तों में कई बार बाँधी जाती हूँ
कभी बरगद,कभी पीपल के तने से
मैं बंधी हूँ
परम्पराओं की मजबूत डोर से

काश !
मैं एक अनजाने
सघन वन के कंद का बीज होती
रोप लेती खुद को
तुम्हारी जड़ों में
धीरे धीरे एक लता बन
तुम्हारे तने
तुम्हारी कोमल टहनियों
पर छा जाती
तुम्हारी हरी पत्तियों
और लाल फूलों के गुच्छों
से एकाकार हो जाती
सारी मर्यादों,परम्पराओं से मुक्त
अमरबेल बन बंध जाती
तुम संग
सदा के लिए .....!!!
शोभा मिश्रा
4/ 6/ 12

5 comments:

  1. काश...!
    ये काश... ये सुन्दर कल्पना गुलमोहर की तरह ही सुन्दर है!

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  2. मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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  3. वाह समर्पण के सुन्दर भाव से ओत प्रोत

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  4. मेरी रचना को सराहने और हौसला आफजाई करने के लिए आप सभी का हृदय से धन्यवाद !!!

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